सम्पादकीय : अप्रैल-सितम्बर 2020

Editorial April-September 2020
उत्तरा का कहना है

कोरोना ने वह कर दिखाया जो हम असंभव मानने लगे थे। कोई नहीं सोच सकता था कि हमारे महानगरों, कस्बों, गावों की सड़कें महीनों तक वीरान हो जाएंगी, जल्दी घर से निकल देर रात घर आने वाले महीनों तक घरों की दीवारों के भीतर कैद होकर रह जायेंगे, हर चेहरे पर मास्क लगा होगा, लोग दिन में बार-बार सैनिटायजर, साबुन का प्रयोग करेंगे। वातावरण शुद्ध हो जायेगा अम्बाला या सहारनपुर से हिमालय के दर्शन हो सकेंगे। पर्यटन की मार से कराह रहे हिल स्टेशन राहत की सांस लेंगे। लोग यह कहेंगे साल में कुछ दिन जरूर लॉकडाउन होना चाहिए ताकि पर्यावरण बेहतर हो। (Editorial April-September 2020)

मगर इस महामारी का एक दूसरा रूप बहुत ही दुखदायी है। कोरोना महामारी ने दुनिया को हिला दिया है, यह महामारी चीन से शुरू होकर दुनिया के अधिकांश हिस्सों तक पहुँच चुकी है। विकसित हों या पिछड़े, सभी देश अलग-अलग तरीके से प्रभावित हैं, सब कुछ असामान्य हो रहा है, विज्ञान और तकनीक के दम पर आत्मविश्वास से लबरेज मानवता को हर बीमारी को हरा सकने का विश्वास होने लगा था, मगर आज उस विश्वास की जडें हिल गयी हैं जो देश (अमेरिका, इंग्लैंड, इटली आदि) हर मायने में उदाहरण बन गए थे, सभ्यता के प्रतिमान बन गए थे, इस बीमारी ने पस्त कर दिए। भारत और ब्राजील जैसे देश जो उभरती हुई ताकतें कही जाती थीं, इस बीमारी के आगे असमंजस की स्थिति में नजर आ रहे हैं। नीतियों की अस्पष्टता और बुनियादी स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी इनके विकास की असलियत सामने ला रही है।

हमारे देश में भी कोरोना से निपटने में भयानक कोताही बरती गयी। यह बीमारी भारत में विदेश से वापस आने वाले लोगों द्वारा लायी गई। उन्हें वक्त रहते प्रभावी कोरंटीन कर इस आपदा को कम किया जा सकता था मगर सरकार  दिल्ली चुनाव, ट्रम्प की भारत यात्रा के शानदार आयोजन, मध्य प्रदेश में सरकार गिराने में ज्यादा सक्रिय रही और जब लॉकडाउन घोषित हुआ तो जनता को कुछ घंटे का समय दिया गया। हर तरफ अफरातफरी मच गयी, लोग बाजारों में आपतकालीन खरीद करने लगे, लाखों लोग गाड़ियों, साईकिल, रिक्शा या पैदल ही अपने अपने घरों को जाने लगे जो एक बहुत शर्मनाक तस्वीर थी।

