उत्तरा का कहना है

हम इक्कीसवीं सदी में हैं, हमने विकास की बहुत सारी मंजिलें तय कर ली हैं। हमारी जिन्दगी में, हमारी जीवनशैली में बहुत बदलाव आ गए हैं। लेकिन महिलाओं के बारे में सोच जस का तस है। हाल के लोकसभा चुनावों में पाया गया कि वोटर के रूप में महिलाओं की संख्या में भारी बढ़ोत्तरी हुई है, लेकिन उस अनुपात में महिला प्रत्याशियों की संख्या बहुत कम है। दिल्ली की बात करें तो इस चुनाव में कांग्रेस, भाजपा और आप पार्टियों ने एक – एक महिला उम्मीदवारों को टिकट दिया था जिसमें से केवल भाजपा की मीनाक्षी लेखी चुनाव जीतीं। इन चुनावों में ऐसा तो लगा कि इन राजनीतिक दलों ने महिलाओं को चुनाव में टिकट देने और जीती हुई पार्टी ने उन्हें मंत्रिमंडल में स्थान दिलाने की कोशिश की है। लेकिन बड़ी बात यह है कि जब तमाम कार्यक्षेत्रों में महिलायें लगभग बराबर की संख्या में मौजूद हैं, बस संसद और विधासभाओं में ही नहीं हैं। हाँ पंचायतों में वह बराबरी के आंकड़े में हैं, होकर भी न होती हुई सी। आखिर क्यों है ऐसा जबकि जीवन के हर क्षेत्र में वह बड़ी संख्या में मौजूद हैं।

आश्चर्य की बात तो यह है कि आज भी अधिकांश महिलाएं इससे अनभिज्ञ हैं कि उनके पिछड़ेपन का कारण वह स्वयं नहीं वरन् यह सामाजिक व्यवस्था है जो उन्हें हमेशा दूसरी पंक्ति की कतार में देखना चाहती है। वर्षों से चली आ रही पुरुषसत्तात्मक व्यवस्था ने उनकी सोच को भी इस कदर जकड़ लिया है कि वह स्वयं अपने को पुरुष की दृष्टि से देखने की आदी हो गई है। जो महिलाएँ  स्त्री के अधिकारों की बात करती हैं उन्हें वह भी नकारती नजर आती हैं। उन्हें आज भी पुरुष के संरक्षण में ही अपनी सुरक्षा नजर आती है। रूढ़ परम्परायें निभाना वह आज भी अपना दायित्व समझ लेती है। घर की चहारदीवारी के अंदर का पराश्रित जीवन आज भी उसे स्वाभविक लगता है। घर में सब कुछ करते हुए भी बेमालूम बने रहना उसे अटपटा नहीं लगता। सामाजिक कार्यक्षेत्रों की महिलायें उन्हें अपने बीच की नहीं लगतीं। इसीलिए पंचायतों में 50 प्रतिशत आरक्षण पा लेने के बाद भी उन्हें अपने नाम पर पतियों का काम करना गलत नहीं लगता। उन्हें अपने उन कार्यों का महत्व ही पता नहीं है जो वह नितांत घरेलू महिला के रूप में करती हैं। बल्कि उसे स्वाभाविक रूप से यह अपनी दिनचर्या मात्र लगती है, वह अपना और अपने कार्यों का मूल्यांकन कभी नहीं करती। व्यवस्था ने उसे बच्चों को जन्म देने, पालने और घर परिवार की जिम्मेदारी सौंपकर उसके  लिए बाहरी दुनिया के दरवाजे बंद कर दिए, इसीलिए उसके लिए बाहर की दुनिया हमेशा पराई सी रही और उसने यह मान भी लिया कि घर से बाहर की दुनिया सिर्फ मर्दों की दुनिया है। उसने घर से बाहर जब भी कदम निकाला डरते सहमते और बहुत बार अपराध भाव के साथ। समाज के अदृश्य पहरे को उसने हमेशा लोग क्या कहेंगे के भाव के साथ अपने आस पास बनाये रखा।

