द सेम ओल्ड स्टोरी : उपन्यास अंश

नवीन जोशी
मई 1977। एक छोटे-से पर्चे ने पुष्कर का रास्ता बदल दिया।
बी.एससी. प्रथम वर्ष की परीक्षा देकर पुष्कर हर वर्ष की तरह लखनऊ से माँ के पास जाने के लिए निकला, मगर हलद्वानी से बागेश्वर की बस पकड़ने की बजाय नैनीताल की बस में बैठ गया था। हुआ यूं कि हलद्वानी रेलवे स्टेशन से बस अड्डे की तरपफ जाते हुए उसकी नजर जगह-जगह चिपके पोस्टरों पर पड़ी जिनमें पहाड़ की दुर्दशा का हवाला देकर चुनाव के औचित्य पर ही सवाल उठाए गए थे।
जून 1975 में इंदिरा गाँधी ने देश पर जो क्रूर आपातकाल थोपा था, दमन व अत्याचार के 18 महीनों बाद वह उठा लिया गया और मार्च 1977 में लोकसभा के चुनाव कराए गए थे, जिसमें कांग्रेस इंद्रा को मुंह की खानी पड़ी थी। भारतीय जनता ने इंदिरा गांधी को आपातकाल का बहुत सही जवाब दिया। खुद इंदिरा गांधी चुनाव हार गई थीं और उत्तर भारत से उनकी पार्टी का सूपड़ा साफ हो गया था।
पर्वतीय युवा मोर्चा के एक पोस्टर में पुष्कर ने पढ़ा। ‘मार्च 1977 में लोगों ने कहा कि देश में परिवर्तन हुआ। हमने समझा पहाड़ में भी परिवर्तन हुआ। परन्तु चुनाव की घोषणा होते ही बाजार में नए-नए लोगों को देखा… जेल जाने वालों को पीछे, जेल भिजवाने वालों को आगे देखा। चिपको आंदोलन, विश्वविद्यालय आंदोलन, बदरीनाथ बचाओ आंदोलन, टिहरी बचाओ आंदोलन और पहाड़ बचाओ आंदोलन में जिनकी रूह तक कहीं नहीं थी, वही आज चुनाव टिकटों की लिस्ट में हैं….’
पर्चा आगे कह रहा था कि पहाड़ की जनता को नहीं लगता कि ऐसे नेताओं के हाथों पहाड़ का कुछ भला होगा। उत्तराखण्ड को उत्तर प्रदेश के नेताओं ने शोषण की क्रीड़ास्थली बना दिया है। पहाड़ी जनता के वोट लेकर लखनऊ में सत्ता-सुख लूटने वाले ये नेता फिर अगले चुनाव तक पहाड़ों का रुख नहीं करते। पहाड़ के दूर-दराज क्षेत्रों की सीधी-सादी जनता को तो यह भी पता नहीं कि एम.एल.ए., एम.पी. होता क्या है। पहाड़ उजड़ते जा रहे हैं और उसकी कीमत पर मैदानों में नेता और बिचैलिए मौज कर रहे हैं। दिल्ली-लखनऊ और बड़े उद्योगों को बिजली देने के लिए टिहरी बांध बनाया जा रहा है, जिसके लिए हजारों पहाड़वासियों को उनकी पुश्तैनी जमीन पर बसे घरों से उजाड़ा जा रहा है। यह कैसा विकास है? यह कैसा बदलाव है? पहाड़ के लिए कुछ भी नहीं बदला है। इसलिए हम इन चुनावों का बहिष्कार करते हैं।
(The Same Old Story by Naveen Joshi)
पुष्कर के मन में काफी समय से उठ रहे सवालों को जैसे कोई आवाज मिलने लगी। पर्चा पढ़ते-पढ़ते वह रोमांचित हो गया।
उन्हीं पोस्टरों के बीच एक छोटे पर्चे में इतवार की दोपहर नैनीताल बस अड्डे पर सभा होने का जिक्र था।
‘आज ही तो है यह सभा!’ दिन-तारीख देखकर पुष्कर ने खुद से कहा और वह किसी जोरदार आकर्षण से खिंचा नैनीताल की बस में बैठ गया। हालांकि लखनऊ में बाबू ने कहा था कि तुम्हारी माँ की तबीयत ठीक नहीं चल रही है। गाँव जाकर जल्दी से कहीं उसके इलाज की व्यवस्था तुम्हें करनी होगी।
