उत्तरा का कहना है : जनवरी मार्च 2017

इस बीच देश के पाँच राज्यों में विधानसभा चुनाव हुए। चुनावी नतीजों को मीडिया ने ऐतिहासिक बताया और विशेषज्ञों ने अभूतपूर्व का दर्जा दिया, जबकि बुद्धिजीवियों और मध्यमवर्ग के लिए यह सवालिया निशान बन गया। सत्र  शुरू होने के साथ ही केन्द्र सरकार द्वारा कांग्रेस शासित सरकारों को अल्पमत में लाने का जो दौर चला और उदालतों के दरवाजे खटखटाये गये तब उन्हें भी अभूतपूर्व फैसले देने पड़े फिर कांग्रेस विहीन राजनीति का नारा भी चल पड़ा और जनमानस में फैलकर शायद पैठ बनाने लगा। यह हमारे लोकतंत्र का मील का पत्थर बना। लोकतांत्रिक ढंग से चुनी गई सरकारों को बावजूद उनके कार्यों से सन्तुष्ट न होने पर भी सहानुभूति मिलने लगी।

पिछले वर्ष का अन्त आते-आते प्रधानमंत्री ने काले धन को निकालने (?) के लिए नोटबंदी का ऐतिहासिक फैसला सुना दिया। लोग इस खुशफहमी में आ गये कि फैसला जनहित में है और काले धन वालों विशेषकर राजनीतिक दलों को इसका नुकसान होगा और आगामी चुनाव लोकतांत्रिक तरीकों से लड़े जायेंगे। लोकतांत्रिक देशों में चुनाव लोकतांत्रिक तरीकों से ही लड़े जाते हैं। आखिर उस समाज में रहने वाले पूँजीपति बाहुबली, सत्ताधारी, माफिया, तस्कर…. (फेहरिस्त लम्बी हो सकती है) भी तो उस लोकतंत्र का ही हिस्सा हैं इसलिए इन सभी की अपने-अपने ढंग से की गई भागीदारी भी लोकतांत्रिक प्रक्रिया का हिस्सा ही हैं। लेकिन इस दौरान एक नई बात यह भी आई कि राष्ट्र हित इसमें है कि लोगों में वैचारिक भिन्नता नहीं होनी चाहिए। किसी को अपने विचार व्यक्त करने की स्वतंत्रता नहीं होनी चाहिए अगर बात-बहस होगी तो बहुत से लोग दिग्भ्रमित हो जायेंगे। लगता है कि सरकार जनता के प्रति रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा, स्वास्थ्य की जिम्मेदारी के साथ-साथ अपनी यह भी जिम्मेदारी मानने लगी  है कि उसे लोगों के लिए विचार भी पैदा करने चाहिए। लेकिन विचार समाज और जीवन से ही पैदा हो सकते हैं, सत्ता उन्हें पैदा नहीं कर सकती लेकिन इस दरम्यान यह सिलसिला भी चल पड़ा कि जो मोदी और उनके सहयोगी कर रहे हैं या कह रहे है वही सत्य है। इस मिथ्या सत्य का परिणाम उत्तराखण्ड और उत्तर प्रदेश में मिले भारी बहुमत के रूप में सामने आया है तो गोवा और मणिपुर में वह जबरन सरकार बनाने के में सफल रही।

चुनावों में सबसे प्रभावशाली चुनावी समीकरण होते हैं। जनता के मिजाज को पहचानकर ही चुनाव जीते जा सकते हैं। जनता महंगाई की बात भी करती है और भ्रष्टाचार की भी। बार-बार ठगे जाने का अहसास भी उसे होता है और चुनाव में अपने वोट की अहमियत भी उसे पता होती है। लेकिन लगता है जनता भी मुद्दों को गम्भीरता से नहीं लेती। उत्तराखण्ड में चुनाव आयोग ने इसे कौथिग की संज्ञा दी थी। कौथिग यानी मेला। देश की बहुसंख्य जनता के लिये यह मेले जैसा ही है। चुनाव में अबकी बार प्रचार में भी इस बात का बहुत जोर था कि वोट देने अवश्य जायें। इसके लिए बहुत सारे जागरूकता शिविर भी लगाये गये, रैलियाँ भी निकलीं, बावजूद इसके मतदान का प्रतिशत बहुत अधिक नहीं बढ़ा। प्रचार के लिये अबकी बार पार्टी कार्यकर्ता नहीं, दिहाड़ी पर लगे लोग थे। उनके पास प्रचार को मतदाताओं को बताने के लिए कुछ नहीं था। वे सिर्फ पर्चे बाँट रहे थे। जुलूस में भागीदारी करने के लिये भी उन्हें पैसे मिल रहे थे। वे प्रसन्न थे कि उन्हें अतिरिक्त आय का साधन मिल रहा था। पार्टी कार्यकर्ता भी मानकर चल रहे थे कि ‘बेचारों’ को भी कमाने का मौका मिल रहा है।
(Editorial Jan March 2017)