इस पितृसत्तात्मक सोच ने जहाँ पुरुषों को विशेषाधिकार दिए वहीं स्त्री को निरंतर कमजोर बनाया। स्त्री के लिए हमेशा वही करना जरुरी होता था जिससे पितृसत्ता को मजबूती मिले। स्त्री के रहन-सहन, खान-पान सभी पर यह नियंत्रण मौजूद है। उसकी दिनचर्या इसी निर्धारित दायरे में घूमती है, उसके लिए इससे बाहर जाकर सोचने की न आज्ञा है, न अवसर और न ही नयी सोच विकसित होने की सम्भावनाएँ। अगर फिर से पंचायतों के उदाहरण में आया जाए तो उस आम मेहनतकश महिला जिस पर घर, जल जंगल, जमीन से जुड़े कार्यों का इतना बोझ है कि उसके लिए पंचायत का कार्य अतिरिक्त जिम्मेदारी होती है, वह इसके लिए समय और ऊर्जा कहाँ से लाए । एक बार जब हम एक ऐसे गाँव में पहुँचे जहाँ की ग्रामप्रधान महिला थी। हमारे लिए यह जानकारी बहुत सुखद थी। हम  ग्रामप्रधान के घर का पता पूछते-पूछते वहाँ जा पहुँचे। पास ही रहने वाला एक व्यक्ति घर तक पहुँचा गया। घर में मौजूद व्यक्ति ने हमारा स्वागत किया और काम पूछा। हमने पूछा ग्रामप्रधाऩ….. उन्होंने कहा हाँ हाँ बताइए। हमारी उनसे मिलने की इच्छा पर साथी सज्जन ने कहा वह तो बौण (जंगल) गई है। कब आयेंगी पूछने पर पता चला दूर जंगल गई है, इसलिए शाम तक ही लौटेगी। हमारी उस महिला प्रधान से मिलने की इच्छा अधूरी रह गई क्योंकि हमारे लिए वहाँ इतनी देर रुकना सम्भव नहीं था। हमें उन सज्जन के बोलने के ढंग से लगा कि हमारी उत्सुकता बच्चों जैसी थी। उन्हें यह बेहद सामान्य लगा कि महिला आरक्षित सीट थी इसलिए पत्नी को चुनाव में खड़ा कर दिया गया, कामकाज तो पति को ही सम्हालना था। देखा जाए तो यही मानसिकता थी जिसके कारण महिला आरक्षण का सवाल उठते  ही ग्रामपंचायतों में पहले 33 प्रतिशत और अब अनेक राज्यों में महिलाओं को 50 प्रतिशत आरक्षण मिल गया है। लोकसभा में यह आरक्षण बिल वर्षों से चर्चा में रहने के बावजूद पास नहीं हो रहा है। कभी यह डर सामने आया है कि मॉडर्न महिलाएँ संसद में आ जाएंगी, कभी यह माँग उठाई जाने लगती है कि महिला आरक्षण में भी जातिगत आधार पर आरक्षण होना चाहिए। जो स्पष्टत: स्त्री को प्रतिनिधि नहीं हमारी और आपकी महिलाएं मानता है। डर है कि सवर्ण दलितों पर हावी हो जाएंगे। अचेतन में सबके यही भाव है कि महिलायें अगर आ भी जाती हैं तो उनके निर्णय पुरुष साथियों से ही प्रभावित रहेंगे। यदि महिलाओं को समान भागीदारी देने की राजनैतिक दलों की मंशा होती तो बिना आरक्षण के भी तमाम पार्टियां उनके लिए कोटा निर्धारित कर सकती थीं। ऐसी कोशिशें नहीं हुईं। माना जाता है महिला प्रत्याशियों की जीत की सम्भावना कम होती है। ऐसे में जीत के लिए पुरुष उम्मीदवार को प्राथमिकता दी जाती है। वर्तमान में चुनावी राजनीति का जो रूप है उसमें धनबल और बाहुबल का जोर है इसलिए महिलाओं के लिए जगह बनाना आसान नहीं होता।
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वैसे भी हमारे सामाजिक ढांचे का तानाबाना ऐसा है कि महिलाओं को निर्णायक भूमिका में देखा नहीं जाता। राजनैतिक दलों में भी तेज तर्रार मानी जाने वाली महिला नेत्रियां भी दूसरी लाइन में नजर आती हैं। बहुत सी महिलायें परिवारवाद के चलते राजनीति में आ जाती हैं और उसी आधार पर चुनाव जीतती भी हैं। बाद में उनकी भूमिका भी वैसी ही होती है जैसी परिवार में। पति के प्रभाव से पत्नियां चुनाव लड़ती और जीतती हैं।

