जैता एक दिन तो आलौ……

दिनेश उपाध्याय

वक्त हमेशा बदलता है और प्रतिगामी शक्तियाँ उन्हें हमेशा रोकने की कोशिश करती हैं। मानव समाज में यह युद्ध  हमेशा-हमेशा से चला आ रहा है। उत्तराखण्ड भी इससे अछूता नहीं है, संघर्षों के विविध् आयाम जो यहाँ मौजूद हैं।

वक्त अपनी पीड़ा, अपना गुस्सा, अपने भविष्य की सोच समूहों और व्यक्तियों के माध्यम से व्यक्त करता है। कई बार तो ऐसा लगता है कि पूरा का पूरा समाज एक व्यक्ति में समाहित हो कर बोल रहा है। धर्म की कैद से स्वतंत्र होने की तड़प कबीर होकर बोलती है तो अंग्रेजों के खिलाफ पूरा भारतीय समाज गाँधी  हो जाता है। ये पीड़ाएँ कहीं भगत सिंह  के रूप में उभरी हैं तो कहीं पूरा का पूरा समूह कुली बेगार देने से इन्कार कर रहा है। ‘गौर्दा’ को जंगलों की लूट-खसोट की चिन्ता है तो गुमानी को अल्मोड़ा का नक्शा बदल जाने का गुस्सा। अंग्रेज गये पर कमोबेश व्यवस्था वही रही। जंगलों का दोहन चरम पर। इतना अत्याचार कि वक्त का गुस्सा गढ़वाल में गौरा देवी बनकर फूटता है तो कुमाऊँ में ‘गौर्दा’ का गीत आज हिमाल तुमन कें धत्यूँछ… गिर्दा के कंठ से पूरे गुस्से के साथ फूट पड़ता है। इतिहास की पंक्तियों में आज की पुकार आ जुड़ती है। अब तुम हमरी निलामी के करला हम फोड़ुलों आब तुमरो टिपाल

लोगों के हक-हकूक छीनकर उन्हें अपने पक्ष में बेच खाने वालों के खिलाफ पूरा उत्तराखण्ड आन्दोलित हो उठता है। इस आन्दोलन का सबसे मजबूत पक्ष रहा है इसका सांस्कृतिक पक्ष। और इन सांस्कृतिक अभिव्यक्तियों की जड़ में थे लखनऊ मे रिक्शा चला चुके, आकाशवाणी में गा चुके, गीत एवं नाट्य प्रभाग, नैनीताल में कार्यरत गिरीश तिवाड़ी यानी ‘गिर्दा’। जिन्हें उत्तराखण्ड के लोक की उतनी ही गहरी समझ थी जितना लगाव मार्क्सवादी विचारधरा से था।

गिर्दा इस बात को भली-भांति जानते थे कि पीडि़तों की पीड़ा ही संघर्ष का रूप लेती है और संघर्ष ही वक्त को बदलते हैं। विभिन्न माध्यमों से इन जन संघर्षों को ताकत देना और जन संघर्ष को आगे बढ़ाना ‘गिर्दा’ का मुख्य काम था। दुश्मन की पहचान ‘गिर्दा’ को बहुत अच्छी तरह से थी और वे भविष्य में जन विजय के प्रति भी आश्वस्त थे। उनका हर शब्द प्रतिगामी शक्तियों को ललकारता था।

दुष्टो! सावधन, वक्त के पेट में बच्चा है जो हाथों में अग्नि लिये है और जिसकी आँखों में उजाला है और उसी भविष्य के बच्चे के लिए तुम्हारी नौणी (मक्खन) से भी ज्यादा चुपड़ी (चिकनी) हैं हमारी सूखी जटाएं कहने वाले जंगल उत्तराखण्ड की जनता के लिए माँ के समान है। जो उसे पालते, दुलारते हैं। हर जरूरत पूरी करते हैं। जब 1975 का वन अधिनियम आया और यह जंगल यहाँ की जनता के हकों को छीनकर सरकार ने नीलामी की तब ‘गिर्दा’ ने वन- नीलामी के खिलाफ जहाँ एक ओर गिरफ़्तारी दी तो दूसरी तरफ संघर्षों को मजबूती देने के लिए अंधेर नगरी, नगाड़े खामोश हैं, थैंक्यू मिस्टर ग्लाड जैसे नाटक भी सबके साथ मिलकर तैयार करवाए।

चिपको आंदोलन के दौरान होली का पर्व आया तो ‘गिर्दा’ ने परम्परागत रूप से गायी जाने वाली होली को आंदोलन का त्यौहार बना दिया। होली थी कालो किशनियाँ चैन ल्हिने गयो रे और उसमें पंक्तियाँ जुड़ीं बोट की ओट में लखनऊ पुजिगे, पै वां बटि जाँठ बरसे गयो रे
(Tribute to Girda by D Upadhyay )

