उत्तरा का कहना है

लोकतंत्र का मूल मंत्र है, ‘मैं तुम्हारी असहमति से सहमत हूँ।’ हम घमण्ड करते हैं कि हमारे देश में  मतपेटियों से सत्ता बदल जाती है। हारा हुआ पक्ष बिना किसी हुज्जत के हार स्वीकार कर लेता है। बड़ी विनम्रता से कह देता है-हमें जनता का फैसला स्वीकार है लेकिन इस उपलब्धि के बाद हम उस लोकतंत्र का रूप बिगाड़ने में कोई कसर नहीं छोड़ते।

पिछले छ: महिने से इस देश में जो कुछ हो रहा है, उससे तो इस देश को लोकतांत्रिक कहने में भी संकोच होता है। ‘भारत माता की जय’और ‘अफजल गुरु’जैसे मुद्दों ने वास्तविक मुद्दों को पीछे छोड़ दिया है। राष्ट्रवाद, राष्ट्र प्रेम और अभिव्यक्ति की आजादी के प्रश्नों ने एक बड़ी बहस छेड़ दी है। बहस होनी भी चाहिए लेकिन स्वस्थ नजरिये के साथ। दोनों ही पक्षों ने इस सम्बन्ध में अपनी-अपनी दलीलें दी हैं। एक ही पक्ष पर दोष नहीं मड़ा जा सकता। लेकिन समस्या तब पैदा होती है जब एक पक्ष दूसरे पक्ष को सुनना ही नहीं चाहता है।

इस सबका परिणाम यह रहा है कि सच क्या है, यह सामने नहीं आ पा रहा। पूरा देश बंट गया लगता है। आजादी के बाद से अब तक ऐसा कभी नहीं हुआ कि सत्ता पक्ष और विपक्ष अलग-अलग न दिखाई दें। आज तो ऐसा लग रहा है कि सभी विपक्ष में बैठे हैं। सत्ता पक्ष के पास सत्ता है, शक्ति है, भरी-पूरी नौकरशाही का दबदबा होता है। इसलिए उसकी प्रकृति संयत भी होती है। वह विपक्ष को अपनी बात कहने की जगह देती है और उसी से सही आलोचना सामने आती है। विपक्ष का तो यह दायित्व ही है कि वह सरकार की आलोचनाओं को सामने रखे। पर सरकार का दायित्व यह नहीं होता कि वह विपक्ष की हील-हुज्जत करने में समय बर्बाद करे जबकि उसकी जिम्मेदारी और जवाबदेही जनता के लिए है।

हम कठिन दौर से गुजर रहे हैं। आम आदमी भी बंटा लगता है। मोदी के पक्षधर मोदी विरोधी को नहीं सुनना चाहते। केजरीवाल के पक्षधर उसकी आलोचना बर्दाश्त नहीं कर पाते। प्रधानमंत्री ने एक अच्छी शुरूआत की थी ‘स्वच्छ भारत’। यह एक ऐसा प्रयास था जो कि आम आदमी को उसकी कमी बताकर एक बड़े पैमाने पर सक्रिय करता। भारत के आम आदमी की बड़ी कमजोरी है कि वह अपना घर साफ करके कूड़ा सामने सड़क पर फेंकता है। सरकारी संस्थान, सरकारी सम्पत्ति के प्रति भारतीय जनता की बेपरवाही छुपी नहीं है। इसी को सरकारी व्यवस्था के माध्यम से आगाह करने का प्रधानमंत्री का प्रयास वास्तव में सराहनीय था। परन्तु समझ नहीं आता कि उनकी ही पार्टी के लोग इसका महत्व नहीं समझ पाये और दूसरे मुद्दों को सामने लाते रहे। राष्ट्रवाद, देशभक्ति, गोवध- इन मुद्दों की आड़ ने इस प्रयास को पीछे धकेल दिया है। यह पार्टी विशेष के विचार हो सकते हैं जिन्हें वह व्यक्त कर सकते हैं। लेकिन पार्टी का ऐजेण्डा नहीं हो सकते है उन्हें जबरन थोपे जाने की कोशिशें नहीं की जानी चाहिए/जा सकतीं।

