सम्पादकीय जुलाई-सितम्बर 2019

Editorial july September 2019

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपने पद पर आसीन होने पर 2014 में  नारा दिया था ‘बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ।’, प्रधानमंत्री का यह सन्देश तेजी से पूरे देश में फैल गया और यह नारा हमें दीवारों,पोस्टरों,अस्पतालों,टीवी, रेडियो और ट्रकों के आगे पीछे लिखा नजर आने लगा। देश-दुनिया के नेताओं द्वारा दिए गए नारे कई बार इतिहास में स्थान पा जाते हैं, जैसे ‘दिल्ली चलो’,‘जय जवान जय किसान’, ‘गरीबी हटाओ’ आदि-आदि। ये नारे तत्कालीन परिस्थितियों की चुनौतियों से निपटने के लिए दिए जाते हैं।
(Editorial july September 2019)

‘बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ’ का नारा इस मायने में एक आत्मस्वीकृति भी है कि आजादी के सात दशक से ज्यादा समय बीत गया मगर हमारी बेटियाँ अभी भी पैदा होने से, जिन्दा रहने से, जिंदा रह भी गयी तो स्वस्थ विकास से, पढ़ने-लिखने से रोकी जा रही हैं। ़इसलिए उनको पैदा होने का हक, जिंदा रहने का हक, पढ़ने-लिखने का हक दिलाना आज भी हमारी चुनौतियों में शामिल है। हमारे वैज्ञानिक चाँद तक हमारे यान पहुँचा देने में सक्षम होने का सबूत दे चुके हैं, मगर आज भी हमें आये दिन इस बात के पुख्ता सुबूत मिलते रहते हैं कि बेटियों को बचाना एक दुष्कर कार्य है। कई बार तो लगता है, शिक्षा के प्रसार से हाईस्कूल-इण्टर पास लोग भी अपने आस-पास की धरती, पेड़, पहाड़, आसमान, इतिहास, भूगोल के बारे में। थोड़ा-थोड़ा जान जाते हैं, लेकिन वे अगर कुछ नहीं जानते तो अपने आस-पास की महिलाओं के बारे में, लड़कियों के बारे में, बच्चियों के बारे में। उनकी जरूरतें, उनकी इच्छाएँ, अभिलाषाएँ जो बहुत छोटी-छोटी होती हैं मगर कुल वंश और परिवार की ‘आन-बान-शान’ को बनाए रखने के भ्रम के कारण हमेशा-हमेशा के लिए दफन कर दी जाती हैं और एक स्त्री वह व्यक्तित्व नहीं होती जो उसकी क्षमता के कारण वह हो सकती है बल्कि वह होती है जो पुरुष सत्ता उसे देखना चाहती है।

मीडिया, फिल्मों और उच्च आय वर्ग के समाज में हमें कभी-कभार वह स्त्री नजर आती है जो उन्मुक्त है, आजाद है, अपनी शर्तों पर जी रही है मगर यहाँ स्पष्ट करना जरूरी है कि ऐसा वर्ग मुश्किल से 2 या 3 प्रतिशत के दायरे में सिमट जाता है। ओलम्पिक में,अंतर्राष्ट्रीय प्रतिस्पर्धाओं में पुरस्कृत होकर लड़कियां आती हैं या जब किसी लड़की के द्वारा आई.ए.एस. परीक्षा में ऊँचा स्थान हासिल किया जाता है या कोई उल्लेखनीय सफलता हासिल की जाती है तो चारों ओर उसकी चर्चा होती है मगर जब ये चर्चा ठंडी पड़ती है तो फिर महिलाओं के हालात की असलियत मुँह उठाये सामने आ जाती है। एक रोचक तथ्य यह सामने आया कि जब सरकार ने बाघ बचाने के लिए जोर-शोर से कार्य करना शुरू किया तो एक दशक से भी कम समय में बाघों की संख्या दोगुनी से ज्यादा हो गयी  मगर कन्या भ्रूण हत्या पर नियंत्रण और इससे प्रभावित राज्यों में लिंगानुपात ठीक करने यानी बेटियाँ बचाने में  में हमें निराशा ही हाथ लगी।
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बेटी खतरे में क्यों है, इस बात की पड़ताल करें तभी तो हमें बेटी बचाओ अभियान में कामयाबी मिलेगी। देश के जिन हिस्सों में बेटियां पैदा होने से पहले मार दी जाती हैं या अगर वह पैदा हो भी गयीं तो एक अभिशाप की तरह सहन की जाती हैं, वहाँ ऐसा क्यों होता है यह विचारणीय है। उन समाजों में बेटियों के पैदा होने पर मातम इसलिए मनाया जाता है क्योंकि वहाँ की गलियों, सड़कों में बेटियां सुरक्षित नहीं हैं, उनकी शादी में बहुत सारा दहेज भी देना पड़ता है और ससुराल पक्ष का दबदबा शादी के बाद आजीवन बना रहता है। लड़की ने लीक से हटकर कुछ करने की सोची तो वह परिवार की मान मर्यादा के लिए खतरा मानी जाती है। ऐसे समाजों में ऑनर किलिंग होना कोई बड़ी बात नहीं समझी जाती, इसलिए लड़की घर में पैदा ही न हो तो अच्छा।

