सम्पादकीय जनवरी-मार्च 2021 अंक

January March 2021

एक ऐसे समय में जबकि किसान आंदोलन से पूरा देश उद्वेलित है, देश ही नहीं, दुनिया भर से प्रतिक्रियाएं आ रही हैं, देश के अलग-अलग तबकों का समर्थन आंदोलन को मिल रहा है, महिलाओं के प्रति समाज के नज़रिए को लेकर बात करना बहुत मुनासिब नहीं समझा जाएगा क्योंकि महिलाओं की भी भारी भागीदारी और समर्थन किसान आंदोलन में देखी जा रही है। लेकिन इसी समय और समाज में बिहार के गाजीपुर में 2012 के निर्भया कांड जैसी बर्बरता दोहराई गई है। यह कहना ज्यादा उचित होगा कि बार-बार दोहराई जा रही है। 19 जनवरी 2021 को मुम्बई उच्च न्यायालय की नागपुर खण्डपीठ की न्यायाधीश पुष्प ने पोक्सो मामले में निर्णय दिया कि यदि त्वचा से त्वचा का स्पर्श नहीं होता है तो इसे बलात्कार नहीं माना जाएगा। इस फैसले की सब तरफ से बहुत आलोचना हुई। लेकिन इस तरह का फैसला आना ही दर्शाता है कि अभी भी हमारे देश में बलात्कार के प्रति नरम रवैय्या है। यदि न्यायाधीश के आसन पर बैठे हुए व्यक्ति, माना जाता है कि जिसे हर तरह के कानून की जानकारी है, का सोच इस प्रकार का हो सकता है तो हमारे राजनेता, प्रशासन में बैठे हुए लोग, वकील आदि का क्या रुख हो सकता है, जिन्हें किसी भी मामले में पैरवी करनी होती है या मामले को सही तरीके से अदालत तक ले जाना होता है। सरकारें धर्मांतरण कानून के बहाने प्रेम विवाह करने वाले  युगलों को प्रताड़ित कर रही हैं। उन्हें सुरक्षा और प्रोत्साहन देने के स्थान पर वे उनके निजी जीवन में दखल दे रही हैं। एक ओर शिक्षा, रोजगार, तकनीकी, रहन-सहन, संचार साधनों ने जहाँ दुनिया को एक कर दिया है, जो धर्म, जाति और लिंग के भेदभाव को मिटाने में सहायक है, वहीं दूसरी ओर जनता को खानों में बांटा जा रहा है। यही अफसोस का सबब है कि आज़ादी के सत्तर साल बाद हम किस दिशा में ले जाए जा रहे हैं।

यह सही है कि आंदोलन न केवल अपनी मांगों को मनवाने या विरोध दर्ज करवाने का माध्यम हैं, आन्दोलन समाज में शिक्षक की भूमिका भी निभाते हैं। समाज को बहुत कुछ सिखाते भी हैं। किसानों का संघर्ष भी कोई नया संघर्ष नहीं है। सालों से किसान संघर्ष कर रहे हैं। तीन कृषि कानूनों के विरोध में पूरे देश के किसान एक साथ उठ खड़े हो गए हैं। 90 दिन से अधिक समय हो गया है। एक समग्र जनांदोलन की तरह यह आगे बढ़ता जा रहा है। देश की सभी प्रगतिशील ताकतें आज किसान आंदोलन के साथ खड़ी हैं क्योंकि यह आंदोलन निजीकरण के खिलाफ एक बुलंद आवाज बन गया है। निजीकरण शिक्षा का हो या रेलवे का या स्वास्थ्य सुविधाओं का या आज़ादी के बाद परिश्रम पूर्वक खड़े किये गए संस्थानों का, यह क्रम बढ़ता ही जा रहा है। विरोध की आवाज़ें उठीं पर दबा दी गईं। पर जब किसानों की ज़मीन के निजी हाथों में जाने की नौबत आई तो किसान उठ खड़े हुए। पंजाब, हरियाणा से उठा यह सैलाब आज देशव्यापी बन गया है। किसान आन्दोलन के केन्द्रों में चाहे वह सिंघु बॉर्डर हो या टीकरी बॉर्डर, जाकर देखा जा सकता है कि कितनी विविधता आन्दोलन में है और लोग किस तरह अपनी-अपनी भूमिका निभा रहे हैं। नई पीढ़ी का इन आन्दोलनों में सक्रिय होना न केवल अपने समाज के प्रति गहरी समझ से लैस होना है, वरन् राजनीति के कुचक्र को समझने का जरिया भी है। दिशा रवि जैसी लड़कियां इन षड्यंत्रों को समझकर इनके खिलाफ आवाज उठाने का साहस कर रही हैं तो हमें समझना चाहिए कि एक अकेली दिशा रवि आज नहीं है। दिशा की गिरफ्तारी ने अनेक दिशाओं में ऐसी साहसी युवा पीढ़ी तैयार कर दी है जो विश्वभर में बोल रही है और एक से एक जुड़ने की कोशिश कर रही है, जो अनीति और अत्याचार के खिलाफ हर जगह आवाज उठाने को तत्पर है।

