काश एक बार

Tribute to Dr. Madhu Joshi
फोटो: अशोक पांडे

-पूरन जोशी

अठारह अक्तूबर की सुबह प्रो. अनिल जोशी जी की फेसबुक वाल पर पढ़ा मधु जोशी नहीं रहीं। फिर प्रो हामिद की वाल पर भी वही समाचार था। मन जाने कैसा-कैसा हो गया। मधु जोशी उन नामों में से था जिनके लिए मन में आदर और स्नेह स्वत: उमड़ आता था। मुझे न तो उनसे पढ़ने का मौका मिला और न ही मैं उनका हमउम्र था लेकिन फिर भी मधु मैडम से एक अपनापन जैसा लगता था। मैं हमेशा ही चाहता था उनसे बात करूँ और अंग्रेजी साहित्य पर कुछ बात करूँ लेकिन वक्त को ये मंजूर नहीं था।
(Tribute to Dr. Madhu Joshi)

यह 2005 के जुलाई महीने के आखिरी दिन थे। मैंने उन्हीं दिनों एम.ए. भूगोल में प्रवेश लिया था। मैं उन दिनों तल्लीताल रहता था। कालेज से वापस जाते समय तल्लीताल बाजार में झक्क सफेद कपड़ों में एक महिला किसी दुकान से कुछ खरीद रही थीं। आँखों पर मोटा चश्मा चढ़ाये, बहुत धीमे शब्दों में वह दुकानदार से बात कर रही थीं। इस तरह किसी को इतनी देर तक देखना अशोभनीय है लेकिन उनका वो व्यक्तित्व मुझे बार-बार देखने का आग्रह कर रहा था।

मैं इस घटना को भूल गया था तभी एक रोज, करीब दस पन्द्रह दिन बाद उन्हीं महिला को मैंने लंघम होस्टल से ऊपर कालेज को जाते हुए देखा। वह बहुत धीरे चल रही थीं। उनको देखकर मैंने भी अपनी गति धीमे कर दी। तब से ये अक्सर की बात हो गई। मैं उनको देखता रहता। फिर ये सिलसिला नमस्ते तक आ गया। वे उसी धीमे अंदाज में नमस्कार का जवाब देतीं। उनकी नजर सिर्फ रास्ते पर रहती।

कुछ दिन बाद कला संकाय के दुमंजले में जाने का अवसर मिला तो पता लगा कि उन महिला का नाम डॉ. मधु जोशी हैं और वह अंग्रेजी विभाग में प्राध्यापक हैं।  अब उनको जानने-समझने की और इच्छा होने लगी क्योंकि ग्रेजुएशन के समय अंग्रेजी साहित्य मैंने पढ़ा था और साहित्य में रुचि भी थी। इसके बाद पूरे साल उनको हम देखते रहते उनके पहनने, चलने और बात करने के अंदाज को सराहते जाते। इसी साल मेरा उत्तरा से परिचय हुआ। नैनीताल जू के नीचे जिस घर में मैं रहता था वहाँ मुझे एक उत्तरा का बहुत पुराना अंक मिला। इसमें मैंने मधु जोशी का नाम देखा। उनके लिए मन में सम्मान और बढ़ गया। इसी बीच शीला रजवार दीदी से मिलने का भी मौका मिला। उनसे उत्तरा को लेकर बात होती रहती। इसी तरह पूरा सत्र निकल गया और थोड़ा पढ़ने में व्यस्त हो गये। कुछ निजी समस्याओं के कारण प्रथम वर्ष के बाद स्नातकोत्तर का दूसरा साल मैंने रानीखेत से किया। कुछ वक्त के लिए मैं मधु मैम को भूल सा गया।

अगले साल जुलाई में मैंने शोध कार्य के लिए फिर से ड. एस.बी. में प्रवेश किया। मधु मैम फिर दिखने लगीं। इस दौरान उनको और जानने-समझने का मौका मिला। शोध में नामांकन के कारण साहित्यिक कार्यक्रमों में भी उनको देखने का अवसर मिलता। उनसे कभी-कभार बात भी हो जाती। मुझे वह पूरा दिन बहुत खुशनुमा लगता जिस दिन उनसे दो मिनट धूप में खड़े होकर बात हो जाती।

अगले साल हिन्दी विभाग में प्रेम चंद जयंती के मौके पर एक चर्चा आयोजित हुई जिसमें प्रेमचंद की कहानियों पर बात हुई। यहाँ पर प्रो उमा भट्ट, मधुबाला नयाल मैडम, प्रो. अनिल जोशी आदि ने बात रखी।  हम उन दिनों नये ही थे लेकिन मंच खुला होने के कारण मैंने भी कुछ बोला। उस आयोजन में मधु मैडम नहीं थीं लेकिन बाद में इस पर चर्चा हुई तो किसी ने मेरा नाम लेकर भी कहा कि मैंने ठीक बोला। मधु मैडम दूसरे दिन सुबह-सुबह ही भूगोल विभाग में प्रो रविन्द्र पांडे जी के कक्ष में, जो उन दिनों हमारी प्रयोगशाला हुआ करता था, मुझसे मिलने आयीं और पूछा, पूरन तुमने कल क्या बोला प्रेमचंद जयन्ती के आयोजन में? मुझे बड़ा आश्चर्य मिश्रित खुशी हुई कि मधु मैडम ने मुझसे खुद आकर पूछा। मुझे वह मुलायम आवाज अभी तक याद है।
(Tribute to Dr. Madhu Joshi)

