उत्तरा का कहना है

उत्तरा की पिछली बैठकों में वक्ताओं का कहना था कि सबसे अच्छी बात इस पत्रिका की यह है कि यह नारीवादी पत्रिका नहीं   है। मन में बात उठी कि क्या नारीवादी होना बहुत खराब होता है ?

प्राय: लोग इस बात को कहते हैं कि वे नारीवादी नहीं हैं। वे भी, जो इस तरह के प्रश्नों पर विचार-विमर्श करते देखे जाते हैं। बहुत-सी पढ़ी-लिखी, बुद्धिजीवी महिलाओं के मुँह से भी यह बात सुनी जा सकती है। कई सम्मेलनों, गोष्ठियों में भी लोगों को यह बात कहते सुना जा सकता है कि हम नारीवादी नहीं हैं। नारीवादी न होना क्या बचाव का रास्ता है या वाकई कोई गलत बात है ? लेकिन जब भी महिलाओं के मुद्दों पर चर्चा होती है तो खुद महिलाएँ स्वीकारने लगती हैं कि हाँ, हमारे समाज में ऐसा है। लेकिन जब सिद्धांत की बात आती है तो नारीवाद जैसे अछूत हो जाता है। यह तो वैसा ही हुआ जैसे गुड़ खाया गुलगुले से परहेज। तस्वीर का एक दूसरा पहलू भी है कि सिद्धांत रूप में लोग स्वीकार कर लेते हैं कि हाँ, वे नारीवादी हैं परन्तु व्यवहार में उसके अनुरूप आचरण नहीं कर पाते- न स्त्रियाँ, न पुरुष। इससे बहुत सारी गलतफहमियां पैदा होती हैं। बहुत बार सिद्धांत रूप में स्वीकार न कर पाने पर भी व्यवहार में नारीवादी सिद्धांतों का प्रतिफलन दिखाई देता है। 2003 में रामगढ़ में उत्तरा के रचनाकार सम्मेलन में भी यही अनुभव रहा कि उत्तरा में जो लोग लिख रहे हैं, उनकी समझ नारीवादी दृष्टि से साफ नहीं है। कई बार लोग यह भी कहते हैं कि कोई ठप्पा हम क्यों लगायें ? तय तो करना ही पड़ेगा कि आप क्या हो, क्या मानते हो। यह भी तो समाज के लिए अच्छा नहीं है कि हम जो हैं या जो सोचते हैं, वह दिखाई न दें या दिखना न चाहें।

चीजों को बिना सोचे-समझे हल्के में लेने की आदत भी हमारी बन गई है। शब्दों का अर्थ बिना समझे, प्रयोग से उन्हें इस तरह घिस दिया जाता है कि लगता है शब्द अपना अर्थ ही खो देंगे क्योंकि उनके वास्तविक अर्थ को स्वीकारना लोगों के लिए आघातक हो जाता है। नारीवाद व्यवस्था परिवर्तन की बात करता है। व्यवस्था-परिवर्तन का मतलब है आमूलचूल परिवर्तन। लेकिन आज हर आम ओ खास की जुबान पर व्यवस्था-परिवर्तन शब्द इस तरह से है जैसे यह एक मजाक हो। आम आदमी पार्टी का उदाहरण ही लें। वस्तुत: यह पार्टी व्यवस्था परिवर्तन की बात नहीं करती लेकिन इस पार्टी का जिक्र करते हुए सब व्यवस्था परिवर्तन की बात करने लगते हैं। जबकि व्यवस्था परिवर्तन की बात जो माओवादी करते हैं, उनका हौव्वा खड़ा कर दिया गया है। और जब आम आदमी पार्टी के कार्यकर्ता विरोध-प्रदर्शन करते हैं तो उन्हें भी माओवादी कहने से लोग हिचकते नहीं। क्योंकि माओवादी क्या हैं, इसकी भी समझदारी बनाने की जरूरत समझी नहीं जाती। यही सोच नारीवादियों के प्रति भी है। आप व्यवस्था परिवर्तन की बात करते हैं परन्तु जब नारीवाद व्यवस्था परिवर्तन की बात उठाता है, उसे समझने की बात करता है तो उसे अजूबा समझ लिया जाता है। चूँकि नारीवाद भी व्यवस्था परिवर्तन की बात उठाता है और उसका मतलब पूरे बदलाव से है, इसीलिये लोग उससे बिदकते हैं और यथास्थिति के भीतर ही बने रहना चाहते हैं। किसी भी व्यवस्था में यथास्थिति को बनाये रखने में समाज के वर्ग विशेष का स्वार्थ निहित होता है और वह व्यवस्था परिवर्तन को नकारात्मक सोच से जोड़ देता है।

