उत्तरा का कहना है- अप्रैल-जून 2015

आन्दोलन अपनी जमीन से पैदा होते हैं और मुद्दे भी जमीनी होते हैं। विकास की जब भी बात आती है उसके साथ जुड़े नकारात्मक तथ्यों को नजरअंदाज कर दिया जाता है। तमाम जनविरोधी नीतियाँ और योजनायें सरकार के एजेण्डे में शामिल हैं। शराब जो मनुष्य के स्वास्थ्य और व्यवहार पर दुष्प्रभाव छोड़ती है, उसकी कोई क्षतिपूर्ति नहीं हो सकती, लेकिन सरकार राजस्व का बड़ा और आसान जरिया होने के कारण जनता के विरोध के बावजूद शराबबंदी नहीं करती। बड़े बाँधों के तमाम पर्यावरणीय खतरों को जानने के बावजूद इन्हें मंजूरी देती है, जिसमें अनेक शहरों का भविष्य तो खतरे में है ही साथ ही डूब क्षेत्र के निवासियों के विस्थापन का सवाल भी है। विस्थापन जो महज स्थान परिवर्तन नहीं होता और फिर पुनर्वास भी तो उन्हें सांत्वना देने लायक हो सके, ऐसा नजर नहीं आता।

प्रजातंत्र में आन्दोलनों का विशेष महत्व है। शासन तक अपनी बात पहुँचाने का माध्यम है। आज के परिवेश में जब भौतिकवाद  अपने चरम पर है और मानवीय मूल्यों की अवहेलना सभी नेतृत्वकारी शक्तियाँ कर रही हैं, आम इंसान को न केवल अपनी बुनियादी आवश्यकताओं से महरूम किया जा रहा है बल्कि दमनकारी रवैया भी अपनाया जा रहा है, सरकारें माफियाओं के दबाव में हैं तब जनता के पास विकल्प ही क्या है?

यूँ तो भारत में नदियों को पूजा जाता है, लेकिन जिस तरह से उनका दोहन किया जाता है। वह नदियों के भविष्य पर सवाल उठाता है। कम से कम उनके जीवनदायी स्वरूप पर तो संकट है ही। निर्माण हो रहे हैं जिसमें नियम-कायदों को ताक पर रख दिया जाता है। प्राकृतिक संसाधनों का वैध-अवैध खनन जल-जंगल-जमीन सभी को खोखला करता जा रहा है। योजनायें तो तमाम बनती हैं पर सकारात्मक व्यावहारिक पहल नहीं के बराबर दिखाई देती है। इसलिये आन्दोलनों का होना तो लाजिमी ही है।

महिलाओं की नजर से देखें तो इन तमाम व्यवस्थाओं में उनकी मुश्किलें और भी अधिक हैं। उसे तंत्र द्वारा की जाने वाली उपेक्षा और अवहेलना के साथ-साथ पितृसत्तात्मक दमन के दंश को भी झेलना पड़ता है। शराब के दुष्परिणाम जहाँ उसे शांत, घरेलू माहौल से वंचित करते हैं वहीं उसके संघर्षों को बढ़ा देते हैं। घर के पुरुष यदि शराबी हों तो कई बार उस पर ही घर-गृहस्थी का बोझ उठाने का दायित्व आ जाता है। बहुत बार इसी शराब के कारण उस पर यौनिक हिंसा होती है। यौनिक हिंसा का एक कारण जहाँ शराब है वहीं दूसरी ओर समाज की पितृसत्तात्मक सोच भी जुड़ी है। इसीलिये किसी भी विषम स्थिति में वह सर्वाधिक असुरक्षित होती है। चाहे वह विस्थापित होते समय हो या माफियाओं का प्रभाव हो। आन्दोलनों को दबाने के लिये महिलाओं पर यौनिक हिंसा होती है। दबंगों द्वारा किसी भी स्थान के लोगों पर दबाव बनाने के लिये वहाँ की स्त्रियों पर यौनिक हिंसा होती है।

आंदोलनों में महिलाओं की भूमिका को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। अगर हम आंदोलनों के इतिहास पर नजर डालें तो वह हर कहीं मौजूद होती है लेकिन वहाँ भी पुरुषसत्ता हावी रहती है। महिलाओं को नेतृत्व से दूर ही रखा जाता है। आंदोलन के दौर में भी नितांत महिलाओं से जुड़े मुद्दों को तरजीह नहीं दी जाती, न ही उनकी तात्कालिक परिस्थितियों को स्त्री की नजर से देखा जाता है। इन आंदोलनों में वह एक वर्क फोर्स से अधिक नहीं होती। बहुत बार तो आंदोलनों में उसकी भूमिका थोड़ा व्यापक परिप्रेक्ष्य में आम घरेलू महिला जैसी हो जाती है। उन पर सहयोगियों की भोजन व्यवस्था और अन्य तरह की सार संभाल का भार डाल दिया जाता है। वैचारिक मंत्रणाओं में उन्हें केवल कोरम पूरा करने के लिये शामिल कर लिया जाता है। उनके मशविरों को गम्भीरता से नहीं लिया जाता। वहाँ भी यही सोच हावी रहती है कि स्त्रियाँ निर्णायक भूमिका नहीं निभा सकतीं। महिलाओं में नेतृत्व का गुण नहीं होता। समाज में धारणा है कि स्त्री को पुरुष का सहयोग करना चाहिए, इसीलिए बार-बार दोहराया जाता है- एक सफल पुरुष के पीछे एक महिला होती है। अधिकांशत: यह सच भी होता है, क्योंकि सामाजिक विधानों ने उसके लिए यही भूमिका तय कर रखी है। उसका पालन-पोषण इसी धारणा को पुष्ट करता है। जबकि सच यह है कि स्त्री पैदा नहीं होती, बनाई जाती है, ठीक उसी प्रकार जैसे धर्म और जाति के बंधन मानव निर्मित हैं।