चुनावी भाषण विपक्षी नेताओं पर आरोप-प्रत्यारोप पर केन्द्रित रहे और सोशियल मीडिया इन पर चुटकियाँ लेने में। 16 वर्ष तक संघर्ष का रास्ता चुनने और लोकतांत्रिक तरीकों पर विश्वास रखते हुए जब इरोम र्शिमला ने चुनाव लड़ने का फैसला किया तो उसे मात्र 90 वोट मिले। जो इस बात का साफ संकेत है कि जनता के बीच में गम्भीर मुद्दे कोई मायने नहीं रखते या कहें वे इतनी गहराई में जाकर सोचते ही नहीं हैं।

बुद्धिजीवी बात-बहसों में जाते हैं और सरकार तथा सरकारी नीतियों की खामियों का तथ्यात्मक विश्लेषण करते हैं। लेकिन संवाद सीमित वर्ग तक ही सीमित रह जाता है। राजनीति और बौद्धिक विमर्श में कोई तालमेल नहीं बनता। बुद्धिजीवियों के लिये राजनैतिक मूल्यों में आया ह्रास चिन्ता का विषय बना रह जाता है वह न राजनीतिज्ञों को प्रभावित कर पाते हैं और न आम जनता को समझ में आते हैं। इसलिए ईमानदार छवि वाले जुझारू लोग चुनाव में भागीदारी करने पर जमानत भी नहीं बचा पाते हैं। वे भी सन्तुष्ट रहते हैं कि उन्होंने सत्ता पाने के लिए गलत समझौते नहीं किये और उन्हें समर्थन देने वाले इसे लोगों की सोच पर सवालिया निशान लगाकर अपने विशिष्टता बोध के भ्रमजाल में खुद का तुष्टीकरण कर लेते हैं।

एक बड़ा तबका राजनीति से कुछ इस तरह परहेज करता है कि वोट डालना अपने समय की बर्बादी है और राजनैतिक बहस को मूर्खतापूर्ण मानता है और हस्तक्षेप नहीं करना चाहता है। लोग यह तो मानकर चलते हैं कि चुनाव में जो प्रत्याशी खड़े हैं वे योग्य नहीं हैं लेकिन वे नोटा का विकल्प चुनते हुए वोट नहीं देते। न इतने जागरूक हैं कि अयोग्य प्रतिनिधि को कटघरे में खड़ा करने की दिशा में बढ़ें।

इन सब कारणों से ही राजनैतिक दलों की स्पर्धा स्वयं के वर्चस्व में बदल गई है। वर्तमान में तो स्थिति यह है कि स्वस्थ्य लोकतंत्र की पहली जरूरत एक शक्तिशाली विकल्प कहीं नजर नहीं आता जो सत्ता को तानाशाही के अंधेरे में ले जा सकता है। कांग्रेस शासन का घोषित और भाजपा का अघोषित आपात्काल इसका उदाहरण है। अगर कोई दल विपक्ष की भूमिका में नहीं है तो जनता को खुद विकल्प बनना होगा। यह देश के सामने एक बड़ी चुनौती है। अगर आज लोकतंत्र में लोक मजबूत नहीं हुआ, जनशक्ति संगठित नहीं हुई, विकल्प नहीं बनी तो लोकतंत्र की मूल अवधारणा ही बिखर जायेगी।
(Editorial Jan March 2017)

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