लेकिन समाज में संतुलन बनाने के वास्ते लड़कियों का पैदा होना जरूरी है इसलिए ये दूसरे के घर या दूसरे राज्य में पैदा हों तो बेहतर है। जैसा अभी हरियाणा के मुख्यमंत्री ने कश्मीर में धारा 370 और 35ए खत्म होने पर कहा कि अब हमारे नौजवान गोरी कश्मीरी लड़कियां ला सकेंगे। इस टिप्पणी पर जब विवाद हुआ तो मुख्यमंत्री महोदय ने सफाई देते हुए कहा, दरअसल हमारे राज्य में पुरुषों के मुकाबिले महिलाएँ कम हैं इसलिए मैंने मजाक में ऐसा कहा।

जहाँ तक कश्मीरी महिलाओं का सवाल है, 1990 से कश्मीर के जो हालात बिगड़े, उससे वहाँ की महिलाएं विशेष रूप से प्रभावित हुई हैं। युद्घ या अराजकता की स्थिति में जो वर्ग सबसे कमजोर होने के कारण आहत होता है वह है महिलाएं और बच्चे। कश्मीर के लोग एक तरफ पुलिस या सेना (जो अफस्पा जैसे कानून से लैस है) तो दूसरी तरफ उग्रवादियों के दो पाटों के बीच पिस रहे हैं, धरती का यह स्वर्ग आज मौत, बर्बादी और विध्वंस का पर्याय बन गया है। एक हिंदी फिल्म में डायलॉग था, ‘कश्मीर एक इंडस्ट्री है जिससे हर कोई फायदे में रहता है- सरकारें, मिलिटेंट या पाकिस्तान।’ पर इन तीनों के अलावा ऐसे कई लोग हैं जो इस बर्बादी के दौर में बहुत कुछ खो चुके हैं। ऐसे कई अध्ययन अब सामने आने लगे हैं जिनसे वहाँ की महिलाओं की बुरी दशा और वहाँ चल रहे खून खराबे से उन पर पड़ रहे कुप्रभावों का विस्तृत वर्णन मिलता है।
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युद्ध की शुरूआत कभी भी महिलाएं नहीं करती मगर युद्घ जैसी स्थिति में महिलाओं पर सबसे बुरी मार पड़ती है क्योंकि वे बच्चों को छोड़कर भाग भी नहीं सकतीं। युद्घ जैसी स्थिति में महिलाओं के प्रति होने वाले अपराधों बलात्कार, छेड़छाड़ जैसी घटनाएँ होती ही हैं। महिलाओं से बलात्कार के आरोप जहाँ मुख्य रूप से सेना पर लगे हैं तो कई बार ये आरोप उग्रवादियों पर भी लगाए गए हैं  मगर तीस साल से चल रहे अराजकता के इस दौर ने कश्मीर में कई अन्य किस्म की समस्याएँ भी खड़ी कर दी हैं। जब किसी महिला का पति मर जाता है तो उसे  विधवा कहा जाता है। कश्मीर में ऐसी हजारों महिलाएं है जिन्हें अर्ध विधवा कहा जाता है। क्योंकि यह स्पष्ट नहीं है कि उनके पति जीवित हैं या मृत। ऐसी अर्ध विधवाओं को आज अलग ही किस्म की समस्याओं का सामना करना पड़  रहा है। उनके पास उनके पति का मृत्यु प्रमाणपत्र नहीं है इसलिए उनको पेंशन या अन्य कोई मुआवजा नहीं मिल सकता। पति की सम्पति, बैंक में जमा राशि आदि भी उनके नाम ट्रान्सफर नहीं हो सकती क्योंकि इसके लिए मृत्यु प्रमाणपत्र की जरूरत होती है। पति के न होने से घर चलाने के लिए रोजगार करने और अन्य तमाम जिम्मेदारियां झेलने के लिए वे अकेली रह जाती हैं। एक पुरुष प्रधान समाज में इन महिलाओं का काम के लिए बाहर निकलना इनके प्रति संदेह को बढ़ाता है। रोजगार मिलना भी आसान नहीं होता। यह दबाव भी होता है कि वह दुबारा शादी कर ले मगर मौलवी इस पर अलग-अलग राय  देते हैं कि उनको कितने समय तक अपने पति का इंतजार करना चाहिए, अपने पति की जिंदगी या मौत के बारे में पता लगाने के लिए इधर-उधर सरकारी  दफ्तरों के चक्कर काटने, पारिवारिक सामाजिक, दबाव आदि से जो हताशा और निराशा जन्म लेती है, उसके कारण इन महिलाओं में  मानसिक अवसाद और अन्य मनोरोग होना स्वाभाविक है। ़इन मनोरोगों के इलाज के लिए जो दवाइयां दी जाती हैं, कई बार ये महिलाएं उनको नहीं लेती। क्योंकि इनके सेवन से नींद ज्यादा आती है और इन पर आरोप लगता है कि ये सोती रहती हैं घर और बच्चों का ख्याल नहीं करतीं।