बस ने अलमोड़ा की सड़क छोड़कर नैनीताल का तीखा मोड़ पकड़ा तो पुष्कर को लगा जैसे उसके जीवन में भी एक नया मोड़, नया रास्ता आ गया है। इतने वर्षों से, पाँच-छह वर्ष की उम्र से आज तक वह सिर्फ एक ही सड़क पर आया-गया है। लखनऊ से हलद्वानी तक ट्रेन; फिर हलद्वानी से बागेश्वर की बस और अगली सुबह बागेश्वर से गाँव की सड़क और इसी तरह वापसी। इसके अलावा कभी, कहीं इधर-उधर नहीं। ज्योलीकोट से कुछ ऊपर जाकर नैनीताल की सड़क अलग होती है। बस की खिड़की से बाबू उसे दिखाते थे। वो, ऊपर है नैनीताल। आज वह पहली बार एक बंधे-बंधाए रास्ते से अलग जा रहा है। नैनीताल भी पहली बार देखेगा।
नैनीताल में बूंदाबांदी हो रही थी, हालांकि नीचे हलद्वानी में खूब खुला मौसम था। पुष्कर बस से उतरा और हाथ में अपनी अटैची पकड़े भीगने से बचने के लिए बस स्टेशन के एक कोने में खड़ा हो गया। कुलियों और होटलों के एजेंटों ने उसे घेर लिया पर वह सामने फैली नैनी झील के विस्तार को एकटक घूरे जा रहा था। तस्वीरों में देखा था, पत्रिकाओं में इसके बारे में पढ़ा था, मगर साक्षात् होते ही वह झील के विस्तार और प्राकृतिक सौंदर्य से विस्मित व मुग्ध हो गया।
बारिश थम गई थी, लेकिन बस अड्डे के आस-पास सभा होने के संकेत भी नहीं थे। ताल की रेलिंग से हटकर वह बस अड्डे के बगल में चाय की दुकान में चला गया।
‘‘आज यहाँ कोई सभा होने वाली थी ?’’ चाय का गरम गिलास पकड़ते हुए पुष्कर ने दुकानदार से पूछा।
‘‘मीटिंग ?’’ दुकानदार ने जवाबी सवाल किया। फिर बोला, ‘‘मीटिंग तो यहाँ होती ही रहती है, साब। अभी आ जाएंगे आठ-दस लड़के, हाथ में लाउडस्पीकर लेकर। हो गई मीटिंग। वैसे भी यह चुनाव का बखत ठहरा, मीटिंग होती रहती है…’’
पुष्कर ने चाय आधी पी होगी कि उसे सामने, ताल की रेलिंग के निकट आठ-दस युवक दिखाई दिए। एक के हाथ में मेगाफोन था। कुछ लोग बैनर के कपडे़ की तहें खोल रहे थे। उन्हीं लोगों के बीच दाढ़ी वाले एक आदमी को देखकर पुष्कर चैंका। ‘अरे, यह तो गिर्दा हैं!’ करीने से खत बनी घनी-काली दाढ़ी। सिर पर टोपी। तीखे नाक-नक्श, कंधे पर झोला। उसे पहचानने में गलती नहीं हो सकती।
आकाशवाणी लखनऊ के उत्तरायण कार्यक्रम की कवि-गोष्ठियों में पुष्कर ने गिर्दा की कविताएं सुनी थीं। पिछले साल वसंत कवि-गोष्ठी में तो गिर्दा ने समां बांध दिया था। ‘हुलरी ऐगे बसंत की परी, फोकीगो जां-तां रंग ¯पहलो…।’ जितनी सुन्दर शब्द-रचना, उससे भी सुंदर गला। फरमाइश पर फरमाइश होती गई थी। निश्चित समय खत्म हो जाने के बाद भी देर तक गोष्ठी चलती रही। तब उसने गिर्दा से हाथ भी मिलाया था।
(The Same Old Story by Naveen Joshi)
जल्दी-जल्दी चाय सुड़ककर वह गिर्दा के पास चला गया। ‘‘गिर्दा, नमस्कार!’’
‘‘नमस्कार, भुला। माफ करना, मगर मैंने पहचाना नहीं।’’
‘‘लखनऊ में उत्तरायण की गोष्ठी में सुना था आपको।’’
‘‘अच्छा-अच्छा। तो लखनऊ से आ रहे हैं। नैनीताल घूमने ?’’