भाजपा कहती है कि उसे ‘कांग्रेस मुक्त भारत’चाहिए। क्या है इसका मतलब ? क्या वह किसी के मौलिक अधिकार से उसे वंचित कर देना चाहती है। सभी को इस स्वतंत्र देश में सभा, सम्मेलन, संगठन बनाने की आजादी है। वह कैसे रोक सकती है ? अगर जनता मतपेटियों से पराजित भी कर देती है तो भी एक संगठन को बने रहने के अधिकार से रोका नहीं जा सकता है। सवाल वही है कि क्या हम दूसरे की असहमति से सहमत नहीं है? दूसरे के संवैधानिक तरीके से असहमति के अधिकार से बेदखल कर रहे हैं?
(Editorial)

भाजपा अगर आज सत्ता में है तो उसे समझना चाहिए कि आज जनता ने कांग्रेस को नकारा है इसलिए वह सत्ता में है, इसलिए नहीं कि उसने कांग्रेस को अपने कामों से पराजित किया है। जनता ने उसे मौका दिया है तो उसे इस पर खरा भी उतरना होगा। वरना, देश की जनता ने पिछले शासन के आपातकाल को भी तोड़ा था और वह किसी भी तानाशाह रवैये को चलने नहीं देगी। बेहतर हो कि राजनीतिक पक्ष और विपक्ष की सही जिम्मेदारियों को निभाते हुए वास्तविक लोकतंत्र के पाँव मजबूत करने की कोशिश करें और हमें वास्तव में लोकतांत्रिक देश होने का गौरव हाशिल हो।

आजादी के समय देखे गये जनता के सपने पूरे नहीं हुए। विकास तो हुआ लेकिन भय और असुरक्षा का माहौल बना रहा। जनमानस में तो इस असुरक्षा का भाव था ही लेकिन वह विभिन्न राजनैतिक दलों में भी दिखायी पड़ने लगा है। सत्ता हो या विपक्ष दोनों को ही अपना वर्चस्व बनाये रखने की कोशिश में देखा जा सकता है। देश की दो बड़ी रानीतिक पार्टियों- कांग्रेस और भाजपा में एक को अपने वर्षों के जनाधार के समाप्त होने का और दूसरे को हासिल हुए जनाधार को खो बैठने का डर सताता नजर आ रहा है। राजनैतिक दल सत्ता की दौड़ में लोक और लोकतंत्र को भूल रहे हैं। उससे भी खतरनाक यह है कि वह जनता को भी अपनी बहसों/लफ्फाजी से मूल मुद्दों से भटकाने की काशिश करते नजर आ रहे हैं। बहुत बार राजनैतिक दलों के साथ-साथ देश भी खेमों में बँटा नजर आ रहा है, जो बिल्कुल ही ठीक नहीं है।

इस हफ्ते पाँच राज्यों, असम, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, पांडिचेरी व केरल, के चुनाव परिणाम सामने आये हैं। इन पाँचों राज्यों में अलग-अलग दलों की सरकारें बनी हैं, यह लोकतंत्र के लिए सुखद स्थिति है। सरकारें बदल रहीं हैं, मतलब कि सत्ता की सहभागिता अधिकतम लोगों के द्वारा हो रही है, अच्छा प्रयास है। मतदाता बेवकूफ नहीं है। इस चुनाव का महत्वपूर्ण पक्ष है कि पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु में ममता और जयललिता की दूसरी बार विजय। पहली बार तो जनता अवसर देती है, दूसरी बार उसके काम से उसे विजय प्राप्त होती है। दोनों में और जो कुछ भी बुराई हो, दोनों ने अपने-अपने राज्यों में काम किया है, इसका उसे प्रतिफल भी मिला है। दूसरी महत्वपूर्ण बात है क्षेत्रीय पार्टियों का वर्चस्व। भाजपा ने राष्ट्रीय पार्टी कांग्रेस को तो पराजित किया पर वह क्षेत्रीय पार्टियों को पराजित नहीं कर पाई। यह हमारे संघवाद को मजबूत करता है। चुनाव समीक्षा इस आधार पर होनी चाहिए न कि किसी पार्टी की जीत को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करना या किसी पार्टी की पराजय को उसके विनाश में परिर्वितत कर देना। चुनाव पाँच साल में इसीलिए होते हैं कि सबका समय बदलेगा, सभी को आत्ममंथन की आवश्यकता है। लोकतंत्र एक प्रक्रिया है जो समय के साथ परिपक्व होती है। हमें इसी का स्वागत करने की आवश्यकता है।
(Editorial)
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