उत्तरा का कहना है..अक्टूबर दिसंबर 2016

8 नवम्बर 2016 की सायं केन्द्र सरकार/ देश के प्रधानमंत्री ने एक बड़े फैसले में 1000 और 500 के रुपये की नोटबंदी की घोषणा की। सरल शब्दों में कहें तो देश में आर्थिक आपातकाल आ गया। घेषणा आम जनता के लिये अप्रत्याशित थी।

राज्य की जिम्मेदारी होती है लोगों के जान माल की रक्षा करने की। उसमें सरकारें पहले ही कानून और व्यवस्था को चाक चौबंद करने में सफल नजर नहीं आतीं लेकिन यहाँ तो नोटबंदी के कारण अपना जमा धन सरकारी नीति से हिलता नजर आ रहा है। अगर वास्तविक सर्वेक्षण किया जाये तो हमारे पास जनता के लिये कुछ भी पर्याप्त नहीं है- न रोजगार न शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधायें न ही सुरक्षा की गारंटी। जब सरकार लोगों को रोजगार देने में असफल रही तब स्वरोजगार की दिशा बनी और इसके लिये प्रोत्साहित भी किया गया। जिसमें लोगों ने अपने-अपने स्तर पर अपने लिये रोजगार जुटाये, चाहे वह ट्यूशन हों या टैक्सी ऑटो चलाना। फेरी लगाकर सामान बेचना हो या सड़क के किनारे बैठकर छोटी-मोटी चीजें बेचना। व्यवस्था इन्हें न तो कोई सुविधा दे पाती है न सुरक्षा। व्यवस्था की नजर में यह अतिक्रमण है। यह लोग सरकार को टैक्स नहीं देते हाँ सरकारी नुमाइंदों या दबंगों को हफ्ता देकर रोजगार बचाते हैं। पढ़े-लिखे बेरोजगारों ने छोटी-छोटी दुकानें खोलीं। हर हाथ को काम जो सरकारें नहीं दे पायीं वह इस व्यवस्था से लोगों ने जुटायी। व्यवस्था की नजर में यह सब गैर कानूनी है।

देखा जाय तो सरकारी कामकाज में सबसे ज्यादा भ्रष्टाचार है और उससे भी ज्यादा उन व्यावसायिक घरानों में जो राजनैतिक पार्टियों को संसाधन जुटाती हैं इसलिये अप्रत्यक्ष रूप से राज्य की नीतियाँ और सरकारी तंत्र की व्यवस्था उनके अनुसार चलती है। कर्ज माफी हो या टैक्स की माफी या छूट वह भी इन्हें ही मिलती है। सामान्य जनता के लिये टैक्स इतना ज्यादा है कि वह इससे बच निकलना चाहता है। सच तो यह है कि वह इतना समर्थ ही नहीं है। इसी आड़ में बड़े लोगों को मौका मिलता है। शराब के बड़े व्यापारी ठेकों पर कब्जा करते हैं अपने इम्प्लोयीज के नाम पर ठेके लेकर। अभी भी जनधन खातों में ऐसे ही पैसा रखवाया गया। जब ठेके होते हैं तब क्या पड़ताल होती है कि जिसके नाम पर टेण्डर खुला है वह इस योग्य है या नहीं? पता होता है सब पता होता है तंत्र को लेकिन वह माफिया का ही साथ देता है कोई अकेला ईमानदारी बरतना भी चाहेगा तो टिकेगा क्या? इसलिये काले धन का जो गठजोड है वह है माफिया, अफसरशाही और नेताओं का। राजनैतिक दलों का गठजोड़ टूट जाता है जब वह मुद्दों? की बात करता है। लेकिन यह गठजोड़ कभी नहीं टूटता और जनता इसका खामियाजा भुगतती है। उसे ही कभी डर दिखाकर और कभी रहनुमा बनाकर लूटा जाता है।

मोदी सरकार माने या न माने वह भी अच्छी तरह जानती है कि नोटबंदी का फैसला व्यावहारिक नहीं था। रक्षा से जुड़े मुद्दे के बराबर ही संवेदनशील मुद्दा आर्थिक मुद्दा होता है। रक्षा मामलों में आप अपने दुश्मन के खिलाफ रणनीतियाँ बना रहे होते हैं, लेकिन यह रणनीति तो अपने ही देश्वासियों के खिलाफ थी। लोकतंत्र में फैसले जनता को विश्वास में लेकर किये जाने चाहिए न कि उन पर थोपकर। भाजपा बार-बार कांग्रेस मुक्त भारत का नारा देती है क्या है यह नारा आप देश को कांग्रेसमुक्त कैसे कर दोगे वह या तो जनता करेगी या उनकी अपनी गलत नीतियाँ करेंगी ऐसा कहकर आप कैसी राजनीति करना चाहते हैं? लोकतंत्र की मर्यादायें क्या हैं।
(Editorial October December 2016)

नोटबंदी का फैसला लिया गया और अब लगातार कैशलैस इकोनोमी की पैरोकारी की जा रही है। सवाल यह उठता है कि हम अपने समाज को कितना समझते है? देश कितना इसे समझता है और वह इसके लिये कितना तैयार है? इस पर क्या कोई जमीनी सर्वेक्षण हुआ है? क्या इसकी कोई जरूरत नहीं है? क्या भारत की भोलीभाली जनता को बरगलाकर उस पर प्रयोग करना उचित है? प्रयोग शब्द इसलिये कह रहे हैं कि इस फैसले के बाद इसे लागू करने की प्रक्रिया में जितनी बार नियम बनाये गये और उनमें बदलाव किये गये वह साफ दर्शाता है कि इसमें कितनी खामियाँ थीं।