‘‘नहीं! गाँव जा रहा था। सुबह हलद्वानी में पोस्टर देखे तो चला आया। यहाँ सभा होनी थी ना?’’
‘‘हाँ, सभा होगी फिर…। तो पोस्टर पढ़कर आए आप! बहुत सुन्दर। अरे राधा, गिरीश, चंदर!’’ उसने कुछ दूर खड़े लड़कों को आवाज दी। ‘‘अरे भई, इनसे तो मिलो। क्या नाम, भुला ?’’
‘‘पुष्कर। पुष्कर तिवाड़ी।’’
‘‘ये लखनऊ वाले पुष्कर तिवाड़ी हुए। गाँव जा रहे थे कि हलद्वानी में आपके पोस्टर पढ़कर यहाँ चले आए। लोग साथ आते गए और कारवां बनता गया।’’
गिर्दा बहुत उत्साहित हो गए। उन्होंने बारी-बारी सभी साथियों से परिचय कराया। पुष्कर से लखनऊ और गाँव के बारे में पूछा, घर-परिवार के बारे में। उनका व्यवहार और बोलना इतना मोहिला था कि पुष्कर गदगद हो गया। गिर्दा उसे चाय की दुकान में ले गए। चाय के साथ बन-आमलेट खिलाया तब तक ताल की रेलिंग के किनारे छोटा-सा मंच बन गया था। ‘चुनाव बहिष्कार’ के बैनर लग गये थे।
और तभी गिर्दा ने अपने झोले से निकालकर हुड़का बजाना शुरू कर दिया। बुम-बुह्म-बुम-बुम…..। आती-जाती बसों, टैक्सियों के शोर और पर्यटकों की चहल-पहल से भरे बस स्टेशन के माहौल में हुड़के को तरंगित करने वाले बोल गूँजने लगे। बुम-बुह्म-बुम। अद्भुत है पहाड़ का यह लोक वाद्य। शंकर के डमरू का सीधा अवतार-सा। गजब हैं इसकी तालें और तरंगें। गिर्दा का सधा हाथ हुड़के के पूड़े पर पड़ रहा है। कंधे पर फंसाए उसके फीते के खिचाव और डोरियों पर बाएं हाथ के दबाव से पूड़े का तनाव कम-ज्यादा होता है और दाएं हाथ की थाप के बोल बदल जाते हैं। अद्भुत स्वर निकल रहे हैं। हुड़का अब द्रुत लय से बजने लगा है।
(The Same Old Story by Naveen Joshi)
हुड़के के बोलों ने पर्यटकों से लेकर स्थानीय लोगों तक का ध्यान खींच लिया है। धीरे-धीरे वहाँ भीड़ जुटने लगी है। हुड़का बज रहा है और लोग आ रहे हैं। हुड़का बुला रहा है और पर्यटक उत्सुकता से खिचे आ रहे हैं। हुड़का बोल रहा है और स्थानीय नागरिक सुनने को करीब आते जा रहे हैं। हुड़का गूंज रहा है और माहौल में रोमांचक तरंगे उठ रही हैं। पाँच मिनट में वहाँ अच्छी खासी भीड़ जुट गई। देखकर पुष्कर रोमांचित हो गया। थोड़ी देर पहले वहाँ सभा होने का कोई संकेत नहीं था। कोई माइक नहीं, कोई घोषणा नहीं, कोई प्रचार नहीं। हुड़का बजा, उसके बोल गूंजे और सभा जुट गई। कितना आकर्षण है इस वाद्य में।