महिला विकास, महिला उत्थान, महिला सशक्तीकरण, महिला के सम्मान की रक्षा के नारों और महिलाओं की सुरक्षा को लेकर तमाम चिंताओं के बावजूद स्त्री समाज में एक सम्मानजनक स्थान नहीं पा रही है। क्योंकि समाज की मानसिकता नहीं बदल रही है। इस समय महिला मुद्दे चर्चा के शीर्ष में हैं, लेकिन फिर भी राजनैतिक दलों को चुनाव जीतने की सामथ्र्य रखने वाली महिला प्रत्याशी बड़ी संख्या में नहीं मिल पायीं। इसका बड़ा कारण पार्टी में प्रारम्भिक रूप से उनकी सशक्त भूमिका का न होना है। महिला मतदाताओं की संख्या में बढ़ोत्तरी प्रसन्नता का विषय है। महिलायें सर्वे किये जाने पर पश्नों का जवाब भी मुखर होकर दे रही हैं। यद्यपि अभी उनकी भाषा वही है, जो हमारे पारम्परिक सोच का ही विस्तार है, लेकिन अगर उन्होंने बोलना सीखा है तो सोच भी बदलेगी। वोट देने कर निर्णय उनका अपना स्वतंत्र निर्णय होता है, ऐसा वह कहने लगी हैं। कुछ समय पूर्व तक मलिाएँ हर मुद्दे पर यही कहती थीं कि जो ये कहेंगे। उस समय उनके लिये इतना ही पर्याप्त था कि वह वोट दे रही हैं। आज आम महिला कहती है उनका निर्णय अपना है। जबकि वास्तविकता यह है कि अधिकांश महिलाओं की यह सोच अभी भी अपनी नहीं है, वह वही सोचती और करती हैं जो पुरुषों की सोच होती है। अगर वह अपनी सोच से चलतीं तो किसी भी क्षेत्र से ऐसे उम्मीदवार नहीं जीतते जो दबंगई करते हैं या आपराधिक मामलों और विशेष रूप से महिलाओं के प्रति जघन्य अपराधों में लिप्त होते हैं। मतदान गुप्त तरीके से किया जाता है, इसलिए अगर महिलायें चाहें तो अपनी स्वतंत्र सोच का प्रयोग कर सकती हैं, जो नहीं हो रहा है। बदलाव रातोंरात हो जाएगा ऐसी उम्मीद की भी नहीं जा सकती है। लेकिन खतरा इस बात का है कि आ रहे बदलावों में भी वह सोच गहराई से जड़ें जमाए हुए है जो हर बदलाव में भी बना रहता है।

पितृसत्तात्मक सोच से ग्रस्त वह कभी नहीं सोच पाती कि पुरुष प्रदत्त आजादी बाहरी है वह जहॉं भी है इसी योच को पुष्ट कर रही है। वह जाने अनजाने इस अहसास से मुक्त नहीं है कि उसे आजादी दी गयी है उसे अवसर दिए गए हैं। जब तक वह यह नहीं समझेगी कि वह भी जन्मना पुरुष के समकक्ष है, तब तक कोई भी बदलाव वास्तविक नहीं होगा। यह बदलाव तभी आयेगा जब वह स्वयं निर्णय लेना प्रारम्भ करेगी, स्वतंत्र निर्णय।
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