सम्पादकीय : अंक जुलाई-सितम्बर 2018

नाबालिग, मूक बधिर, अनाथ, पागल, विकलांग महिलाओं के साथ जब बलात्कार की घटनाएं हो रही हैं तो यही कहने को जी चाहता है- ये दुनिया अगर मिट भी जाए तो क्या है? नाबालिग, मूक बधिर, अनाथ, पागल, विकलांग बच्चियों के प्रति बलात्कार की भावना जिस पुरुषत्व में जागती है, उसकी भत्र्सना भला किन शब्दों में की जा सकती है? और वे संचालिकाएं जिनका दर्जा माँ से कम नहीं, वे किस सोच से इसमें सहभागी बनती हैं? आसिफा के साथ हुए हादसे के बाद यह डर भी तैरा था कि माँ बच्चों को जन्म देने से डरेंगी या कतरायेंगी। यह कितनी भयावह स्थिति हो सकती है? यह डर कि बेटा पैदा होगा तो वह बलात्कारी हो सकता है और अगर बेटी पैदा होगी तो उसके साथ बलात्कार हो सकता है।

ये मासूम बच्चियाँ आश्रयगृहों में थीं। उन आश्रयगृहों में जो निराश्रित महिलाओं के लिए बने हैं। कौन हैं ये निराश्रित महिलाएँ? ये वे महिलाएँ हैं जो इस पुरुष प्रधान व्यवस्था में अपने अधिकारों से च्युत होकर घर से निकाल दी जाती हैं या सामाजिक दबाव से लावारिस छोड़ दी जाती हैं। ये आश्रयगृह सरकारी तौर पर भी खोले गए हैं और व्यक्तिगत प्रयासों से भी। लेकिन सरकार की यह जिम्मेदारी बनती है कि दोनों ही तरह के आश्रयगृहों पर उसकी निगरानी हो। लेकिन हम यह देखकर हतप्रभ रह जाते हैं कि इतने संवेदनशील वाकयों पर सरकारें लीपापोती करने लगती हैं। दोषियों को बचाने की कोशिशें की जाती हैं। हम इतने संज्ञा शून्य कैसे हो सकते हैं?
(Editorial July-September 2018)

अब एक पर एक देश भर के नारी निकेतन कैसे लोगों के लिए देह-शोषण के सुलभ साधन बन गए हैं, ये परतें खुलती जा रही हैं। हमारे देश में किस्म-किस्म के साधु संन्यासी हैं । जिन्होंने आध्यात्मिक चिन्तन के बहाने  संन्यस्त-विरक्त जीवन के नाम पर ऐय्याशी की एक पूरी दुनिया खड़ी कर रखी है, जो पूरी तरह देह व्यापार के अड्डे बन चुके हैं। नेताओं, अफसरों, उद्योगपतियों की विलासिता की कहानियाँ ही नहीं, पुरुषत्व के अहंकार में लिप्त उनकी स्त्री विरोधी मानसिकता की झलक मिलती ही रहती है।

परिवार जहाँ मनुष्य स्थायित्व और सुरक्षा की बात करता है, वहीं देखा गया है कि यह घर-परिवार औरत को जितना बांधता है उतना पुरुष को नहीं। औरत घर की जिम्मेदारी में अपना स्वतंत्र अस्तित्व ही भूल जाती है। वह इसे ही अपनी नियति मान लेती है। अन्याय का सिलसिला यहीं नहीं रुकता, धर्म का वास्ता देकर उसे ऐसे बंधनों में बांध दिया जाता है कि मुक्ति की कोई राह नहीं रह जाती है। जब जब देश में घटित बलात्कार की घटनाओं पर विरोध प्रकट  किया गया तब-तब समाज के फरमॉंबरदारों ने स्त्री पर ही लाँछन लगाये , उसकी आजादी, रहन-सहन, वेश भूषा और चरित्र पर अंगुली उठाई।

स्त्री और पुरुष दोनों का विकास आदिम स्थितियों से अब तक साथ-साथ होता गया। लेकिन एक कमजोर होता गया और दूसरा शक्तिशाली। ऐसा क्यों? परिवार, धर्म और राजसत्ता सब स्त्री के खिलाफ औजार की तरह इस्तेमाल होते गए। आज जब यह स्पष्ट हो रहा है कि स्त्री के शोषण के पीछे पितृसत्ता है तब भी औरत समाज और खुद की निगाह में इतनी कमजोर क्यों बनी हुई है?
(Editorial July-September 2018)

