सम्पादकीय अक्टूबर-दिसंबर 2018 अंक

केरल के सबरीमाला मन्दिर में महिलाओं के प्रवेश पर राजनीतिक दलों की सर्वदलीय बैठक बिना किसी फैसले के समाप्त हो  गई। राजनीतिक स्वार्थों में लिप्त ये दल अपने दलगत संकुचित दृष्टिकोण से ऊपर उठकर व्यापक मानवीय हित में कोई फैसला न कर सके। यहाँ सन्दर्भ सर्वोच्च न्यायालय के उस फैसले का है जिसके तहत 10 से 50 साल तक की उम्र की महिलाओं के मन्दिर प्रवेश पर 800 साल पुरानी प्रथा को गैरकानूनी और असंवैधानिक घोषित कर दिया गया है। देश की सर्वोच्च अदालत ने 10 से 50  साल तक की उम्र की महिलाओं को मन्दिर प्रवेश से रोकने को भेदभावपूर्ण बताते हुए मन्दिर के दरवाजे हर उम्र की महिलाओं के लिए खोलने का आदेश दिया है। अदालत ने यह भी कहा कि माहवारी पर सामाजिक और धार्मिक अन्धविश्वास खत्म होने चाहिए। ये अन्धविश्वास स्त्री की गरिमा के खिलाफ हैं। संविधान द्वारा हमें जो अधिकार दिये गये हैं, जैसे समानता का अधिकार, धार्मिक स्थलों में जाने का अधिकार, शिक्षा का अधिकार आदि, ये अन्धविश्वास उसके खिलाफ हैं। न्यायालय ने यह भी कहा कि एक संवैधानिक समाज में स्त्रियों की अपवित्रता जैसी धारणा का कोई स्थान नहीं है। स्त्री की गरिमा के पक्ष में सर्वोच्च न्यायालय ने हाल ही में एक और फैसला दिया है, जिसके तहत धारा 497 को खत्म करते हुए कहा है कि पत्नी पति की सम्पत्ति नहीं है।

मन्दिर प्रवेश पर इस फैसले को आये हुए लगभग दो माह हो चुके हैं। लेकिन सबरीमाला मन्दिर में स्त्रियों के प्रवेश पर उपजा हुआ विवाद थमने का नाम नहीं ले रहा है। स्वयं राजनीतिक दल कोई स्पष्ट राय लेकर आगे नहीं आ रहे हैं। उल्टे विरोध-प्रदर्शनों की राजनीति गर्माई हुई है। अनेक हिन्दू संगठनों की अगुवाई में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के खिलाफ उग्र प्रदर्शन हो रहे हैं जिनमें महिलाएं भी बढ़-चढ़कर भाग ले रही हैं। जहाँ एक ओर भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष अमित शाह केरल का दौरा करते हुए जनसभा में कहते हैं कि न्यायालयों को ऐसे फैसले लेने चाहिए जो व्यावहारिक हों तो दूसरी ओर मलयाली अभिनेता थुलासी कहते हैं, भगवान अय्यपा के मन्दिर में आने वाली प्रतिबन्धित आयु समूह की महिलाओं को चीर देना चाहिए। कई श्रद्घालु स्वयं को घायल करके मन्दिर परिसर में रक्तपात करने के लिए तैयार थे ताकि पुजारियों को मन्दिर बन्द करना पड़े और महिलाएं प्रवेश न कर सकें। एक ओर बहुत-सी महिलाएं मन्दिर में जाने के लिए पंजीकरण करवा रही हैं तो दूसरी ओर बहुत-सी महिलाएं इसके विरोध में खड़ी हो गई हैं।
(Editorial October-December 2018)

धर्म के नाम पर स्त्रियों को लांछित करने के लिए पितृसत्ता की घृणित चेष्टाओं में एक है, माहवारी के समय स्त्री को अपवित्र मानना। इस आदिम विश्वास को अब खत्म हो जाना चाहिए। वह रक्तस्राव जो प्रजनन का कारण है, इसलिए सृष्टि का आधार है, उसे प्रदूष्य मानकर स्त्री को उन दिनों में अपवित्र मानते हुए सभी तथाकथित शुभकार्यों से वंचित करना स्त्री को अपमानित करने के लिए हिन्दू धर्म का एक हथियार है। धर्म के नाम पर विडम्बना ही विडम्बना है। एक ओर मातृत्व है, जिसकी पूजा की जाती है। दूसरी ओर मासिक धर्म है जिसको गर्हित माना जाता है। एक ओर कन्या पूजन है तो दूसरी ओर कन्या भ्रूण हत्या। यह सब जिस धर्म के नाम पर है, उसकी निन्दा करने का साहस किसी में नहीं है। आज की राजनीति सबसे आगे है धर्मध्वजा को फैलाने में। चाहे गाय हो, चाहे मन्दिर हो या औरतें। देश की सर्वोच्च अदालत के फैसले धरे रह जाते हैं।

