उत्तरा का कहना है

शिक्षा संस्कार है। शिक्षा औजार भी है और हथियार भी है। इसलिये सबका अधिकार है। परन्तु प्राचीन काल से ही इसमें भेदभाव नजर आता है। क्यों समाज का एक बहुसंख्य भाग इससे वंचित रखा गया! शिक्षा हमारे रोजमर्रा की जिन्दगी का अहम भाग है। हमारे जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं ने हमें अपने आसपास के परिवेश को जानने-पहचानने और अनुकूल बनाने  की जरूरत महसूस कराई। जितना हम अपने परिवेश को समझते गये हमारा जीवन समृद्घ और सुखी होता गया। स्वभावत: हमने अपनी जानकारी बांटी और यहीं से ज्ञान की समृद्घ परम्परा भी विकसित हुई। हमने एक-दूसरे की जरूरतों को समझते हुए समाज बनाया और विकास की सीढ़ियों पर चढ़ते चले गये। शिक्षा सिर्फ हमारे भौतिक विकास का ही नहीं हमारे नैतिक व्यवहार और सामाजिक चलन का भी आधार है। यह हमारे व्यवहार और लोकाचार का वाहक है। किसी भी समुदाय में जो अभ्यास और चलन से विकसित होता है वह उस समुदाय के संस्कारों में शामिल हो जाता है। जो धर्म, संस्कृति और परम्पराओं के नाम से अभिहित किया जाता है। ये परम्परायें उस समाज की जीवन पद्घति को निर्धारित करती हैं।

अफसोस की बात है कि जिस ज्ञान को मनुष्य ने अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए सहज रूप से जानना-सीखना शुरू किया था, कालांतर में उसे सीमित कर दिया। सामाजिक भेदभाव के रूप में स्त्री को इसके उन्नत रूप से वंचित कर दिया गया। सभी धर्मशास्त्र स्त्री शिक्षा के विरोधी नजर आते हैं। इनमें स्त्रियों के लिए बहुत सारे उपदेश हैं। उनके लिए निर्धारित जिम्मेदारियां हैं। मर्यादा में रहने का उपदेश है तो कहीं  स्वतंत्रता न दिये जाने का विधान है। यह भी हमारी शिक्षा का ही एक रूप है और हमारे संस्कारों का आधार जो स्त्री को स्वतंत्रता न दिये जाने की पैरोकारी करते हैं ।

मानव सभ्यता ने शिक्षा के माध्यम से विकास के विविध चरणों को पार किया और बहुत सारे नियमों और सिद्वांतों का प्रतिपादन किया। स्त्री के सम्बंध में पितृसत्तात्मक रवैया हमेशा हर जगह रहा है। शिक्षा के क्षेत्र में भी यही दृष्टिकोण हावी रहा। पूर्व-पश्चिम सभी जगह स्त्री के लिये दिशा निर्देशों को केन्द्र में रखकर लिखा गया कि उन्हें क्या करना चाहिए क्या नहीं। उन पर किस तरह प्रतिबंध लगाये जाने चाहिए यह भी शिक्षा का एक अहम हिस्सा रहा। उन्हें परिवार और पति की कैसे सेवा करनी चाहिए, पतिव्रत धर्म क्या है, सगे सम्बंधियों के साथ उसका व्यवहार कैसा होना चाहिए ऐसी पुस्तकों की विश्व साहित्य में भरमार है। यह स्त्री शिक्षा का एक चरण है। इस शिक्षा ने वर्षों तक मानव सभ्यता को संस्कारित किया है जो अब भी जनमानस में गहरी पैठ बनाये हुए हैं। सदियों से हम यह शिक्षा देते आये हैं कि बेटा वंश चलाता है, बेटा श्राद्घ-तर्पण कर हमारा परलोक सुधारता है, हमने यह श्क्षिा दी की पति की मृत्यु के बाद पत्नी को पति की चिता के साथ सती हो जाना चाहिये।
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पुनर्जागरण काल में जब विभिन्न सुधारकों ने स्त्रियों के उत्थान और उन्हें विकास की मुख्यधारा में लाने के प्रयास किये उनके लिये शिक्षा की अनिवार्यता को समझा तब भी महिला शिक्षा का स्वरूप क्या हो इस पर भ्रान्तियां रही। महिलाओं की शिक्षा का अलग स्वरूप गढ़ने की कोशिश की गई। इस शिक्षा ने भी स्त्री और पुरुष की भूमिका में अंतर रखा। इसमें भी स्त्री की आजादी महत्वपूर्ण नहीं रही। स्त्रियों का कार्यक्षेत्र घर ही माना जाता रहा और उसकी शिक्षा की विषयवस्तु भी यही रही। लेकिन जब उसे शिक्षा के अवसर मिले तो धीरे धीरे वह अपनी राह भी चुनने लगी। जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में उसने अपनी जगह इसी शिक्षा के माध्यम से बनाई है। लेकिन आज भी हम लड़कियों से अधिक लड़कों की शिक्षा-दीक्षा को महत्व देते हैं। सरकारों को बालिका शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए अभियान चलाने पड़ते हैं। तब भी उसे समान अवसर मिल रहे हों ऐसा नहीं है। शिक्षा के साथ जो सबसे महत्वपूर्ण घटक है वह है स्वतंत्रता का। आज भी उसे कहीं आने-जाने की वह आजादी नहीं है जो लड़कों को है। शिक्षा केवल पाठ्य पुस्तकों से नहीं आती उसके लिए व्यावहारिक ज्ञान भी जरूरी है जो कि घर से बाहर निकलने पर ही संभव है और आज भी यह स्वतंत्रता गिनी चुनी लड़कियों को मिलती है फिर भी इसके पीछे उसकी सुरक्षा का सवाल जुड़ा रहता है। और इसी भय से कभी लड़की अपने कदम आगे नहीं बढ़ा पाती कभी माता-पिता, अभिभावक उसे रोक देते हैं। शिक्षण संस्थाओं और कार्यस्थल पर भी बहुत बार उसके मन में यह भय बना रहता है।

