भारत की पहली महिला चिकित्सक रुखमाबाई राऊत

Rukhmabai Bhikaji
फोटो: बी.बी.सी. से साभार

-प्रीति थपलियाल

पितृसत्तात्मक नियमों को चुनौती देने का संघर्ष समाज के विकास के साथ ही शुरू हो गया था और इसी तरह का उदाहरण हमें अपने देश की प्रथम महिला चिकित्सक रुखमाबाई राऊत के जीवन संघर्ष से मिलता है। रुखमाबाई राऊत का जन्म 1864 में मुम्बई में हुआ था। उनकी माता जयंतीबाई व पिता जनार्दन पाडुरंग थे। ये बढ़ई समुदाय से थे। जब वह केवल ग्यारह वर्ष की थी, तब उनकी शादी उन्नीस वर्षीय दादाजी भीकाजी से कर दी गई थी। लेकिन शादी के बाद भी वह अपनी मां और सौतेले पिता के घर में ही रहती थी। विवाह के पश्चात् अपनी माँ और सौतेले पिता के साथ रहते हुये उन्होंने फ्री चर्च मिशन पुस्तकालय से किताबें लेकर घर पर ही पढ़ाई की। रुखमाबाई और उनकी मां प्रार्थना समाज और आर्य महिला समाज की साप्ताहिक बैठकों में नियमित जाती थीं।
(Rukhmabai Bhikaji)

शादी के सात वर्ष बाद उनके पति दादाजी भीकाजी कोर्ट गये और गुहार लगाई कि उनकी पत्नी को उनके साथ रहने का आदेश दिया जाय। लेकिन रुखमाबाई ने भीकाजी के साथ जाने से इंकार कर दिया। उन्होंने कोर्ट में कहा कि शादी का रिश्ता तब तक परिपूर्ण नहीं होता, जब तक महिला की खुद उसमें रुचि न हो। उन्होंने तर्क दिया कि वइ इस शादी को नहीं मानती क्योंकि उनकी शादी ऐसी उम्र में हुई जब वह अपनी सहमति नहीं दे पाई थी। इस तरह का तर्क पहले कभी किसी महिला ने अदालत में नहीं दिया था। उनका मुकदमा तीन वर्ष तक चला। रुखमाबाई अपने तर्कों के माध्यम से 1880 के दशक में इस मामले को प्रेस तक ले जाने में सफल रही। प्रेस में छपने के बाद कई समाज सुधारकों को इस मामले का पता चला। आखिरकार रुखमाबाई के पति दादाजी ने शादी को भंग करने के लिये मौद्रिक मुआवजा स्वीकार किया और इस आधार पर दोनों पक्षों में समझौता हुआ।

इसी बीच 1891 में संघीय अधिनियम एज ऑफ कसेंट एक्ट 1891 लाया गया (अॠी ङ्मऋ उङ्मल्ल२ील्ल३ अू३ 1891)। यह एक ऐतिहासिक कानून था। इसमें लड़की के साथ सहमति से सेक्स करने की न्यूनतम उम्र दस साल से बढ़ाकर बारह साल करने की व्यवस्था की गयी। लोकमान्य तिलक समेत कुछ कट्टरपंथियों ने इसका विरोध किया। उनका तर्क था कि यह कानून हिन्दू धर्म की परम्पराओं के खिलाफ है क्योंकि शादी तो रजस्वला होने से पहले होनी चाहिये।
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रुखमाबाई ने इस दौरान अपनी पढ़ाई जारी रखी। उन्होंने अखबारों को पत्र लिखे और उसमें अपने विचार व्यक्त किये। इसके पश्चात् उन्हें कई लोगों का समर्थन प्राप्त हुआ और जब उन्होंने अपनी डॉक्टरी की इच्छा व्यक्त की तो लंदन स्कूल ऑफ मेडिशन में भेजने और पढ़ाई के लिये सामूहिक रूप से एक फंड तैयार किया गया। फिर उन्होंने लंदन स्कूल ऑफ मेडिशन से स्नातक की उपाधि प्राप्त की और भारत की पहली महिला डॉक्टरों में से एक बनकर 1895 में भारत लौटी और सूरत के एक हॉस्पिटल में ‘चीफ मेडिकल ऑफीसर’ के रूप में 35 वर्ष तक सेवा की।

चिकित्सक के साथ-साथ वह सक्रिय समाज सुधारक की भूमिका में भी रहीं। उन्होंने महिलाओं के खिलाफ कुरीतियों का विरोध किया। समय के हिसाब से उनकी सोच बहुत आगे की थी। इस दौरान महिलाओं के अधिकारों पर एक बड़ी सामूहिक चर्चा हुई। उनकी मृत्यु 25 सितम्बर 1955 में  91 वर्ष की आयु में हुई।
(Rukhmabai Bhikaji)

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