नारीवाद की एक सरल-सी परिभाषा एन.सी.ई़.आर.टी.  की एक पाठ्यपुस्तक में मिलती है-  ‘नारीवाद स्त्री-पुरुष के समान अधिकारों का पक्ष लेने वाला राजनीतिक  सिद्धान्त  है। वे स्त्री या पुरुष नारीवादी कहलाते हैं, जो मानते हैं कि स्त्री-पुरुष के बीच की अनेक असमानताएँ न तो नैसर्गिक हैं और न ही आवश्यक। नारीवादियों का मानना है कि इन असमानताओं को बदला जा सकता है और स्त्री-पुरुष एक समतापूर्ण जीवन जी सकते हैं।’अगर यही नारीवाद है तो इसे स्वीकार करने में क्या कठिनाई है ?
uttara ka kahna hai

नारीवाद का यह राजनीतिक सिद्धान्त मानता है कि समाज में व्याप्त स्त्री-पुरुष असमानता का मूल कारण पितृसत्ता है। पितृसत्तात्मक व्यवस्था स्त्री को तमाम सामाजिक और मानसिक वर्जनाओं के घेरे में रखती है। पितृसत्ता नियंत्रित करती है स्त्री के जीवन को। वह मानती है कि वंश पुरुष से चलता है, इसीलिए स्त्री को पुत्र ही पैदा करना है और वंश की शुद्धता के लिए स्त्री की यौनिकता पर नियंत्रण रखना जरूरी है।

पितृसत्ता ने ही स्त्री को व्यक्ति से सम्पत्ति में तब्दील किया है। आज यह कहने में कोई हिचकता नहीं कि स्त्री व्यक्ति है, वस्तु नहीं। लेकिन व्यवहार के धरातल पर उसे वस्तु की तरह तौला जाता है। व्यक्ति यदि वह है तो निर्णय लेने की स्वतंत्रता और समानता के व्यवहार से उसे वंचित क्यों रखा जाता है ? हांलाकि इस दिशा में कानून बन रहे हैं पर लोगों को समझना चाहिए कि महिला आन्दोलन के दबाव में ही बहुत सारे कानून बन सके हैं। परंतु समाज में फैले इस सोच के कारण कारगर रूप से प्रभावी नहीं हो पाये हैं। क्योंकि बदलाव मनोमस्तिष्क में होना जरूरी है। देखा जाय तो जिसे हम महिला आन्दोलन कहते हैं, उसके पीछे नारीवाद का ही सैद्धांतिक आधार है।

मादा भ्रूण हत्या को आज कोई सही नहीं कहता। बेटियाँ लुप्त हो रहीं हैं, यह चिन्ता हर पटल पर दिखाई देती है। क्या है मादा भ्रूण हत्या या बेटियों की मौत के पीछे। पितृसत्ता ही इसका मूल कारण है जो बेटे को बचाती है और बेटी को मारती है। पितृसत्ता की यह पहचान आखिर किसने की है? यह नारीवाद ही है जिसने पितृसत्ता को पहचाना और कहा  कि अगर बेटियों को बचाना है तो पितृसत्ता को जड़ से उखाड़ना होगा। लोग बेटियों को बचाने की बात तो कहते हैं पर उसके मूल तक जाने से कतराते हैं और उपहास की अदा में पूछने लगते हैं तो फिर पितृसत्ता के बाद क्या मातृसत्ता आयेगी ? सवाल यह उठता है कि क्या हम स्त्री और पुरुष को समान नहीं मानते या समान नहीं मानना चाहते?

यदि स्त्री-पुरुष की समानता स्वीकृत है तो घर से बाहर तक हर क्षेत्र में क्यों नहीं है? नारी को व्यक्ति समझना है तो पहचान करनी होगी कि असमानता के क्षेत्र कहाँ-कहाँ हैं।

स्त्री को वस्तु न मानकर व्यक्ति मानने तक तो ठीक है, परन्तु जब एक व्यक्ति के रूप में उसके अपने जीवन पर, अपनी यौनिकता पर नियंत्रण की बात उठती है तो लोग बिदकना शुरू कर देते हैं। वह इसे यौन उच्छ्रंखलता से जोड़ देते हैं। जबकि यही वह मुद्दा है जिसने गर्भ नियंत्रण, दूसरे शब्दों में परिवार नियंत्रण और आगे बढ़ते हुए जनसंख्या नियंत्रण के रूप में स्वीकृति पाई है परन्तु स्त्री का अपनी यौनिकता पर नियंत्रण होना, यह बात लोगों को पचती नहीं और वे नारीवाद को निन्दनीय बना देते हैं। गर्भ नियंत्रण हो या मादा भ्रूण हत्या – निर्णय का अधिकार स्त्री को दिये बिना समस्या की जड़ तक नहीं पहुँचा जा सकता।
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व्यक्तिगत ही राजनीतिक है का जो सूत्रवाक्य नारीवाद ने दिया है, उसी का परिणाम है कि हम 2005 के घरेलू हिंसा कानून तक पहुँचे हैं। यानी जो भी हमारे जीवन में घटित हो रहा है, उसके पीछे राजनीति है। व्यक्तिगत कहकर उसमें हस्तक्षेप से आप बच नहीं सकते। चाहे घर हो या परिवार या चहारदीवारी में कैद स्त्री, उसको कानून के दायरे में लाना होगा। कानून तो बन गया लेकिन उसे पचा पाने की मानसिकता समाज की बन नहीं पाई है- न पुलिसकर्मियों की, न प्रशासन की, न न्यायाधीशों की, न वकीलों की और न सरकारों की।