सभी समाजों में स्त्री को लम्बे समय तक उसे उसके सीमित संसार में कैद कर उस पर अज्ञानी होने और पुरुष से कमतर होने के आरोप लगाये जाते रहे। स्त्री का यह अज्ञान ही उसका सबसे बड़ा शोषक बना रहा और पुरुष के लिये बिना वेतन का एक बंधुआ मजदूर। अब भी कट्टरतावादी स्त्री शिक्षा के खिलाफ खड़े हैं। वे जो स्वयं शिक्षित हैं वही स्त्रियों की शिक्षा का विरोध कर रहे हैं विरोध ही नहीं कर रहे इसे ध्वस्त ही कर देना चाहते हैं। तालिबानी हमले शिक्षा संस्थाओं पर होते हैं विशेष रूप से लडकियों के स्कूलों पर। आज भी कट्टरपंथियों को लगता है कि स्त्री को सार्वजनिक क्षेत्रों में विचरण की आजादी नहीं होनी चाहिये। आज भी महिलाओं के स्वतंत्र निर्णय उन्हें मान्य नहीं हैं, चाहे यह निर्णय उस महिला के जीवन के लियें कितने ही जरुरी और महत्वपूर्ण क्यों न हों!

माना तो यह भी जाता है कि परिवार हमारी पहली पाठशाला है और माता पहली शिक्षिका। लेकिन इस पहली शिक्षिका की शिक्षा के द्वार बंद ही रखे जाते हैं। स्त्री सशक्तीकरण के नाम पर भी उन्हें राजनीतिक और आर्थिक रूप से सशक्त किये जाने पर ही जोर दिया जाता है पर उन्हें सामाजिक रूप से सशक्त किये जाने की बात पीटे छूटी रह जाती है। इसीलिये जब आज पंचायत चुनावों में शिक्षा की न्यूनतम अर्हता आवश्यक बनाई जाती है तो स्त्री ही सर्वाधिक प्रभावित होती है पंचायतों में महिला आरक्षण के बाद भी लोगों को महिला शिक्षा और निर्णयों में उसकी भागीदारी जरूरी नहीं लगती।

व्यवस्थायें कितने ही कानून बना दें या योजनायें लागू कर दे उसका वास्तविक लाभ स्त्री को तब ही मिल सकता है जब वह शिक्षित होगी। सामाजिक रूप से बालिकाओं के लिए सबसे महत्वपूर्ण प्राथमिक शिक्षा है। यही वह बुनियाद है जो न केवल महिलाओं के सशक्तीकरण वरन् स्वस्थ सामाजिक विकास के लिये भी आवश्यक है। हमारा सामाजिक माहौल और व्यवस्था उसे सुरक्षित वातावरण देने में भी असफल हैं। इसीलिए आज भी बालिकाओं को बीच में ही पढ़ाई छोड़ देनी पड़ती है। अगर बुनियाद ही कमजोर होगी तो आगे की मंजिलें कैसे तय होंगी।

आज भी लड़की को वैसा स्वस्थ और स्वतंत्र वातावरण देने के लिए हमारा समाज तैयार नहीं है जैसा वह लड़कों को देता है। विडम्बना यह है कि हम लड़कियों की शिक्षा की बात तो प्राथमिकता के साथ करते हैं लेकिन उन सामाजिक मान्यताओं और धारणाओं को बदलने की ठोस पहल नहीं करते जो लड़कियों की शिक्षा और शिक्षा से मिलने वाले लाभों से उसे परिचित रखती है। अगर हम आज भी उसे स्वतंत्र कहीं जाने से रोकते हैं या उसके सुरक्षा के सवालों को उसके निजी व्यवहार से जोड़ते हैं और उसे सुरक्षित माहौल देने में असमर्थ हैं तो क्या हम शिक्षित और विकसित समाज में जी रहे हैं?
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