नोटबंदी की पैरोकारी के लिये इसे लोगों द्वारा सही ठहराये जाने की कवायद के बदले यदि साफ मन से इसका विश्लेषण किया जाता तो अच्छा होता।

नोटबंदी की घोषणा के बाद आम लोगों को जो परेशानियाँ हुई उस पर मीडिया निरंतर फोकस कर रहा है। लेकिन इसके लिये हमें अपने समाज को समझने की भी जरूरत है। काला धन वह नहीं है जो जनता ने अपनी मेहनत से कमाने के बाद अपनी तरह से खर्च करने के लिये अपने पास रखा है। कहना न होगा इसमें सबसे ज्यादा तकलीफ और परेशानी में वही आया जिसने गलत तरीकों से धन जमा नहीं किया था। काली कमाई वाला तो सरकारी मशीनरी से भी पहले एक्शन में आ गया परिणाम सबके सामने है पैसों की कालाबाजारी सबके सामने है। इतना ही नहीं इस प्रक्रिया ने बहुत से लोगों को जोड़तोड़ करने, बेईमानी करने को उकसाया/विवश किया। बहुतों का ईमान डगमगाया। जनता फिर अविश्वास के गर्त में ढकेली गई। भ्रष्टाचार ने नई ऊँचाइयों को छुआ।

महिलाओं के लिये नोटबंदी बहुत सी समस्यायें लाई। सीमित घर खर्च में से कतर ब्यौंत कर बचाया गया धन अचानक काला धन हो गया। यह वह धन था जो उसने मुसीबत के समय के लिये बचाया था। अचानक आने वाले खर्चों के लिये यह बचत होती है, इसी से जोड़-जोड़कर वह अपने शौक पूरे करती है और अपने हाथों से खर्च करने का सुख पाती है। बेटी के हाथ में चुपके से कुछ रखना है तो कमजोर संतान की मदद करनी है तो । एक परम्परा और दुख बीमारी या कोई आकस्मिक जरूरत के लिये रखा यह पैसा कितना भी हो सकता है।

इस दौरान कुछ ऐसे किस्से सामने आये जिनमें महिलाओं के इन पैसों पर जो मार आई वह भी विचार योग्य है। ग्रामीण महिलाओं के पास यह राशि हजार से लेकर लाखों तक पाई गई। उनका यह पैसा पति या बच्चों द्वारा बेंक में जमा कराया गया और यह उन्हीं का हो गया। पति का तर्क था- यह पैसा मेरा ही तो था, तुम्हारा पैसा कहाँ से आया। एक महिला के पास दूध बेचकर सालों से कमाया गया पैसा ढाई लाख रुपये से बहुत अधिक था उसे जमा करना था, अब वह इसका क्या हिसाब दे, कौन-सा बहीखाता पेश करे ? एक अन्य महिला की बचत का यह पैसा जब बेटे की मार्फत बैंक में जमा हुआ तो बेटे की लाटरी लग गई वह एक दुकान में काम करता था। उसने नौकरी छोड़ दी।

महिलायें लम्बे समय से शराबबंदी की मांग कर रही हैं जिस पर सरकारें घ्यान नहीं देती। इसी शराब की भेंट चढ़ने से गुपचुप बचाया गया पैसा भी काला धन हो गया। रिश्तों में अविश्वास भी पैदा हुआ। अब जब बैंक में जमा धन निकालने के लिये भी जब सीमा तय कर दी गई तब घर चलाने के लिये सबसे ज्यादा परेशानी भी गृहिणी को ही उठानी पड़ रही है जबकि निर्धारित राशि भी कैश की कमी के चलते नहीं मिल रही है।

नोटबंदी से जिस तरह छोटे और घरेलू उद्योगों को हानि पहुंची है उसका ज्यादा प्रभाव महिलाओं पर ही पड़ा है। नकद भुगतान में बाधा आने से मजदूरों को बड़ा नुकसान पहुँचा है उसमें भी महिलायें ज्यादा प्रभावित हुई हैं। छोटा धंधा चलाने वालों को छंटनी करनी पड़ी, उसमें भी महिलाओं की बड़ी संख्या है। हाथ की कारीगरी से जुड़े उद्योगों में कार्यरत महिलाओं के लिये संकट पैदा हो गया है। बैंक की लाइन खत्म होने पर ही अभी साल छ: महीने लगने की संभावनायें व्यक्त की जा रही हैं, तब इन बरबादी की कगार पर खड़े इन उद्योगों का क्या होगा और क्या होगा उन महिलाओं का जिनका रोजगार इनसे जुड़ा है। विकल्प कहाँ है?

काला धन तुरंत सफेद हो गया। नकली नोट तुरंत बन गये। आतंकी हमले बदस्तूर जारी हैं।

बदली है तो अर्थव्यवस्था जिसमें छोटे उद्योग बंद हो रहे हैं। लोगों का अंशकालिक रोजगार कम हुआ है। कृषि प्रभावित हुई है। किसान प्रभावित हुए हैं। महंगाई का बढ़ना तय है जिसकी बानगी पैट्रोल डीजल के बढ़ते दामों से दिखाई देनी शुरू हो गई है। अब नोटबंदी का मूल मुद्दा कैशलैस इकोनोमी का आगे बढ़ रहा है और जनता को इस निर्णय के लिये तैयार होना होगा। राष्ट्रगान तो गाना ही होगा
(Editorial October December 2016)

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