‘‘नैनीताल घूमने आए पर्यटको और स्थानीय नागरिको!’’ हुड़का चुप हुआ तो छोटी मेज पर खड़े शंभू ने हाथ में पकड़े मेगाफोन से अपनी बात शुरू की। ‘‘न तो हम किसी राजनीतिक दल के लोग हैं और न किसी के लिए वोट मांगने आए हैं। हम पहाड़ के युवक हैं और इस पहाड़ की, यहाँ के आम लोगों की ही बात आपके सामने रखना चाहते हैं। हमारी पीड़ा है कि हमारे पहाड़ की पीड़ा को किसी राजनीतिक दल ने नहीं समझा। वे सिर्फ वोट मांगने आते रहे और जीतने के बाद वोट देने वालों को भूलते रहे। इसलिए चाहे किसी भी दल की सरकार आई, चाहे पहाड़ ही के नेता मुख्यमंत्री बने, मगर पहाड़ का विकास नहीं हुआ। नैनीताल पहाड़ का असली चेहरा नहीं। मसूरी भी पहाड़ नहीं है। पहाड़ है उन हजारों गाँवों में जहाँ स्कूल हैं तो अध्यापक नहीं, अस्पताल की बिल्डिंग है तो डाक्टर-कंपाउंडर नहीं। जहाँ माँ-बहनों को लकड़ी-पानी-घास के लिए मीलों कठिन जंगलों में भटकना पड़ता है और कई बार जान तक गंवानी पड़ती है। पहाड़ सिर्फ मैदानों को फौजी और घरेलू नौकर सप्लाई करने वाला इलाका माना जाता है। इसलिए अब हम इन राजनीतिक दलों से पूछना चाहते हैं कि पहाड़ के लिए उन्होंने क्या किया। वे किस मुँह से यहाँ वोट माँगने आ रहे हैं। जब भी चुनाव होते हैं ऐसे लोग टिकट पाकर वोट माँगने आ जाते हैं जिन्होंने पहाड़ और पहाड़ियों के जीवन-संघर्षों में कभी हिस्सेदारी नहीं की। इसलिए भाइयो-बहनो, इस बार हम ऐसे लोगों केा वोट देने नहीं जा रहे। हमारा नारा है। चुनाव बहिष्कार।’’
उसके बाद छोटे-छोटे भाषण राधा, सीपी, कमला और चंदर ने भी दिए। कोई बड़बोले राजनीतिक भाषण नहीं थे। सीधी-सरल-सच्ची बातें, जो पहाड़ की जनता के जीवन से जुड़ी थीं, जो उनके दर्द थे, जो उनकी समस्याएं थीं, जिनसे वे रोज जूझते थे लेकिन जिनकी कहीं सुनवाई नहीं होती थी।
तल्लीताल बस अड्डे की सभा खत्म हुई तो मध्य माल रोड में दूसरी सभा जुट गई। वही लड़के-लड़कियाँ, वही छोटी मेज, वही बैनर और मेगाफोन। माल रोड में कमोबेश वही बातें दोहराने के बाद यह ‘मोबाइल मंच’ मल्लीताल रिक्शा स्टैंड जा पहुँजा। डेढ़-दो घंटे में तीन जगह सभा हो गई। कुछ लोग सभा सुनने आए और कुछ जगह खुद सभा जनता को अपनी बात सुनाने गई।
(The Same Old Story by Naveen Joshi)
‘‘तो रात तेरे ठहरने का क्या है, पुष्कर?’’ गिर्दा ने प्रेस से बाहर आते हुए पुष्कर के कंधे पर हाथ रखकर पूछा, तब पुष्कर का इस ओर ध्यान गया। नैनीताल तो उसके लिए बिल्कुल अपरिचित जगह है। सुबह अचानक यहाँ चला आया था और तब से इस बारे में सोचने का अवसर ही नहीं आया।
‘‘रहने का तो कुछ सोचा नहीं, गिर्दा। मैं तो बस एकाएक ही चला आया था।’’
‘‘तो हो जाएगा। बड़ी भारी समस्या नहीं है रात काटना। चल, ऊपर ही चलते हैं कमरे में।’’ शंभु और चंद्रशेखर प्रेस में ठहरने वाले थे। आने-जाने वाले साथियों के लिए दो बिस्तर राधाबल्लभ ने प्रेस में ही डलवा रखे थे। कमला रेखा के साथ जा रही थी। साथियों से सुबह बस अड्डे पर मिलने का समय तय करके गिर्दा और पुष्कर मल्लीताल को चले गए।