अनेक लोगों की इसमें जान चली गयी। इस घबराहट के दौर में सांप्रदायिक घृणा जम कर फैलाई गयी, पुलिस जनता पर निर्ममता से बल प्रयोग करती नजर आई। कई सरकारों ने मजदूरों को मिले कानूनी अधिकारों को कम करना शुरू कर दिया, ऐसे अधिकार जो मजदूरों को मालिकों की मनमानी से बचाते थे और उन्हें सामाजिक सुरक्षा प्रदान करते थे। जब लॉकडाउन से अनलॉक की तरफ देश को ले जाया गया, तब तक स्थिति बेकाबू होने लगी थी। भारत में कोरोना पॉजिटिव के प्रसार की दर दुनिया में सबसे ज्यादा हो गयी। इसने ब्राजील और अमेरिका को भी पीछे छोड़ दिया। मगर सरकार और मीडिया राजस्थान में सरकार बनाने गिराने, एक अभिनेता की हत्या या आत्महत्या, और अयोध्या में भव्य राम मंदिर के भव्य शिलान्यास में ही मशगूल रहे अगर कोई दूसरे ग्रह का व्यक्ति आकर यहाँ की सरकार की बात सुने या मीडिया को देखे तो उसे लगेगा कोरोना कोई समस्या नहीं है, मगर जिनको यह बीमारी लग गयी, जिन्हें क्वारन्टीन सेंटर्स भेजा गया और भीषण परेशानियों से दो चार हुए या जिनके परिजन इस बीमारी से मारे गये या जिनके रोजगार चले गए या कारोबार उजड़ गए और दूर तक कोई उम्मीद भी नजर नहीं आ रही है कि उनकी जिन्दगी सामान्य कब होगी। उनसे अगर पूछा जाए कि सत्ता और मीडिया का यह खेल कैसा लगा तो उसका क्या जवाब होगा, यह आसानी से समझा जा सकता है।

अब तक  तक दुनिया भर में कोरोना से प्रभावित व्यक्तियों की संख्या 2 करोड़  हो गयी है जो तेजी से बढ़ रही है, अस्पतालों में सामान्य मरीजों को भर्ती करना कठिन होने लगा है क्योंकि संक्रमण का खतरा बढ़ रहा है। साथ ही अस्पताल भी ज्यादा से ज्यादा कमाने की होड़ में मरीजों को लूटने में लग गए हैं। एक तो सामान्य व्यक्ति वैसे ही परेशान है क्योंकि उसकी आमदनी घटी है, कई लोगों की नौकरी छूट गयी है और उनके लिए अस्पताल जाना किसी आपदा से कम नहीं है। अस्पतालों, क्वारंटीन केन्द्रों में बहुत अव्यवस्थाओं की रपटें आ रहीं हैं। आम आदमी की तो कोई गिनती ही नहीं, कई प्रभावशाली लोगों को भी अस्पताल में दाखिला न मिलने से मौत होने की खबरें आई हैं। कोरोना के मरीजों की मृत्यु होने पर शव को उसके परिजनों को नहीं दिया जाता मगर इसका अंतिम संस्कार भी सामान्य मृत्यु के अंतिम संस्कार के मुकाबले काफी महंगा साबित हो रहा है। मुंबई के एक शवदाह गृह में कोरोना के कारण मरे व्यक्ति का अंतिम संस्कार सामान्य मृतक से 70,000 हजार रुपये ज्यादा महंगा था, तो दिल्ली से रिपोर्ट आयी कि मृतक के मात्र अंतिम संस्कार के लिए जमीन के लिए 30,000  रुपये देने पड़ रहे हैं। कोरोना का खौफ ऐसा फैलाया गया कि कई मृतकों का अंतिम संस्कार कठिन हो गया।

कोरोना के सामाजिक परिणाम भी व्यापक हैं। एक सामान्य परिवार में पारिवारिक जिम्मेदारियों का बंटवारा बराबरी के आधार पर नहीं  होता है। घर के भीतर का जिम्मा औरत के हिस्से में ही आता है चाहे वह नौकरी करे या न करे। महामारी के दौर में  स्कूल बंद हैं, बच्चे घर पर ही हैं, बाहर खेलने तक नहीं जा सकते। अगर बच्चे छोटे हों, उन्हें संभालना हो तो पति या पत्नी दोनों में से एक को नौकरी छोड़नी हो तो सामान्यत: पत्नी को ही छोड़नी पड़ती है। कई अन्य कारणों से भी महिलाओं की नौकरियां छूट गयी हैं। उदाहरण के लिए आवाजाही पर लगी रोक, लोगों का कामवाली बाई को घर में बुलाने में भय कि कहीं वह संक्रमण न फैलाए या बंद पड़े मॉल, दुकानें या थमे हुए पर्यटन के कारण चाहे वह घरेलू कामकाज कर अपनी रोजी रोटी पाने वाली हो या दुकानों या मॉल में सेल्स गर्ल या होटलों या पर्यटन से जुड़े कारोबार में रिसेप्शनिस्ट हो, इसी तरह की कोई और गैर सरकारी नौकरी करती हो, उसकी नौकरी छूट गयी है