नारीवाद के खिलाफ सबसे बड़ा तर्क जो हर व्यक्ति तुरन्त उगल देता है, वह है- पश्चिम से आयातित होना। बेशक नारीवाद का उदय पश्चिम में हुआ लेकिन परिस्थितियाँ अपने देश में फलने-फूलने की पूरी थीं। अठारहवीं-उन्नीसवीं  शताब्दी में पश्चिम में जो बदलाव आये, मसलन अमरीका और फ्रांस की क्रान्तियाँ, न्याय, समानता और स्वतंत्रता के सिद्धांत उनकी उपज नारीवाद भी था, जैसे कि अन्य तमाम बातें आईं। बीसवीं शताब्दी में दो विश्वयुद्ध का होना, रूस और चीन की क्रान्तियाँ, उपनिवेशवाद के खिलाफ संघर्ष, रंगभेद का विरोध, इन सबने नारीवाद को भी विस्तार दिया। नारीवाद भी विश्व के बदलते सन्दर्भों की स्वाभाविक उपज था और जहाँ-जहाँ जमीन मिली, फैलता गया।

नारीवाद की चर्चा करते हुए विश्व की महिलाओं की बात की जाती है। लेकिन अमेरिका का अनुभव अलग है, यूरोप का अलग, अफ्रीका का अलग है तो एशियायी देशों का अलग। हर जगह से महिलाओं के संघर्षों में नये-नये मुद्दे जुड़ते गये हैं – उसे व्यापकता मिली है और नजरिया खुला है, अपनी कमियाँ भी महसूस हुईं हैं, मतभेद भी सामने आये हैं। हर जगह के सन्दर्भ भिन्न हैं। क्या दहेज हत्या, सती पूजा, डाइन प्रथा, बलात्कार, शिक्षा व समानता से वंचित रखना, ये तमाम बातें पश्चिम से आयातित थीं। इनकी जड़ें इसी देश के समाज, संस्कृति और राजनीति में सहस्राब्दियों से गहरे धँसी हुई थीं। उनके खिलाफ अभिव्यक्तियाँ भी खोजने पर जहाँ-तहाँ बिखरी हुई मिलती हैं। बीसवीं शताब्दी के सातवें दशक में आकर कहना चाहिए कि एक सैद्घान्तिक बहस के साथ उनका विस्फोट हुआ।

यह कहना तो और भी अनुचित है कि केवल पढ़ी-लिखी, शहरी, सम्पन्न वर्ग की महिलाओं तक ही यह नारीवाद सीमित है। आज विभिन्न महिला संगठनों, विभिन्न स्वैच्छिक संस्थाओं, विभिन्न बुद्धिजीवियों, विभिन्न संचार माध्यमों के जरिये नारीवाद की चेतना फैलती ही जा रही है, इसमें कोई शक नहीं।

आधी आबादी को भी अपना जीवन जीने का हक है, यह बात कहने में सरल है लेकिन आचरण में बहुत कठिन। उसके प्रति सोच और व्यवहार दोनों बदलने की सख्त जरूरत है। इसे महसूस करते हुए भी हम इसके प्रवक्ता नहीं बनना चाहते, यही दुख की बात है। नारीवाद को स्वीकार करने या नारीवादी होने की बात केवल स्त्रियों तक ही सीमित रहे, ऐसा नहीं है। पुरुषों को भी नारीवादी होना उचित है। यह एक सोच है जो समाज में स्त्री को स्त्री के नजरिये से देखे जाने की बात करता है। यदि वे स्त्री-पुरुष समानता में विश्वास रखते हैं, यदि वे मानते हैं कि समाज में स्त्रियों का दर्जा दोयम है और इसे बदलना चाहिये, यदि वे पितृसत्ता को स्त्रियों की विषम स्थिति के लिये जिम्मेदार मानते हैं तो वे नारीवादी हैं। नारीवादी होना उनके लिए किसी भी रूप में कमतर होना नहीं है। उत्तरा को भी बिना हिचक, बिना डरे लगना ही चाहिये कि वह एक नारीवादी पत्रिका है।
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