आंदोलन अपने बुनियादी हक प्राप्त करने के लिये होते हैं, दमन के विरोध में होते हैं और अपनी अस्मिता के लिये होते हैं। बेहतर समाज की अवधारणा इसके मूल में निहित है। लेकिन आंदोलनकारी शक्तियों में ही अगर कहीं यह गैरबराबरी मौजूद है, तो आंदोलन स्वत: ही कमजोर पड़ेंगे। अगर स्त्री और पुरुष का या जातिगत भेदभाव वहाँ मौजूद रहता है तो आंदोलन के बिखर जाने का अंदेशा बना रह सकता है। दमनकारी शक्तियों के लिये यह अलगाव पैदा करने का एक कारगर माध्यम बन सकता है। अंगे्रजों की खिलाफत में चल रहे आंदोलनों के दौर की महत्वपूर्ण उपलब्धि थी, उससे जुड़े सामाजिक आंदोलन। समाज सुधारकों द्वारा चलाये जाने वाले आंदोलनों में अपने ही विश्लेषण पर जोर दिया गया और इस महत्वपूर्ण तथ्य को उजागर किया गया कि भारतीय समाज में जो रूढ़ियाँ, अंधविश्वास और गलत परम्परायें थीं, उनका विरोध किया गया। महिलाओं के प्रति जो अमानुषिक व्यवहार चलन में था, उनके उन्मूलन के लिये अथक प्रयास किये और बुर्जुवा समाज के विरोध और दमन का डटकर मुकाबला किया। इसे सुधारवादी दृष्टिकोण माना गया।

प्रगतिशील विचारधारा आज काफी आगे बढ़ गई है और स्त्री की समान भागीदारी और उसकी अस्मिता की बात करती है। लेकिन व्यवहार में जो बदलाव है, वह अब भी पारम्परिक ही है। स्त्री ने घर की दहलीज जरूर लांघी है लेकिन मूल अवधारणायें बहुत नहीं बदली हैं। वामपंथियों में भी जो महिलायें हैं वे नेतृत्व की भूमिका में दिखाई नहीं देतीं। बहुत बार एक ही विचारधारा के चलते आपस में विवाह के बाद वह भी मात्र कॉमरेड की पत्नी की भूमिका में आ जाती हैं।

जब तक जिम्मेदारियाँ बराबर नहीं बांटी जातीं, निर्णयों में समान भागीदारी नहीं होती, सारी कवायद व्यर्थ है। इधर के कुछ वर्षों में देखने में आया है- आंदोलन होते हैं, महिलायें भागीदारी करती हैं और जब दमन होता है, वह एक मुद्दा बन जाती हैं। वैसे ही जैसे गोष्ठियों और संगठनों में उन्हें खानापूर्ति के लिये शामिल भी कर लिया जाता है और स्त्री विषयों को मुद्दा भी बना लिया जाता है। बहुत बार जब किसी महिला का दृष्टिकोण सामने आता है, तब उसे महिला स्तुति की आड़ में किनारे कर दिया जाता है। कहना न होगा इसमें महिलाओं को भी पुरुष के दृष्टिकोण से सोचने को प्रेरित किया जाता है। जब तक यह सोच नहीं बदलती, तब तक समग्र बदलाव नहीं हो सकता और न ही वास्तविक लोकतंत्र आ सकता है। महिलाओं को जब भी मौका मिला है, उसने समाज को सार्थक योगदान दिया है, इसलिये उनकी भूमिका हर कहीं उतनी ही महत्वपूर्ण होनी चाहिए जितनी पुरुषों की होती है।

आंदोलनों में महिलायें जब उतरती हैं, तब वह हर परिस्थिति का डटकर मुकाबला करने को तैयार होती हैं। ऐसे में उस पर बहुत सारे दबाव होते है, उसे बहुत सारी सामाजिक वर्जनाओं को तोड़ने का साहस करना होता है। पारिवारिक जिम्मेदारियों को पूरा करने के साथ सामाजिक कार्यक्रमों में भाग लेना होता है। जब वह एक सोच के साथ जुड़कर इतने संघर्षों के बाद आन्दोलन के संघर्ष से जुड़ती है तो निश्चित ही उसकी सोच में परिपक्वता भी होगी, किताबी न हो व्यावहारिक तो होगी ही। कहना न होगा किताबों का ज्ञान भी तो व्यवहार से ही बना है।

आज एक ओर महिला विमर्श प्रचलन में है तो दूसरी ओर महिला मुद्दे सुर्खियों में। महिला, विमर्श की वस्तु न हो और मुद्दा न बने, ऐसी स्वस्थ सोच जब समाज में विकसित होगी तभी हम स्वयं को प्रगतिशील मान सकेंगे तभी आन्दोलन सार्थक होंगे और हम स्वस्थ प्रजातांत्रिक समाज की अवधारणा को मूत्र रूप दे सकेंगे।