माहवारी को अशुद्घ मानते हुए स्त्री-समाज को उस अवधि में कई कामों से अलग रखा जाता है। पूजा पाठ, भोजन बनाना, सार्वजनिक रूप से आना-जाना आदि वर्जित माने गये हैं। लेकिन ये बहुत पुरानी धारणाएं हैं। वर्तमान में बहुत सारी महिलाएं इसे नहीं मानतीं। वे सब समय, सब जगहों पर मौजूद रहती हैं लेकिन किसी प्रकार का कोई अनिष्ट नहीं होता। माहवारी के समय कई गांवों में विवाहित स्त्रियों की तरह लड़कियों को भी अछूत माना जाता है तो कई गांवों में नहीं माना जाता। इससे यह तो स्पष्ट हो जाता है कि यह अपवित्रता या अनिष्ट की धारणा सापेक्षिक है। यह कोई वैज्ञानिक तथ्य नहीं है।

धर्म जीवन के लिए अनिवार्य शर्त नहीं है। हम सब यह जानते हैं कि धर्म के बिना मनुष्य जीवन सम्भव है फिर भी धर्म के नाम पर होने वाला वितंडावाद हमारी जिन्दगियों को दूभर बना देता है। धार्मिक क्रियाएं जो दुनिया भर में भिन्न-भिन्न हैं, उनको मिथ्या सिद्घ किया जा सकता है। मन्दिरों में जाना या न जाना स्वैच्छिक है। लेकिन किसी को न जाने देना उसकी स्वतंत्रता पर आघात है। मन्दिर प्रवेश से दलितों को या दूसरे धर्म के अनुयायियों को भी रोका जाता है तो वह भी गैरकानूनी तथा असंवैधानिक है। एक ऐसे कट्टरतावादी माहौल में देश की औरतें क्या यह सोच सकती हैं कि उन्हें जाना ही क्यों है सबरीमाला या किसी और मन्दिर में। लेकिन ऐसा नहीं है। 17 नवम्बर को जब मन्दिर दर्शनार्थियों के लिए खुलने वाला था तो 500 महिलाओं का पंजीकरण हो चुका था। सबरीमाला जैसे मन्दिर देश भर में होंगे जहां स्त्री-प्रवेश वर्जित है। देश भर के ऐसे मन्दिरों की पहचान करनी पड़ेगी, जहां पुरुष सत्ता ने स्त्रियों का प्रवेश निषिद्घ किया है। मन्दिरों में प्रवेश पा जाना स्त्रि़यों के लिए कोई उपलब्धि नहीं है। एक सबरीमाला में प्रवेश को कानूनी बनाने से या वहां प्रवेश न करने देने से आखिर क्या हासिल होने वाला है।

जो धर्म या जो ईश्वर स्त्रियों के साथ भेदभाव करता है, वहां प्रवेश करना या न करना स्त्रियों के लिए महत्वपूर्ण नहीं है। महत्वपूर्ण तो यह है कि माहवारी जैसी प्राकृतिक प्रक्रिया के नाम पर भेदभाव खत्म हो। शहरी क्षेत्रों में नहीं, लेकिन ग्रामीण इलाकों में अभी भी माहवारी के दिनों में औरतों को ठीक से भोजन नहीं मिलता, बिस्तर कम दिया जाता है, उन्हें अस्पृश्य बना दिया जाता है। यह सरासर अपमानजनक होता है। माहवारी की वजह से स्त्रियों के लिए खान-पान, रहन-सहन, आवागमन आदि में अत्याचार बन्द हो, क्योंकि यह अवैज्ञानिक है, अन्धविश्वास को बढ़ावा देता है और समाज के एक वर्ग को दोयम दर्जे का बना देता है। अय्यपा ब्रह्मचारी थे इसलिए रजस्वला स्त्री उनके मन्दिर में प्रवेश नहीं कर सकती, यह आस्था का नहीं, अन्धविश्वास का प्रश्न है। आठ सौ वर्ष पहले जो प्रथा शुरू हुई थी, आज उसे जारी रखना क्यों आवश्यक है, जबकि आज हमारा जीवन बिलकुल बदल चुका है।
(Editorial October-December 2018)