सामाजिक संघर्षों में किसी न किसी रूप में भागीदार रहने वाले ‘गिर्दा’ राजा और पिरम के साथ मल्लीताल, नैनीताल क्लब के पीछे चीना मन्दिर के सामने एक छोटे से कमरे में रहते थे। उनके दो साथियों में राजा लकड़ी फाड़ने का काम करते थे और मूलतः नेपाली थे और पिरम था छोटा बच्चा, जिसके पिता थे राजा। यूं दिखने में छोटा-सा यह कमरा कई बैठकों, रचनाओं, आंदोलनों की तैयारी का गढ़ था।

साहित्यिक-सांस्कृतिक संस्था जागर जनगीत और नुक्कड़ नाटकों के साथ पदयात्रा करती टोली के सदस्य जन समस्याओं को समझते और उनके जनगीत तथा नुक्कड़ नाटक जन संघर्षों को प्रेरित करते। जागर के मूल में थे ‘गिर्दा’। जागर की पदयात्राओं से यह बात सामने आई कि नशा, मुख्यतः शराब उत्तराखण्डी समाज को खोखला कर रही है। घरों के गहनों से लेकर बर्तन तक बिक गए और सारी कमाई शराब बेचने और बिकवाने वालों की झोली में जा रही है। छिड़ गया आन्दोलन नशा नहीं रोजगार दो। ज्यादातर पीडि़त पक्ष था महिलाएं। पीते पुरुष थे, घर महिलाओं के उजड़ते। इसलिए महिलाएं इस आन्दोलन की जबरदस्त ताकत भी रहीं। उन्होंने भट्टियों (शराब की दुकानों) में धरना दिया तो कई जगह इन दुकानों पर महिलाओं ने ताला भी ठोक दिया। रामगढ़ में भी जबरदस्त आंदोलन रहा। नशे के खिलाफ जब रामगढ़ में जुलूस था तो ‘गिर्दा’ के तरकस से तीर निकला रामगड़ै की पूला हलकनी किलै नै/लखनऊ सरकार बुलानी किलै नै/छन आँख सरकार देखनी किलै नै/भट्टी जागा में फैक्ट्री लगूनी किले नै

लगातार आन्दोलनों को ताकत देते रहने के लिए ‘जागर’ की ओर से तीन कैसेट भी उस दौर में निकाले गये। जनगीत, लोकगीत और कविताएं। निश्चित रूप से इन कैसेटों की तैयारी में गिर्दा की मुख्य भूमिका थी। पूरे वर्णन से ऐसा लग रहा है कि गिर्दा एक जागरूक सांस्कृतिक कर्मी थे। पर आन्दोलन के दौर में रोज आन्दोलनकारियों की बैठकें होतीं। रोज तय होता कि कल क्या होगा? कहाँ से जुलूस निकलेगा कहाँ तक पहुँचेगा? कहाँ आम सभा होगी? कौन-सा जनगीत गाया, नारे क्या होंगे? इन सब बारीक से बारीक बातों को तय करने के पीछे होते थे गिर्दा। नैनीताल में डी.एम. कोर्ट में आमरण अनशन में बैठे आन्दोलनकारियों से जब गिर्दा मिलने जाते तो भरी दोपहरी हाथ में जली लालटेन लेकर जाते। ये प्रतीक होता इस बात का कि इस अंधी सरकार को दिन के उजाले में भी कुछ नहीं दिखता। हर रोज दैनिक अख़बारों के भीतर हाथ से लिखी पर्ची डाली जाती जिसमें आन्दोलन और आमरण अनशन करने वालों की स्थिति का जिक्र होता।

जन संघर्षों को आगे बढ़ाने के लिए गिर्दा ने अन्य रचनाकारों का जन आन्दोलनों, नाटकों और जनगीतों में बेहतरीन उपयोग किया। हम मेहनतकश जग वालों से जब अपना हिस्सा माँगेंगे, एक देश नहीं, एक खेत नहीं हम सारी दुनिया माँगेंगे। लिखने वाले मशहूर शायर पफैज की रचना का कुमाउँनी अनुवाद हम ओड़बारुडि़ल्वारकुल्लीकभाडि़, जधीन यो दुणी थैं हिसाब ल्यूंलो/एक हांघ नी मांगू एक फांग नी मांगू सबै खसरा खतौनी किताब ल्ह्यूंलो सुनकर लगता ही नहीं कि यह एक उर्दू नज्म का अनुवाद है।

बल्ली ¯सह चीमा के जनगीत ले मशालें चल पड़े हैं लोग मेरे गाँव के, अब अँधेरा जीत लेंगे लोग मेरे गाँव के की धुन ऐसी बनी कि यह पूरे देश की संघर्षरत जनता का प्रिय गीत बन गया। चारुचंद्र पाण्डे जी की होली ऋतु औनि रौली भंवर उड़ाला बलि अब बारहों महीने गाया जाता है।