इस आंदोलन में महिलाएं भी पीछे नहीं हैं। कृषक समाज के हिस्से की तरह वे आईं। उन्होंने रसोई भी सम्भाली, नारे भी लगाये, गीत भी गाये, सफाई का काम भी किया, मंच पर चढ़कर भाषण भी दिये, ट्रेक्टर चला कर अपने गांव से चली आईं, पत्रकारों से बातें भी की, अपना मुद्दा समझाया, रैली में शामिल हुईं, उनके पति आंदोलन में शहीद हुए तो उनकी फोटो लेकर शरीक हुईं, आत्महत्या करने वाले किसानों की पत्नियों के दुख भी सामने आए, किसानों की बेटी, पत्नी के रूप में ही नहीं, उनको महिला किसान का दर्जा मिले, इस मांग की गूंज भी आंदोलन के ईद-गिर्द सुनी गई। यह ऐसी मांग है जिसे विभिन्न महिला संगठन अर्से से उठाते आ रहे हैं। इस मांग का सीधा मतलब है कि जमीन उनके नाम दर्ज हो। तभी वे किसान कहलाएंगी। तभी किसानों को मिलने वाली सुविधाओं का लाभ वे ले सकेंगी। कई बार परिवार की मुखिया होते हुए भी वे जमीन नाम पर न होने से अधिकारों से वंचित हो जाती हैं। कई बार जमीन से बेदखल कर दी जाती हैं।

उनके वहां मौजूद होने से किसी को परेशानी नहीं थी लेकिन इस देश की सर्वोच्च अदालत के मुख्य न्यायाधीश को सवाल पूछना जरूरी लगा कि आखिर ये महिलाएं आंदोलन में क्या कर रही हैं। वृद्घों, बच्चों और महिलाओं का वहाँ क्या काम है। क्या उन्होंने इस देश का इतिहास पढ़ा नहीं होगा? आज़ादी के आंदोलन से लेकर आज तक क्या कोई लड़ाई बिना महिलाओं की भागीदारी के लड़ी गई? महिला आंदोलन भी आज सिर्फ महिलाओं के मुद्दों तक सीमित नहीं रहा। वह हर जायज़ मुद्दे पर अपनी आवाज़ बुलन्द कर रहा है। चाहे वह मॉर्ब ंर्लंचग के मामले हों, नागरिकता कानून का सवाल हो, दिल्र्ली ंहसा की घटनाएं हों, या अपनी ज़मीनों को बचाने र्की ंचता हो। महिलाएं वहाँ क्या कर रही हैं, यह सवाल तो ऐसा है, जैसे कोई संघ का प्रचारक पूछ रहा हो जो यह मानते हैं कि महिलाओं का स्थान केवल घर में है। सर्वोच्च न्यायालय के सर्वोच्च न्यायाधीश को क्या यह दिखाई नहीं देता कि महिलाएं आज क्या-क्या कर रही हैं।