तो हमारे मुल्क का वह हिस्सा  जहाँ से मुख्यमंत्री खट्टर हरियाणा के लड़कों के लिए गोरी बहुएँ लाने की बात कर रहे थे, वहाँ महिलाएं भय और संत्रास के परिवेश में जी रहीं है। सरकारों और उग्रवादियों के मध्य की लड़ाई में उनका जीवन असुरक्षित हो गया है। उनके घरों के आगे फौज के सिपाही पहरा दे रहे होते हैं और उनके परिवार के पुरुष सदस्य कभी भी गिरफ्तार हो सकते हैं या मारे जा सकते हैं।

हरियाणा और पंजाब देश के उन्नत राज्य होने के बावजूद कन्या भ्रूण हत्या के लिए कुख्यात हैं और ऑनर किलिंग भी यहाँ आम है। प्रधानमंत्री मोदी ने ‘बेटी बचाओ बेटी पढाओ’ अभियान की शुरूआत हरियाणा से ही की थी, तो मुख्यमंत्री महोदय धारा 370 और 35ए खत्म होने से लैंगिक अनुपात सुधारने का अवसर खुलने के भद्दे मजाक करने की बजाय अपने समाज के इस कलंक को कि वहां बेटियाँ मारी जा रही हैं, ठीक करने के लिए काम करते।
(Editorial july September 2019)

बरेली के विधायक राजेश मिश्र की लड़की साक्षी मिश्रा ने जब अपनी पसंद से शादी करने की सोची तो उसे पता था यह कदम वह घर में रह कर नहीं उठा सकती। उसने घर छोड़कर अपने मित्र के साथ शादी करने का निर्णय लिया मगर उसके पिता ने उसके पीछे अपने आदमी लगा दिए। लड़की से बेहतर अपने पिता को और कौन जान सकता था। उसे पूरा यकीन हो गया  कि उसके पिता ने उसे जान से मार डालने का इरादा बना लिया है, इसलिए उसने एक नायाब कदम उठाया। उसने अपने पिता को संबोधित एक वीडियो इन्टरनेट में डाल दिया जिसमें वह कह रही थी कि उसकी जान को खतरा है। वह कहती है, ‘पापा आप मुझे मरवा सकते हैं मगर अब इस वीडियो के जारी होने के बाद आप इसके परिणाम से नहीं बच पायेंगे। वह कहती है, जिससे वह शादी करना चाह रही है वह लड़का उसे पसंद है उसे बहलाया फुसलाया नहीं गया है।’

इसके बाद जहाँ मीडिया में उसे कुछ समर्थन मिला, वहीं दूसरी तरफ सोशल मीडिया में उस पर कई लांछन लगने लगे। उसे उपदेश दिए जाने लगे कि उसे अपने पिता की आज्ञा माननी चाहिए, उनके खिलाफ नहीं बोलना चाहिए। वहीं दूसरी तरफ कुछ लोगों ने कहा कि ऐसी बेटी को तो पैदा होते ही मार देना बेहतर होता। यह भी कहा गया कि लड़कियों की इस तरह की हरकतों को देखते हुए ‘बेटी बचाओ बेटी पढाओ’ की बात कौन करना चाहेगा आदि आदि।

हम जानते हैं कि 99 प्रतिशत अपराधों (चोरी, डकैती, लूटपाट, हत्या, बलात्कार, आतंकवाद आदि) में पुरुषों का हाथ होता है तमाम किस्म के उपद्रवों, अराजकता और मॉब लिंचिंग में पुरुष ही संलिप्त होते हैं मगर बेटे के पैदा होने पर मातम नहीं मनाया जाता। एक लड़की का अपने ढंग से जीने का सपना देखना हायतौबा का कारण बन जाता है। मगर जब घर में किसी बेटी की राय का कोई मतलब ही न हो, उसे वही करना पड़े जो परिवार की आन-बान-शान के लिए अपेक्षित हो और विरोध करने पर मार-पिटाई ही नहीं, बल्कि जान जाने का भी खतरा हो तो कोई लड़की सोच-समझकर पूरी निष्ठा से कुछ करना चाहे मगर उसकी सुनने वाला कोई न हो तो बेटी घर न छोड़े तो क्या करे?