इस तरह के अन्धविश्वास बढ़ते-बढ़ते किस सीमा तक पहुंच जाते हैं, इसका चरम उदाहरण उत्तराखण्ड के पिथौरागढ़ जिले के नेपाल की सीमा से जुड़े हुए गावों में देखने को मिला, जब महिलाओं के एक दल ने इस क्षेत्र की पदयात्रा की। गांवों में लड़कियों से बातचीत करते हुए यह बात उजागर हुई कि इन्टर कालेज के आस-पास यदि कोई मन्दिर है तो लड़कियां महीने में पांच दिन विद्यालय नहीं जा सकती हैं। कहीं-कहीं दो दिन तक विद्यालय जाने पर रोक है। माहवारी को अशुद्घ मानने की स्थिति की यह पराकाष्ठा है कि लड़किया पांच दिन विद्यालय जाने से वंचित रहें। यूं ही माहवारी शुरू होना किशोरियों के लिए एक कष्टकर प्रक्रिया है। तिस पर सार्वजनिक रूप से घोषित होना, स्वयं को अशुद्घ मानते हुए अन्य कामों के साथ-साथ विद्यालय जाने से भी रोका जाना, 12-13 साल की छात्राओं के कोमल मन को कुंठित करने का एक जरिया है। यह तो स्त्री-जीवन को निम्नतर समझने की आधारशिला रखने जैसा हुआ। पर यह बात अत्यंत स्वाभाविक रूप से हमें युवकों, बुजुर्गों ने भी बताई। यही नहीं, इस  क्षेत्र में तमाम मन्दिर ऐसे मिले, जिनमें महिलाओं का जाना प्रतिबन्धित है। चौमू, नागार्जुन आदि कई देव गण हैं, जिनके यहां जाने की महिलाओं के लिए मनाही है। संविधान की धज्जियां उड़ाते हुए यहां देवता और मासिक धर्म के नाम पर लड़कियों को शिक्षा से वंचित किया जा रहा है और लोगों के लिए यह एक आम बात है। महिलाएं आज के दिन कहां-कहां काम नहीं कर रहीं हैैं। उनकी गतिशीलता को मासिक धर्म कहां अवरुद्घ करता है। लेकिन देश के ही कुछ इलाकों में मासूम लड़कियों को शर्मसार करने वाली ऐसी स्थितियां भी इक्कीसवीं सदी में विद्यमान हैं। पिथौरागढ़ जिले के शिक्षा विभाग के अधिकारियों ने इसका संज्ञान लिया है पर सुदूर ग्रामीण अंचल में व्याप्त अंधविश्वास के खिलाफ उन्होंने क्या कदम उठाया है, यह देखना है।
(Editorial October-December 2018)

सबरीमाला की स्थिति और काली नदी के किनारे के गांवों की स्थिति में कोई अन्तर नहीं है। हमें अभी ठीक-ठीक पता नहीं है कि देश भर में ऐसी स्थितियां और कहां-कहां हैं। उत्तराखण्ड में अभी कई मन्दिर ऐसे हैं जिनमें महिलाओं का प्रवेश र्विजत है। सन 2004 में अस्कोट-आराकोट यात्रा के दौरान उत्तरकाशी जिले के हनोल के महासू मन्दिर में जब यात्री महिलाओं को प्रवेश से रोका गया तो उन्होंने प्रतिरोध करते हुए मन्दिर में प्रवेश किया। महासू देवता और उनका इलाका अभी भी शान्ति से वहां बिना किसी का अनिष्ट किये हुए विराजमान हैं। बहुत-सी महिलाएं माहवारी के दौरान खुद मन्दिरों या पूजा-पाठ में नहीं जातीं। महिलाओं के मन से भी इन धारणाओं को निकालना बहुत जरूरी है। इसके लिए अकेले सर्वोच्च न्यायालय भी सक्षम नहीं है। देश की नेतृत्वकारी शक्तियों को, जागरूक व प्रबुद्घ नागरिकों को, तमाम प्रगतिशील संस्थाओं को इसके लिए आगे आना होगा। तभी स्त्री की गरिमा की रक्षा हो सकेगी, जिसके लिए सर्वोच्च न्यायालय बार-बार ऐसे फैसले दे रहा है।

हमें-आपको भी सोचना होगा कि कहीं जाने-अनजाने में हम भी इन परम्पराओं को पोषण तो नहीं दे रहे हैं। गहराई से पड़ताल करनी होगी और स्त्री विरोधी इन परम्पराओं को तोड़ने की शुरूआत भी करनी होगी।… खुद से ही।
(Editorial October-December 2018)

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