वह रात पुष्कर कभी नहीं भुला पाता। वैसी रातें बाद में और भी आईं। गिर्दा के साथ उस कमरे में वह बहुत बार रहा, लेकिन वह पहली रात उसके दिमाग में हमेशा ताजा रहती है। मल्लीताल रिक्शा स्टैंड के पास एक रेस्त्रां के पीछे की छोटी-सी अंधेरी कोठरी। एक तरफ की दीवार पर, नाले की ओर खुलती खिड़की। दरवाजे से लगा चूल्हे का कोना-यानी रसोई। जरूरत-भर के बर्तन और लकड़ियाँ। उससे कुछ पहले, पतले से गलियारे में तंग बाथरूम। कमरे में दो झूलानुमा चारपाइयों पर बेतरतीब बिस्तर और दो दीवारों के कोने में बंधी रस्सी पर झूलते कपड़े।
‘‘तो यह रहा साहब, हमारा आशियाना!’’ गिर्दा ने कंधे का झोला खूंटी पर टांगते हुए कहा। ‘‘आप जैसे आराम होता हो, वैसे बैठ जाओ या लेट जाओ। मैं चाय मंगाता हूँ।’’
पुष्कर चारपाई पर बैठ गया। झूला चारपाई और भी झूल गई। ढाबे का लड़का चाय के साथ पकौड़ी की प्लेट भी रख गया। पुष्कर को भूख लग रही थी। चाय के साथ पकौड़ियाँ बहुत स्वादिष्ट लगीं। कमरे की अकेली खिड़की से, जो अभी तक बाहर से उजाला ला रही थी, शाम के साथ रात भी दाखिल हो गई। पहाड़ों में सूरज ढला नहीं कि रात उतर जाती है। जिसे शाम कहते हैं, वह समय के हिसाब से भले आती-जाती हो, अंधेरे-उजाले के अनुपात से वह लगती रात ही है। गिर्दा ने बटन दबाया तो एक पीला-सा बल्ब कमरे को मद्धिम रोशन कर गया। बाहर जगमग हो गई थी। सजी-धजी दुकानों में जगमगाते बिजली के लट्टुओं और ताल में झिलमिलाती उनकी रंगबिरंगी रोशनियों से रात का नैनीताल और भी खिल उठता है।
(The Same Old Story by Naveen Joshi)
‘‘तो गुरू, कैसी रही मीटिंग?’’ कहता हुआ एक आदमी तभी कमरे में दाखिल हुआ। पुष्कर को देखकर उसने हाथ जोड़ने के साथ ही नमस्कार कहा और कंधे पर लटका रस्सा एक खूंटी पर टांग दिया।
‘‘आइए।’’ गिर्दा ने परिचय कराया। ‘‘ये है पुष्कर, लखनऊ से आया है। और ये हैं हमारे खष्टीदा। क्या कहते हैं आप अंग्रेजी में, रूम पार्टनर हमारे।’’
मेहनती, गठा शरीर। सिर पर टोपी। सामान्य कपड़े। देखने से ही मालूम हो गया कि वे दिन-भर सैलानियों का सामान ढोने का हाड़तोड़ काम करके थके-हारे लौटे हैं।
‘‘कैसा रहा, खष्टीदा, आज आपका दिन?’’ गिर्दा ने प्यार से पूछा।
‘‘बढ़िया।’’ उन्होंने फट से कहा और कमरे के बीच खड़े-खड़े अपने कपड़े झाड़े। टोपी उतारी और हाथ-मुँह धोने चले गए। लौटकर तत्काल वे रसोईवाले कोने में बैठ गए। चूल्हे में लकड़ियाँ जल गईं और कमरे में धुंआ भर गया।
‘‘पुष्कर भी खाएगा दो रोटी, खष्टीदा, हाँ!’’ गिर्दा ने कहा, ‘‘कुछ साग-हाग है?’’
