उत्तरा का कहना है

बिहार विधानसभा के चुनाव 2015 में जीत हासिल करने और मुख्यमंत्री पद का दायित्व सम्भालने के बाद नितीश कुमार ने घोषणा की है कि अप्रैल 2016 से बिहार में पूर्ण नशाबन्दी लागू होगी। विधानसभा चुनाव में महिला मतदाताओं द्वारा भारी संख्या में मतदान करने और इसका लाभ महागठबन्धन को मिलने के कारण यह निर्णय लिया गया। यह भी कहा जा रहा है कि चुनाव- प्रचार के दौरान महिलाओं ने शराबबन्दी की माँग की थी और उन्हें जीतने पर शराब पर पूर्ण प्रतिबन्ध लगाने का आश्वासन दिया गया था।

विकास आज के दिन अखिल भारतीय नारा है जिसका सही-सही आकलन अभी तक नहीं हुआ। दूसरी ओर शराब है जिसके लाभ-हानि का आकलन हो रहा है। क्योंकि एक ओर राजस्व है, दूसरी ओर गरीब जन हैं। राजस्व सरकार को जाता है, जीवन गरीब का बर्बाद होता है और भारी लाभांश शराब के व्यापारियों को जाता है। अब लाभांश का कोई हिसाब नहीं। राजस्व स्पष्ट दिखता है परन्तु शराब व्यापारी की जेब में कितना धन जाता है और वह इस शराब तंत्र के प्रबन्धन में कितना धन लगाता है इसका कोई हिसाब नहीं। हमारे जैसे गरीब देश में शराब समाज को खोखला कर रही है और विकास के लाभ से वंचित भी कर रही है परन्तु देश की सरकारों को राजस्व के आगे कुछ दिखाई नहीं देता।

बिहार के मुख्यमंत्री नितीश कुमार ने इस राजस्व को क्यों छोड़ दिया? आखिर इस राजस्व की भरपाई कैसे होगी, यह एक कठिन प्रश्न है। महिला मतदाताओं के प्रति इतनी कृतज्ञता राजनीति के मंजे हुए खिलाड़ी एक मुख्यमंत्री के मन में क्यों उमड़ आई। इस बार चुनाव पूर्व की बहसों में बिहार की लड़कियों, महिलाओं की सकारात्मक चर्चाएँ भी खूब हुईं। महिलाओं को मजबूत करने से समाज मजबूत होगा, क्या इस धारणा को लेकर बिहार को आगे बढ़ाना चाहते हैं मुख्यमंत्री नितीश कुमार? क्या मान लिया जाय कि स्त्री ही जीवन की धुरी है? उसके उत्थान से ही समाज का उत्थान होगा।

इस घोषणा के बाद से बार-बार उत्तराखण्ड की महिलाएँ नजरों के आगे आकर टिक गईं और दिल में कटार-सी उतार गई।

1994 से 2000 तक उत्तराखण्ड राज्य के गठन के लिए प्रत्यक्ष आन्दोलन चला। उत्तराखण्ड को सही दिशा में ले जाने का आन्दोलन जनता आज भी लड़ रही है।

राज्य आन्दोलन के दौरान जगह-जगह शराब की दुकानों पर हमले हुए। ताले तोड़े गए, दारु फेंक दी गई, नशामुक्त उत्तराखण्ड का नारा सर्वमान्य बन गया- एक ही नारा एक ही जंग, ले के रहेंगे उत्तराखण्ड के बाद- एक ही नारा एक ही जंग, उत्तराखण्ड में दारू बन्द, दूसरा नारा था, उस समय महिलाओं ने सरकार से कहा, हम पूरे उत्तराखण्ड के घर-घर से रुपया इकट्ठा कर राजस्व चुका देंगी, तुम घोषणा तो करो।

उत्तराखण्ड आन्दोलन में वे हमेशा हर जगह भारी संख्या में जुलूसों में आगे-आगे रहीं। लाठीं खाईं, गोली खाईं, बलात्कार की शिकार ह़ुईं, गालियाँ खाई, मुजफ्फरनगर वाली का खिताब मिला, सड़कों पर धरना दिया, जाम लगाया, रेलें रोकीं, कर्फ्यू लगा दिया, जेल गईं, मुकदमे झेले, शराब के विरोध के चलते आज तक मुकदमे झेल रही हैं क्योंकि उत्तराखण्ड सरकार ने कह दिया कि वे उत्तराखण्ड राज्य की लड़ाई के नहीं, शराब आन्दोलन के मुकदमे हैं, ये वापस नहीं होंगे। जबकि शराब के खिलाफ लड़ाई भी उत्तराखण्ड आन्दोलन का हिस्सा थी।
(Uttara Ka Kahna Hai)