एक पिछड़े समाज में जहाँ सामंतवादी मानसिकता लोकतांत्रिक संस्थाओं (पुलिस, मीडिया, न्यायालय आदि) पर हावी है, हिन्दुस्तान टाइम्स के एक सर्वे के अनुसार हिन्दी भाषी क्षेत्र के राज्य महिला सशक्तीकरण के मामले में सबसे फिसड्डी हैं। ये क्षेत्र महिलाओं के खिलाफ होने वाले हर किस्म के अपराधों में कुख्यात हैं लेकिन इस बीच उत्पीड़न की शिकार कुछ महिलाओं ने महा ताकतवर अपराधियों से टकराने की हिम्मत दिखाई। उन्नाव के एक बीजेपी विधायक कुलदीप सिंह सैंगर ने एक युवती से दुव्र्यवहार किया। जब उसके पिता ने इसकी शिकायत मुख्यमंत्री से करनी चाही तो उनकी सुनी नहीं गयी। पीड़िता ने मुख्यमंत्री आवास के सामने आत्मदाह करना चाहा। इसके कुछ ही समय बाद लड़की के पिता की पुलिस हिरासत में मौत हो गयी। इसके बाद मीडिया का ध्यान इस मामले की तरफ गया मगर फिर भी पुलिस एफ.आई.आर. करने से कतराती रही। जब इसके खिलाफ देशभर से आवाजें उठीं तो पुलिस को एफ.आई.आर. दर्ज करनी पड़ी मगर मामले की जांच में सुस्ती बरकरार रही। इस बीच दुराचार की शिकार युवती ने सर्वोच्च न्यायालय को एक पत्र लिखकर कहा कि उसके परिवार को धमकियां मिल रही हैं और उसकी जान को खतरा है मगर कोई कार्रवाई नहीं हुई और ठीक इसी दौरान जब वह अपने एक परिजन और वकील के साथ घर लौट रही थी तो उसके वाहन में एक ट्रक द्वारा टक्कर मार दी गयी। इसमें उसके दो परिजनों की मौत हो गयी और उसे और उसके वकील को गंभीर हालत में लखनऊ  मेडिकल कालेज और बाद में एम्स नयी दिल्ली लाया गया जहाँ वह जिन्दगी और मौत के बीच झूल रही है।
(Editorial july September 2019)

इसी उत्तर प्रदेश में एक लड़की ने स्वामी चिन्मयानन्द पर जो केन्द्र सरकार के पूर्व में मंत्री रह चुके हैं और राजनीतिक हलकों में काफी रसूखदार माने जाते हैं, यौन शोषण का आरोप लगाया और यह भी कहा कि स्वामी से उसकी जान को खतरा है। वहस्वयं  भूमिगत हो गयी। बाद में सुप्रीम कोर्ट ने मामले में रुचि ली और लड़की के सामने आने पर उसे पुलिस सुरक्षा मुहैय्या कराई गयी मगर शाहजहांपुर पुलिस द्वारा मामले की प्रथम सूचना रिपोर्ट को सही तरह से लिखने में आनाकानी की जाती रही। अत: मामले को न्यायालय के दखल के बाद दिल्ली ले जाया गया और एफ.आई.आर. दिल्ली में दर्ज की गयी। अब दोनों ही मामलों में जाँच के लिए विशेष जाँच दल का गठन किया गया है।

चाहे उन्नाव की पीड़िता का मामला हो या शाहजहांपुर की युवती का सुप्रीम कोर्ट की दखल के बाद पुलिस प्रशासन हरकत में  आने का, मगर क्या  सुप्रीम कोर्ट पूरे समाज के एक-एक मामले में पुलिस प्रशासन को दुरुस्त करने को दखल देगा तो यह तो ही नहीं।  समाज, पुलिस प्रशासन, न्यायालय और एक बड़े तबके के नजरिए में बदलाव किये बगैर क्या हम बेटियों के लिए एक अच्छा समाज बना सकते हैं। फिलहाल तो ऐसा नजर नहीं आता। इसलिए इस तरह की घटनाएँ बताती हैं कि मुख्यधारा के हिन्दुस्तान में बेटी को बचाना कितना कठिन है। वह चुपचाप, बगैर कोई विरोध किये जीना चाहे तो उसे ऐसा करने की पूरी आजादी है मगर वह समाज की बुराइयों के खिलाफ मुंह खोलना चाहे तो उसे पूरे समाज, पूरी व्यवस्था से जूझना पड़ता है। इसलिए वे महिलाएं, वे लड़कियां जो रीति और नीति के खिलाफ खड़े होने का जोखिम उठाती हैं, उनको सलाम।
(Editorial july September 2019)

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