बेशक विगत दशकों में  महिलाओं की आर्थिक क्रियाकलापों में भागीदारी बढ़ी हो उनकी आर्थिक हैसियत सुधरी हो और इसी लिये परिवार और समाज में उनके प्रति नजरिया बदला हो मगर यह बहुत आसानी से महसूस किया जा सकता है कि भले ही आज से 20-25 साल पहले के मुकाबले आज सड़कों में पैदल, स्कूटी, बसों या मेट्रो से अपने कार्यस्थल को जाती महिलाएं काफी बड़ी संख्या में नजर आती हैं मगर छानबीन करने पर साफ नजर आ जाता है कि ये महिलाएं ऐसे रोजगारों में हैं जिनमें मेहनताना कम है। इस कारण उनकी बचत कम होती है और उनकी नौकरी असुरक्षित होती है, इसीलिये इस महामारी के दौर में समाजविज्ञानियों  ने बताया कि महिलाओं ने जो आर्थिक स्वावलंबन पिछले  50 वर्षों में हासिल किया था, वह एक झटके में वहीं वापस पहुँच जायेगा, जहाँ  पहले था। यानी महिलाओं पर महामारी की अलग से मार पड़ी है। एकाकीपन और रोजगार छूटने से घरों में तनाव बढ़ना स्वाभाविक है इसलिए घरेलू हिंसा में बढ़ोत्तरी हुई है। महिलाओं की कमजोर आर्थिक स्थिति उन्हें लैंगिक असमानता की ओर ले जाएगी ऐसा माना जा रहा है। लॉकडाउन  के साथ घरेलू हिंसा में तेजी से बढ़ोत्तरी होने के जो समाचार आये उसे दृष्टिगत रखते हुए संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव ने दुनिया से अपील की कि घरेलू हिंसा में ‘युद्ध विराम’ हो। यह माना जाता है जब परिवार जन घर के अन्दर ज्यादा रहते हैं तो झगडे़ ज्यादा होते हैं और घर के अन्दर रहना भय और असुरक्षा के बीच हो तो तनाव कई गुना बढ़ना स्वाभाविक है।

बेशक दुनिया एक अभूतपूर्व खतरे से जूझ रही है। इसकी कोई मिसाल इसलिए भी नहीं है क्योंकि पिछली शताब्दी की महामारी यानी स्पेनिश फ्लू की बात करें, जो 1918 में फैला था तो तब दुनिया के अन्तर्सम्बन्ध इतने गहरे नहीं थे। एक देश से दूसरे देश तक जाना लम्बा समय लेता था और आबादी के एक बहुत बड़े हिस्से को विदेश यात्रा या अपने देश में लम्बी यात्रा की कोई जरूरत नहीं थी। मगर आज स्थिति ऐसी नहीं है। चीन से एक पुर्जा न मिले तो किसी अन्य देश में एक मशीन का निर्माण रुक जाए, या एक देश से कोई कंपाउंड न मिले तो एक दवा का निर्माण ठप्प हो जाये। विदेश जाना-आना अब बड़ी बात नहीं रह गयी। इसलिए कोरोना ने स्वास्थ्य के साथ-साथ सामाजिक और आर्थिक विपत्तियाँ भी बढ़ी हैं। अत: इस ऐतिहासिक संकट से अभूतपूर्व ढंग से लड़ना होगा। इस वक्त  इस बीमारी को रोकना तो है ही। साथ ही समाज के कमजोर तबके को भी तबाह होने से बचाना है।

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