‘‘दिन की रसदार बड़ी रखी है गुरू और भिंडी भी लाया हूँ।’’ खष्टीदा की आवाज बड़ी खनखनाती हुई थी। उनके हाव-भाव या आवाज में कहीं थकान नहीं थी। रसोई में पूरी तन्मयता से काम करते हुए वे गुनगुनाने भी लगते थे।
गिर्दा कपड़े बदलकर चारपाई पर अधलेटे हो गए। पैरों पर रजाई डालकर वह पूरी तन्मयता से बीड़ी पीने लगे। खष्टीदा सब्जी पकाकर और आटा गूंथकर रख देने के बाद कमरे के बीचोंबीच बोरे के मोटे टुकड़े पर आ बैठे।
‘‘तो पुष्कर बाबू लखनऊ में रहते हैं।’’ उन्होंने बात शुरू करने की भूमिका के तौर पर कहा।
‘‘आप अपना कार्यक्रम शुरू करें। भूमिका की यहाँ कोई जरूरत नहीं।’’ गिर्दा ने टोका।
पुष्कर की समझ में कुछ नहीं आया। मगर तभी खष्टीदा उठे। एक लोटे में पानी, एक गिलास और खूंटी में टंगी जैकेट की जेब से एक पव्वा निकालकर वे फिर उसी आसन पर आ डटे। ‘‘तो इजाजत है? आप?’’ उन्होंने पुष्कर की तरफ देखा। पुष्कर ने गरदन हिला दी।
बाद में पता चला कि यह खष्टीदा का नित्य कार्यक्रम है। पहले तो वे बहुत पीते थे। यात्रियों का सामान ढोकर जो कमाते, उसका बड़ा हिस्सा पीने में फूंक देते। मगर जबसे गिर्दा के साथ रहने लगे, काफी संयमित हो गए हैं। अब शाम को खाने से पहले आधा पव्वा पीने की इजाजत थी। खष्टीदा भी इस नियम को नहीं तोड़ते। बल्कि उनकी जिंदगी अब बोझ ढोकर रोजी कमाने के पार भी देखने लगी थी।
(The Same Old Story by Naveen Joshi)
‘‘तो पुष्कर, कुछ अपनी कही जाए, कुछ हमारी सुनी जाए।’’ गिर्दा ने कहा।
पुष्कर ने अपना किस्सा तफसील से बयान किया। अपने गाँव के हालात, प्रवासी पहाड़ियों की उसकी अपनी देखी-भोगी जिंदगी, दर्द और बेचैनी। कुछ करने की तड़प। पहाड़ में उठती-फैलती चेतना व आंदोलन की लहरों से परिवर्तन की उम्मीद। यह कि यही उम्मीद उसे हलद्वानी से आज सुबह नैनीताल खींच लाई थी।
गिर्दा और खष्टीदा ध्यान से सुनते रहे। पुष्कर जब लखनऊ के नहर दफ्तर की कालोनी के प्रवासी पहाड़ियों के बारे में बता रहा था तो खष्टीदा ने उसका हाथ अपने हाथ में लेकर दबा लिया। जैसे वे उस दर्द को ठीक-ठीक महसूस कर रहे थे। उनके चेहरे पर पीड़ा की लकीरें उभर आईं। एक पेग वे पी चुके थे और दूसरा चल रहा था, मगर इस पीड़ा की सहभागिता का रिश्ता नशे से न था। दरअसल खष्टीदा भी लगभग वैसी या उससे भी कठिन जिंदगी जी रहे थे। आम पहाड़ी परिवारों की तरह गाँव में उनके पास भी थोड़ी सूखी खेती थी जिससे परिवार का पेट चार महीने भी भरता न था। गेहूँ बो सके तो धान खत्म और धान बो पाए तो गेहूँ खत्म वाला किस्सा था। इसलिए परिवार का पेट भरने और तन ढकने के लिए कभी सड़क मजदूरों की गैंग में कमर तोड़ी तो कभी जंगलों की कटान-चिरान में आरे-कुल्हाड़े चलाए। फिर अंततः नैनीताल में कुलीगीरी में आ पड़े। यहाँ नशे की खराब लत लग गई। परिवार की दुर्गति हो चली थी मगर चितई देवता की कृपा से गिर्दा का साथ मिल गया। खष्टीदा को ही सहारा नहीं मिला, डूबता परिवार भी जैसे-तैसे तरने लगा। परिवार से दूर इस कठिन जिंदगी का गहरा दर्द पुष्कर की बातों से उनके चेहरे पर उभर आया। नशे की तरंगों ने उसे कुछ गाढ़ा ही किया होगा।
अचानक वे गाने लगे।
धोति मैली टोपि मैली, ध्वै दिन्या क्वी छई ना,
पराया मुलूक मरना भयो, रवै दिन्या क्वी छई ना।
(धोती मैली हो गई है और टोपी भी, मगर यहाँ धो देने वाला कोई नहीं है। परदेस में मर जाऊँ तो रोने वाला भी कोई नहीं है।। एक नेपाली गीत)
‘‘आज थोड़ा नियम तोड़ने की इजाजत मिलेगी, गुरू?’’ उन्होंने बचा हुआ आधा पव्वा गिर्दा को दिखाया। वे और पीना चाहते थे।
‘‘क्यों, इससे तो कोई रास्ता नहीं निकलने वाला। यह तो भरमाती-भटकाती है, गुरू!’’