उसके बाद उनसे अक्सर बात होती। फिर पी.एच.डी. पूरी करने के बाद मैंने नैनीताल छोड़ दिया। इस बीच उत्तरा में, मैं भी कभी-कभी लिखने लगा और मुझे मधु मैडम के लेखों का बहुत बेसबरी से इंतजार रहता। इस बीच उनके जाने के बाद फिर से उन लेखों को खोल के बैठा हूँ। एक-एक लेख को पलट-पलट कर देखा है। यूं तो उन्होने बहुत कुछ लिखा लेकिन अगर उनके कुछ लेखों को देखूँ तो मुझे उनकी पुस्तक समीक्षाएं बहुत प्यारी लगती हैं। पूरी पुस्तक न भी पढ़ पाऊँ तो भी लगता है जैसे पुस्तक पूरी पढ़ ली हो।

ब्रेख्त के नाटक मदर कराइज एंड हर चिल्ड्रेन जिसका हिन्दी अनुवाद हिम्मत माई नाम से है, यह समीक्षा  हिम्मत माई नाम से ही उत्तरा में अक्तूबर – दिसंबर 2007 के अंक में छपी थी। फ्रेंच लेखक ग्युस्ताव फ्लवर के उपन्यास मदाम बोवरी के विषय में मधु मैडम ने, एक पथ भ्रष्ट नायिका : एमा बोवरी, लेख लिखा जो उत्तरा में ही जुलाई-सितंबर 2007 में प्रकाशित हुआ। इसी को पढ़कर मैं केतन मेहता की फिल्म माया मेमसाहब देखने को प्रेरित हुआ। 2007, जनवरी-मार्च के अंक में सुन शुयून की पुस्तक टेन थाउजैन्ड माइल्स विदाउट अ क्लाउडकी समीक्षा बिन बादल डीएस हजार मील की उड़ान शीर्षक से लिखी।
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उनके कुछ महत्वपूर्ण लेख हैं, विद्रोहिणी की आत्मकथा जो इस्मत चुगताई पर केन्द्रित है। यह लेख 2008, जुलाई – सितंबर के अंक में छपा था। एक अन्य लेख पंडिता रमा बाई सरस्वती है जो अप्रैल-जून 2008 के अंक में आया था। 2016 में प्रकाशित लेख इन लड़कियों में आशा शक्ति है, 2016 का ही मुंबई कि आटो चालक महिलाओं पर लिखा लिखा लेख पहियों पर सवार दो प्रगतिशील परिवर्तन, दोनों ही स्त्री विमर्श को ऊंचे स्वर देते है। 2015 में माया अंजेलो पर बेस्ड मुझे मालूम है पिजड़े में बंद चिड़िया क्यों गाती है माया के काम को जीवन को समझने में मदद करता है। उनका एक नाव की यात्री लेख प्रेम चंद और उनकी पत्नी शिवरानी के दांपत्य जीवन के विषय में दृष्टि डालता है।

मुझे ऐसा लगता है मानव दो कारणों से जाना जाता है व्यक्तित्व और कृतित्व। प्रो मधु इन दोनों ही आयामों में खरी थीं यद्यपि उनके लिए ‘थीं’ लिखने में की पैड पर उँगलियाँ बहुत मुश्किल से से चल पा रही हैं।  अंग्रेजी साहित्य के उनके विद्यार्थी उनकी तारीफ करते नहीं थकते थे। जहां हम लोगों को एक छोटा सा लेख लिखने के लिए कितना वक्त लगता है, वे उत्तरा के लिए ताउम्र लिखती रहीं और जो भी लिखा वह बेहद अर्थपूर्ण लिखा।

दो तीन साल पहले वे मुझे एक दिन वे नैनीताल मलरोड में घूमते हुए मिल गईं। मैंने उनसे सबके बारे में पूछा उन्होंने बताया कि वे वी.आर.एस. ले चुकी हैं। मुझे बहुत अजीब लगा। करीब बीस मिनट वहीं लाइब्रेरी के पास खड़े होकर बात हुई। उन्होंने पूछा क्या कर रहे हो? बहुत खुश हुईं थीं वो जानकार कि मैं छोटे बच्चों के साथ काम कर रहा हूँ। कहने लगीं कभी मुझे भी बताना अगर किसी बच्चे को कोई जरूरत हुई तो। मैं मदद करूंगी। काश मैंने वह बीस मिनट बढ़ा लिए होते।
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काश उनके साथ और वक्त बिता पाता लेकिन जो चाहो वो कहाँ मिलता है! कुछ काश सिर्फ काश ही रह जाते हैं। अभी लग रहा है जैसे कला संकाय में वह मुलायम स्वर फिर सुनाई देगा, नैनीताल मलरोड में झक्क सफेद कपड़े पहने वह खूबसूरत महिला फिर नजर आएँगी या तल्लीताल बाजार में धीमे स्वरों में किसी चीज के दाम फिर पूछेंगी। मैं फिर उनके साथ कालेज तक जाऊंगा और उनको नमस्ते कहूँगा। आप ऐसे नहीं जा सकते हो मधु मैम मुझे आपको बताना था हम सब आपको कितना चाहते थे! कितनी और बातें करनी थीं!
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