यह वह उत्तराखण्ड था जहाँ कर्फ्यू लगने की बात सुनकर लोग कर्फ्यू देखने सड़कों पर निकल आये थे। आज भी सुदूरवर्ती, गाँवों में चले जायें तो वही भोलापन और निश्च्छलता मिल जायेगी जिसे हमारी सरकारें समझ नहीं पातीं। उनकी समझ तो इतनी ही बनती है कि किस-किस रास्ते से इस भोली जनता को ठगकर उसकी जमीनों पर अमीरों का कब्जा करवा दिया जाय, पानी बेचकर कम्पनियों को काबिज कर दिया जाय और पहाड़ियों को पलायन के लिये मजबूर कर दिया जाय। नितीश कुमार की तरह उत्तराखण्ड के किसी भी मुख्यमंत्री ने महिलाओं के प्रति कोई कृतज्ञता जाहिर नहीं की। प्रथम मुख्यमंत्री नित्यानन्द स्वामी ने 2000 में उत्तराखण्ड को नशामुक्त करने की घोषणा की परन्तु तत्काल बाद स्पष्ट कर दिया कि यह उनकी व्यक्तिगत राय थी, सरकार की नहीं। उनके मंत्रीमण्डल के लोग नहीं चाहते कि शराब बन्द हो। उसके बाद से महिलाएँ माँग करती रहीं, आन्दोलन करती रहीं परन्तु उत्तराखण्ड के किसी पूत ने नहीं कहा कि हमारी सरकार उत्तराखण्ड को नशामुक्त करेगी। उत्तराखण्ड बनने के शुरूआती वर्षों में मातृशक्ति-मातृशक्ति करते रहे, अब तो लगता है, वह भी भूल गये हैं। जिस उत्तराखण्ड के निर्माण में स्त्री-शक्ति पुरजोर तरीके से लड़ी, राजनीति के पुरोधाओं ने उसकी पीड़ा को समझा नहीं। महिलाओं ने खुलकर इस बात को बार-बार रखा कि राज्य निर्माण से अधिक महत्वपूर्ण है मुजफ्फरनगर काण्ड के दोषियों को सजा देना और उत्तराखण्ड को नशामुक्त बनाना।

उत्तराखण्ड महिला मंच के सदस्यों ने तब शपथ ली थी कि जब तक मुजफ्फरनगर काण्ड (2 अक्टूबर 1994) के दोषियों को सजा नहीं मिल जाती, हम कोई सम्मान ग्रहण नहीं करेंगे। अत: 20 साल तक वह शपथ भी मजाक बनकर रह गई।

यह सच है कि नितीश कुमार ने अभी जो घोषणा की है, उसे अप्रैल 2016 से लागू होना है। उनकी सरकार के अपने अंतर्विरोध हैं। प्रशासन किस स्तर तक इस घोषणा का क्रियान्वयन करने के लिये तत्पर होगा, यह अलग सवाल है। शराब माफिया के प्रभाव से सरकार कैसे बच पायेगी। समाज के अलग-अलग तबके इस पर क्या प्रतिक्रिया करेंगे? कई प्रश्न सामने हैं। कई तरह के दबाव हैं। यदि शराबबन्दी लागू रह गई तो समय गुजरने के साथ परिणाम सामने आयेगा। मगर कुछ भी हो, महिला मतदाताओं का सम्मान तो किया बिहार के मुख्यमंत्री ने। जो बात बिहार में हो सकी वह उत्तराखण्ड में क्यों नहीं हो सकी, यह सवाल कचोटता नहीं, दिल को चीरकर रख देता है। सन 2000 में कौसानी के चौकी प्रभारी वीरेन्द्र सिंह तेवतिया ने कन्धार (जिला बागेश्वर) की आन्दोलनकारी महिलाओं से कहा था- मेरा नाम पढ़ लो, मैं मुजफ्फरनगर में भी था। आखिर दुख और अपमान के सिवा मिला क्या महिलाओं को।

पहाड़ के संदर्भ में विकास और शराब दोनों में बैर है। विकास से कमाया पैसा शराब के रास्ते वापस जा रहा है और तबाही अलग है। न हो विकास, शराब जाये तो जनता की बरबादी तो न हो, और रही राजस्व की बात तो मुख्यमंत्री हरीश रावत के दौरों से उत्तराखण्ड को मुक्ति दिला दी जाय और राजधानी के नाम पर देहरादून में पैसे का दुरुपयोग बन्द कर दिया जाय तो उतने से ही राजस्व की भरपाई हो जायेगी। ये बातें बार-बार कही जाती रही हैं पर सुनने-समझने वाला कौन है। पहाड़ की महिलाएँ अपने साथ हो रही धोखाधड़ी को नहीं समझती, ऐसा नहीं है। पर बिहार के उदाहरण ने उसकी वेदना को फिर से उघाड़ दिया, यही रंज है।
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