‘‘मगर गुरू, ये जो पुष्कर हैं ना, इन्होंने आज दिल का दर्द हरा कर दिया। इनकी इजा गाँव में खटती है और बाबू परदेस में। यह पहाड़ के हर घर का किस्सा नहीं है क्या? अभी, गुरू, कुछ दिन पहले आप ही तो बता रहे थे कि पहाड़ की आधी आबादी पहाड़ में है तो आधी परदेस में। होटल में बर्तन मांजो, कुलीगीरी करो, फौज में तैनात रहो…। पुष्कर बाबू, कभी बदलेगी पहाड़ की तस्वीर?’’
‘‘बदलेगी जरूर मगर शराब पीने से नहीं।’’
‘‘हटाओ साले को, नहीं पीता।’’ उन्होंने शीशी एक तरफ खिसका दी। ‘‘मगर ये बताओ गुरू, ये मीटिंग-सिटिंग करके कुछ होगा? चुनाव बहिष्कार कर रहे हो, इससे क्या होगा? चुनाव तो फिर भी वही लोग जीतेंगे।’’
‘‘बड़ा सवाल उठा दिया, गुरू, आपने लेकिन… यह तो अभी शुरूआत है। चुनाव बहिष्कार का अर्थ तो फिलहाल यही है कि राजनीतिक दलों से, इन नेताओं से जनता गुस्सा है, यह उनका ध्यान खींचने और अपना आक्रोश जताने का तरीका है। जनता के हालात बदलने के लिए क्या किया जाए, यही तो मंथन का विषय है…। देश में कई जगह यह मंथन चल रहा है। कोई इनके मुकाबले खुद चुनाव लड़ना चाहते हैं तो कई सीधे बंदूक ही उठा रहे हैं।’’ गिर्दा ने कहा।
(The Same Old Story by Naveen Joshi)
‘‘सत्ता बंदूक की नली से बहती है।’’ खष्टीदा ने नारा लगाया।
‘‘वाह, आज तो दिमाग की खिड़कियाँ खुल रही हैं, क्या बात! तो एक घूंट और लगाते हैं?’’
‘‘सब आप ही का असर है, गुरू! आज तो आप हारमोनियम निकालो और गाना सुना डालो। जो नया बनाया है। हम ओड़-बारुड़ि-ल्वार-कुल्ली-कभाड़ि, जधीन यो दुनी थैं हिसाब ल्यूंलो…’’
(हम मेहनतकश जग वालों से जब अपना हिस्सा मांगेंगे… का कुमाउँनी रूपांतर। गिरीश तिवाड़ी ‘गिर्दा’।)
‘‘पुष्कर बाबू, गिर्दा ने उर्दू से कुमाउँनी में बनाया है! सुना है आपने ?’’
कहाँ जानता था पुष्कर इतना। परिचय ही अब शुरू हो रहा था।
तब निकला चारपाई के नीचे से काठ का बक्सा। बक्से के भीतर से हारमोनियम। हारमोनियम पर गिर्दा की सधी उंगलियाँ और तीव्र सप्तक तक जाती बुलंद आवाज। कभी लोक और शास्त्रीय धुनों पर फैज की नज्में-गजलें। कभी कबीर, तो कभी अपनी बनाई कबीर तर्ज वाली उलटबांसियाँ। कभी पहाड़ी होलियाँ तो कभी ‘अंधेर नगरी’ से लेकर ‘अंधायुग’ तक के गेय-संवाद। धीरे-धीरे जाना पुष्कर ने कि एक सक्रिय रंगकर्मी और आंदोलनकारी के रूप में गिर्दा ने कितनी ही गीत-नाट्य प्रस्तुतियों, नाटकों, नुक्कड़ नाटकों, जुलूसों को शब्द, संगीत और स्वर दिए हैं।
रात काफी हो गई होगी। पुष्कर को जाड़ा लगने लगा। उसने पैताने पड़ी मुड़ी-तुड़ी रजाई सिर तक खींच ली। तेल, पसीने और सीलन की मिली-जुली गंध उसके नथुनों में भर गई, मगर उसमें बड़ी आत्मीय व सम्मोहक ऊष्मा थी। पुष्कर को फौरन नींद आ गई।
– दावानल से साभार
(The Same Old Story by Naveen Joshi)
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