सम्पादकीय जनवरी-मार्च 2018

यूँ तो मानव का संघर्ष नया नहीं है, अगर महादेवी के शब्दों को उद्धृत करें तो- ‘संघर्ष तो मनुष्य के पैदा होने के साथ प्रारम्भ हो जाता है। वह तो कला है जिसे मनुष्य विकसित करता है।’ कला की बात करें तो जीने की कला भी एक कला है और सभ्यता के विकास के साथ हमें मान लेना चाहिए कि हम जीवन को अधिक परिष्कृत रूप देने में सक्षम हैं। यह परिष्करण जीवन के सौन्दर्यबोध से जुड़ा है। जीवन या कहें जीने का सौन्दर्यबोध, वह जिसमें हम आदिम प्रवृत्तियों की कठोरता को छोड़कर सुघड़ और सुसंस्कृत जीवनशैली को विकसित करें।

मनुष्य अपने जीवन से और मानव सभ्यता परम्पराओं से सीखकर ही आगे बढ़ती है। इसी तरह बढ़ते-बढ़ते मानव सभ्यता आज के मुकाम पर पहुँची है। इससे उसके वर्तमान स्वरूप की पहचान बनी है।

स्त्री के संघर्ष की बात करें तो आदिम युग से ही उसका संघर्ष दोहरा रहा है। उसे दैनन्दिन जीवन के संघर्षों के साथ-साथ अपने वजूद के संघर्ष से भी जूझना पड़ता रहा है।

जहाँ से मनुष्य की सभ्यता के विकास का इतिहास मिलता है, वहीं से स्त्री की परतंत्रता का इतिहास भी शुरू हो जाता है। सामाजिक विधि-विधान हो या धार्मिक अनुष्ठान, पारिवारिक स्थिति हो, नैतिक मूल्यों की प्रस्थापनाएँ, सभी कहीं न कहीं उसके अस्तित्व को चुनौती देते दिखाई देते हैं। उसके लिए अर्धांगिनी शब्द मिलता है और समाज में पीढ़ी-दर पीढ़ी शताब्दियों से इसका पोषण मिलता है और कुछ ऐसे शब्द बनते रहे हैं उससे जुड़कर जैसे- आधी आबादी, सहधर्मिणी, अभी बहुत वर्ष नहीं बीते हैं, जब पति को स्वामी और मालिक जैसे शब्दों से नवाजा जाता था और पति को लिखे पत्र मेरे प्राणपति/स्वामी से शुरू होकर आपके चरणों की दासी के साथ समाप्त होते थे। पति का नाम लेना महापाप था। पैदा होने के साथ ही उसका वजूद पति के लिए तय कर दिया जाता था। बचपन से उसकी परवरिश इसे ही ध्यान में रखते हुए की जाती थी। अभी भी यह प्रवृत्ति पूरी तरह खत्म नहीं हुई है।
(Editorial January-March 2018)

स्त्रियों के लम्बे संघर्ष का परिणाम है कि नई पीढ़ी का एक बड़ा हिस्सा स्त्री-पुरुष समानता को दर्शा रहा है। दर्शा रहा है इसलिए क्योंकि उसमें कितनी गहराई है इसकी थाह लेना अभी बाकी है। आज पत्नी समान पढ़ी-लिखी, समकक्ष नौकरी में लगी है, घरेलू कामकाज की पूरी जिम्मेदारी अब आंशिक हो गई है यह दीगर बात है, जो काम महिलाएँ करती थीं उन कामों को घर में ‘मेड’- घरेलू काम करने वाली महिलाएँ वेतन पर काम कर रही हैं। गृहिणी के अपने कंधे का जुआ उन पर डाल दिया है और वह अपनी इस मुक्ति में बेहद खुश है।

आश्चर्य तब होता है जब ये बेटियाँ घरेलू काम से अपने को मुक्त कर बेहद खुश और गौरवान्वित होती हैं, लेकिन जब माँ के पास जाती हैं तो…. उन्हें कितना मुक्त कर पाती हैं? वैसे इसकी भी पहल शुरू हो चुकी है। कई बेटियाँ हैं, ये बेटियाँ-बहुएँ भी हैं जो माँ को समझती हैं और उनकी मुक्ति की राह तलाशती हैं, साथ खड़ी होती हैं।