यह सोच कि महिलाएं वहां क्या कर रही हैं, कई सवाल खड़े करता है।

वे सब लोग क्या प्रगतिशील कहे जा सकते हैं जो इसमें शामिल हैं? वे क्या दूसरी लडाइयों में  भी महिलाओं का साथ देंगे? लव जिहाद के नाम पर धर्मान्तरण के खिलाफ कानून बनाकर युवाओं को उत्पीड़ित करने वालों के खिलाफ आवाज़ें बुलन्द करेंगे? आन्दोलनों में महिलाओं की भागीदारी रोटियां बेलने तक सीमित रहेगी या निर्णयों में भागीदारी करने तक पहुंच पाएगी। आंदोलन के दौरान दिल्ली की सीमाओं में सक्रिय महिलाएं अपने-अपने ठिकानों में लौटने के बाद अपनी बराबरी की मांग उठाने पर समर्थन हासिल कर सकेंगी? महिला किसान के रूप में अपना नाम दर्ज करा सकेंगी? अभी तो आंदोलन में भी उनकी भूमिका दोयम दर्जे की ही दिखाई देती है। कह नहीं सकते कि मुम्बई की न्यायाधीश और सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के समान मानसिकता लिए हुए कितने लोग आंदोलनकारियों के बीच मौजूद हैं जो कल को कहने लगें, ये महिलाएं यहां क्या कर रही हैं।

यह सही है कि कट्टरपंथी और पूंजीपतियों की गुलाम सरकार को अपनी नीतियों को बदलने के लिए मजबूर करने के लिए देश की सभी प्रगतिशील ताकतें एक मंच पर हों। लेकिन क्या कल को ये खाप पंचायतें अपनी जमीनों पर अपनी बेटियों को बेटों के बराबर हक देने में नहीं हिचकेंगी? क्या # मी टू कहने वाली महिलाओं का साथ देंगी? समलैंगिकों के विवाह को मान्यता देंगी या ऑनर र्किंलग के रास्ते पर ही चलेंगी? 2018 में विश्व भर में मी टू अभियान ने खूब जोर पकड़ा। नामचीन महिलाओं ने भी अपने साथ कभी हुए यौन शोषण की कहानियां सामने रखी। लोगों ने हम महिलाओं की खिल्ली उड़ाई। लेकिन आज प्रिया रमानी को जो राहत मिली है उसके पीछे प्रगतिशील नजरिया और महिलाओं की ताकत है। प्रिया रमानी ने सोशल मीडिया में पूर्व केन्द्रीय राज्यमंत्री एम.जे. अकबर पर यौन उत्पीड़न का आरोप लगाया, उसने कोई मुकदमा नहीं किया लेकिन एम.जे. अकबर ने प्रिया रमानी पर मानहानि का मुकदमा दर्ज कर दिया। कोर्ट में जज ने कहा कि एक महिला दशकों बाद भी अपने साथ हुए यौनिक उत्पीड़न के खिलाफ बोल सकती है। ऐसा कहने वाली महिला के खिलाफ मानहानि का मुकदमा नहीं चल सकता है। कोर्ट ने एम.जे. अकबर की मानहानि की याचिका खारिज कर दी। प्रिया रमानी की जीत आज हम सब की जीत बन गई है।

जीत तो स्नेहा पार्थिबराजा की भी हुई है जिसने स्वयं को धर्म और जाति के ठप्पे से मुक्त कर लिया है। क्या देश का आमजन स्नेहा का समर्थन करने को तैयार है?

आज भी अपने हक की लड़ाई लड़ने वालों के लिए संघर्ष ही एकमात्र रास्ता है, कब, कहां, कौन साथ देगा, यह बात अलग है।

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