आखिर स्त्री को ही सुरक्षा क्यों चाहिए? सुरक्षा तो पूरे समाज को चाहिए। लेकिन किससे? आदिम काल में मनुष्य को मनुष्येतर जगत् से सुरक्षा चाहिए थी लेकिन आज मनुष्यता इस हिंसक कगार पर पहुँच गई है कि मनुष्य को मनुष्य से सुरक्षा चाहिए। स्त्रियों के संदर्भ में जो आवाज उठ रही है सुरक्षा की तो कहना होगा कि स्त्री को बलात्कारियों से सुरक्षा चाहिये। जो पिता हैं, मौसा हैं, दोस्त हैं दोस्त के दोस्त हैं, पति हैं, पति के मित्र हैं, अंकल हैं, बॉस हैं, बॉस के सहायक या अफसर हैं। नेता हैं, अफसर हैं, पुलिस या सेना के प्रहरी हैं।  ये सब रक्षक होकर भक्षक हैं। सभ्यता के विकास ने इन सब के कंधों पर स्त्री की सुरक्षा का दायित्व सौंपा है। लेकिन ये रक्षक ही हैं जो उसे सुरक्षा के घेरे में रखकर उसके शोषक बन गए हैं।

आदिम समाज की कमजोरियों को दूर करने और मानवजाति को अधिक सुरक्षित बनाने के लिए मानव सभ्यता का विकास हुआ और मानवजाति ने अपनी संस्कृति का विकास किया। जीवनसंघर्ष से इतर मानवीय, कलात्मक और आपसी सौहार्द की भावनायें विकसित कीं। विकास के इस सोपान में भी सभ्य-असभ्य, सुसंस्कृत और असंस्कृत की श्रेणियाँ बनाईं। मनुष्य को मानवेतर प्राणियों से भिन्न तो माना परन्तु उसमें भी जाति, वर्ण, समुदाय और स्थानिक भेदभाव के साथ-साथ लिंगभेद को प्रश्रय दिया। स्त्री को दोयम दर्जा दिया। अपने विकास के लिए या कहें अपने सुख के लिए मनुष्य ने जिस तरह प्रकृति के अन्य संसाधनों का इस्तेमाल किया, वैसे ही स्त्री का। स्त्री का स्वतंत्र सम्मान तो इस व्यवस्था में था ही नहीं, उसकी पहचान को पुरुष की पहचान से जोड़कर देखा गया। वह भोग का सामान बना दी गई। हर व्यवस्था जीवन को बेहतर और सुरक्षित बनाने के लिए होती है, लेकिन अगर उसका स्वरूप ही शोषक और शोषित का हो तो सकारात्मक परिणाम कैसे निकलेंगे।
(Editorial July-September 2018)

समाज को नये सिरे से शिक्षित और सुसंस्कृत होने की जरूरत है। आज जब भ्रूण हत्या कर लड़की को जन्म से पहले ही मार दिया जा रहा है। सुरक्षित प्रसव अभी भी समस्या है। पुत्र जन्म पर उत्सव और कन्या जन्म पर स्यापा हो रहा है। नाबालिग लड़कियों की बड़ी उम्र के आदमी से शादी हो रही है। महिलायें घर-परिवार  में  अपने अधिकारों से अनभिज्ञ और वंचित  हैं। लड़कियाँ/ स्त्रियाँ घर से भगाई जा रही हैं या भागने को मजबूर हो रही हैं तो शिक्षा और संस्कृति के क्या मायने रह जाते हैं?
(Editorial July-September 2018)

जब तक इस मानसिकता का निदान नहीं होता, कोई कानून, कोई व्यवस्था स्त्री को सुरक्षा नहीं दे सकती। स्त्री को सुरक्षा देने वाली व्यवस्थायें जब खुद ही उसे और भी सीमित घेरे में कैद कर उसके शोषण का केन्द्र बन रही हों तो क्यों न स्त्रियाँ अपनी आजादी की राह खुद तलाशें? घर-परिवार नामक व्यवस्था यदि नाकाफी है तो यह कैद सिर्फ उनके लिए क्यों हो? क्यों नहीं वे पुरुष की तरह स्वतंत्र रह सकती हैं? सुरक्षा के दायरे से खुद को मुक्त करना होगा स्त्री को। वे सम्पत्ति नहीं, सम्पत्ति की अधिकारिणी हैं। सच तो यह है कि पुरुष अपने दायरे में रहे तो स्त्री भला असुरक्षित क्योंकर हो?

हालात जितने बिगड़े हैं उसमें कानून के कठोर शिकंजे की जरूरत तो है ही क्योंकि जब आत्मानुशासन नहीं है तो दोषियों को दंडित किया जाना जरूरी है। लेकिन बहुत जरूरी है समस्या की तह तक जाना और समाज के जिम्मेदार लोगों की जिम्मेदारी तय करना। कानून बलात्कारी को फाँसी दे या और कोई दण्ड यह न्याय व्यवस्था को गहराई से सोचना होगा पर बलात्कार पर राजनीति करने वालों को भी दण्डित करना होगा। बलात्कार के लिए स्त्री को दोषी मानने वाली टिप्पणियों को अपराध की श्रेणी में लाना होगा। स्त्रियों के प्रति अभद्र टिप्पणियों को भी अपराध की श्रेणी में लाना होगा।
(Editorial July-September 2018)

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