आज विकास के इस दौर में महिलाएँ अपने को सिद्ध कर रही हैं और रोज ही ऐसे नये प्रतिमान गढ़ रही हैं, जिसमें उनके प्रति पारम्परिक सोच में बदलाव आ रहा है। हर उस क्षेत्र में वह पाँव जमा रही है जो केवल पुरुषों का माना जाता था। वह सार्वजनिक जीवन का अहम हिस्सा बनती जा रही है। कुछ जुमले हैं वह बार-बार सुनाई देते हैं- ‘पुरुषों के कंधे से कंधा मिलाकर चल रही हैं’, ‘लड़कियों ने दिया लड़कों से बेहतर परिणाम’ लड़कियाँ भी अब पीछे नहीं…..। लेकिन इन सबके बीच सरकार का नारा ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ सोचने पर विवश कर देता है। बेटी यानी आधी आबादी उसे बचाने के लिए हमें सरकारी कार्यक्रम बनाना पड़ रहा है। हमारी अपनी बेटियों को बचाने के लिए सरकार अभियान चलाये इससे बड़ी शर्म की बात हमारे लिए क्या हो सकती है?

आम बोलचाल में बहुधा कहा जाता है क्या तुम भी बाबा आदम के जमाने की बात करते हो? या फिर अपने आधुनिक होने का दावा प्रगतिशीलता के अर्थ में किया जाता है। लेकिन अपनी सोच में उसी मानसिकता में जकड़ा है समाज। महिलाओं की सफलता के उल्लेख के साथ महिला सशक्तीकरण का अभियान चलाया जाता है। सहजीवन (लिव इन रिलेशनशिप) को स्वीकृति देने की जद्दोजहद के बीच ऑनर किलिंग सम्मान के लिए लड़की/लड़के की हत्या और उससे ऊपर खाप पंचायतों के फैसले, जो स्त्री की प्रेम करने/प्रेम विवाह करने पर जान से मार देने, सामाजिक बहिष्कार करने, चारित्रिक हनन के निर्णय ले लेती है। अब तो इसका जिम्मा बजरंग दल और ऐसी ही सोच रखने वालों ने प्रेमी युगल को सार्वजनिक रूप से प्रताड़ित करने वालों ने ले लिया है।

जिस बेटी को बचाने और पढ़ाने का सरकार नारा दे रही है, उस बेटी की कितनी सामाजिक सुरक्षा है। महिला छात्रावास के बाहर निकली बी.एच.यू. की छात्राओं का मामला हो या डी.यू. के महिला छात्रावास में गंदा गुब्बारा फेंकना, हमारे समाज का खुला आईना है, जहाँ माना जाता है कि हम, हमारा धर्म स्त्रियों का सम्मान करता है।
(Editorial January-March 2018)

समाज या कहें समुदाय स्त्रियों को इज्जत का प्रतीक तो मानता है लेकिन उनका सम्मान करना नहीं जानता। जातीय दंगों में दूसरे सम्प्रदाय की स्त्रियों से बलात्कार, आन्दोलनों को कुचलने के लिए सत्ता द्वारा बलात्कार। एकतरफा प्यार को स्वीकार न करने पर एसिड से जला देने का व्यवहार। बेटी से भी छोटी उम्र की लड़की वे विवाह संतान के लिए या पुत्र प्राप्ति के लिए दूसरा विवाह, विवाहिता पत्नी को घर में छोड़कर प्रवास में दूसरी पत्नी से सम्बन्ध या विवाह। इस सबके बावजूद रिश्तों-परिवार और नैतिकता की दुहाई, सिर्फ महिलाओं के लिए। आखिर क्या है यह सब?

जारी है सदियों से स्त्रियों के मन और शरीर पर चोट करते जाना। आज जब स्त्री आत्मसजग हो रही है तब समाज के मन में प्रश्न ही प्रश्न हैं जैसे- आखिर क्या चाहती है स्त्री? पहले वह पर्दे में रहती थी, पर्दे से बाहर हुई। घर में ही चहारदीवारी में रहती थी, चहारदीवारी से बाहर निकली, सभा-समाज का हिस्सा बनी, नौकरीपेशा बन गईं है, आखिर यह सिलसिला कहाँ रुकेगा, क्या चाहती है वह? कौन-सी आजादी चाहती है?

स्त्री का प्रश्न भी यहीं से उठता है उसके सवाल में-तुमने क्यों पर्दे में रखा मुझे? क्यों घर की चहारदीवारी में कैद रखा? क्यों आजीविका के समान अवसर नहीं चुनने दिये? क्यों? क्यों लगाई इतनी बंदिशें? गुलामी के इतने बंधनों को तोड़कर हासिल किया है वह सब, जो आज पाया है- समाज को दिखाई दे रहा है। हमारा एक ही सवाल है क्यों नहीं तुमने हमें अपने ही बारे में सोचने और निर्णय लेने दिये। यह हमारी स्वतंत्रता का हरण है और यही स्वतंत्रता चाहती हैं। इन्हें मांगेगी नहीं हासिल करेंगी अब औरतें।
(Editorial January-March 2018)

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