‘नशा नहीं रोजगार दो’ आन्दोलन के दिन 15 अगस्त को जुलूस निकलना था। गिर्दा ने गीत छांटा। सबने मिलकर तैयारी की और 15 अगस्त को नैनीताल में गूंज उठी सरदार ज़ाफरी की रचना। कौन आजाद हुआ, किसके माथे से गुलामी की सियाही छूटी / मेरे सीने में अभी दर्द है महकूमी का मादरे हिन्द के चेहरे पे उदासी है वही
(Tribute to Girda by D Upadhyay )

बहुत लम्बी सूची है उन रचनाकारों की जिनकी रचनाओं का उपयोग जन संघर्षों में हुआ। सौ में सत्तर आदमी पिफलहाल जब नासाद हैं / दिल पर रखकर हाथ कहिये देश क्या आजाद है। रामनाथ सिंह  ‘अदम’। हमारी ख्वाहिशों का एक नाम इंकलाब है / हमारे हर सवाल का जवाब इंकलाब है। गोरख पाण्डे। पोस्टरों में हरिवंश राय बच्चन की ‘मधुशाला’ के अंश। नाटकों में श्वेत श्याम रतनारि अंखिया निहार के महामहा प्रभुओं की पग धूरि झारि के लौटे हैं दिल्ली से कल टिकट मार के’। बाबा नागार्जुन। इसके अलावा सफदर हाशमी और भी कई-कई। अनन्त है यह कथा। आ पहुँचता है उत्तराखण्ड आंदोलन। उत्तराखण्ड आन्दोलन में नैनीताल में संध्या के समय तल्लीताल और मल्लीताल लोगों को आन्दोलन में हो रही गतिविधियां से वाकिफ कराने हेतु उत्तराखण्ड बुलेटिन का प्रसारण होता था। यह प्रसारण लगभग दो माह चला और गिर्दा ने इस बुलेटिन में हर दिन नई पंक्तियाँ गाईं जो पूरा उत्तराखण्ड काव्य ही बन गया। उन्हीं दिनों रचा गया गीत- उत्तराखण्ड मेरी मातृभूमि, मातृभूमि मेरी पितृभूमि, भूमि तेरी जै जैकारा तो उत्तराखण्ड का कुलगीत ही बन गया।

होली का त्यौहारा आया तो गिर्दा ने गाया- उनरी ले कर लिया फाम/होली की बधे छू सबन के उत्तराखण्ड आन्दोलन के शहीदों को याद करते हुए इस तरह होली की आशीष देने वाले गिर्दा का हमेशा प्रयत्न रहता था कि महिलाएं आगे बढ़ें। यूँ उत्तराखण्ड के हर आन्दोलन में महिलाएं प्रमुख शक्ति तो थीं पर उन दिनों नेतृत्व उनके हाथ में नहीं था। महिलाओं को सभा का संचालन देना, उन्हें मंच पर बैठाना गिर्दा की इच्छा को जाहिर करता। गिर्दा की यही इच्छा महिला मोर्चा बनवाती है। तो यह इच्छा उत्तरा भी प्रकाशित करवाती है और आज महिलाओं को उत्तराखण्ड की प्रमुख शक्ति के रूप में चिन्हित किया जा सकता है जिसके हाथ में अपने-अपने संगठनों का नेतृत्व भी है।

लगातार जन-संघर्षों में रहने वाले गिर्दा ने इतनी कोशिशें इसलिए कीं कि हम नहीं तो हमारी भावी पीढि़याँ एक दिन जरूर ऐसा लायेंगी/देखेंगी जब दुनिया में भेदभाव रहित, शोषण मुक्त समाज का सपना पूरा होगा।
(Tribute to Girda by D Upadhyay )

ततुक नी लगा उदेख
घुनन मुनइ नि टेक
जैंता एक दिन तो आलो उ दिन यो दुनी में।।1।।
जै दिन कठुलि रात ब्यालि
पौ फाटला, कौ कड़ालो
जैंता एक दिन तो आलो उ दिन यो दुनी में।।2।।
जै दिन चोर नी पफलाला
कै कै जोर नी चललो
जैंता एक दिन तो आलो उ दिन यो दुनी में।।3।।
जै दिन नान-ठुलो नि रौलो
जै दिन त्योर-म्योरो नि होलो
जैंता एक दिन तो आलो उ दिन यो दुनी में।।4।।
चाहे हम नि ल्यै सकूँ
चाहे तुम नि ल्यै सकौ
मगर क्वे न क्व तो ल्यालो उ दिन यो दुनी में।।5।।
वि दिन हम नि हुँलो लेकिन
हमलै वि दिन हूँलो
जैंता एक दिन तो आलो उ दिन यो दुनी में।।6।।

16 सितम्बर 94
(Tribute to Girda by D Upadhyay )

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