बच्चा! मछली!! बाढ़!!!

गिरीश तिवाड़ी ‘गिर्दा’
तुलसीदासोवाचः ….
क्षिति जल पावक गगन समीरा
पंचतत्व यह अधम शरीरा
मेरे बच्चे!
मैं जानता हूँ
कि पानी की बात चलने पर
तुझे कुछ याद आयेगा
तो केवल इतना
बोल री मछली कितना पानी…..
क्योंकि तू सिर्फ इतना ही जानता है
दरअसल तुझे बताया ही इतना गया है
गोकि बगैर बताये भी
तू बहुत कुछ जानता है
कि पानी नल से भी आता है
पर मछली…..?
(Poem by Girda)
ताल में पानी भी होता है
और मछली भी
बाढ़ भी पानी से ही आती है
पर मछली……?
सच यह है मेरे बच्चे
कि पानी में स्वभावतः ही होती है मछली
पानी से ही आती है बाढ़
पर बाढ़ कभी स्वाभाविक नहीं होती
पानी कहीं भी तत्व नहीं होता
और मिट्टी कहीं भी राख नहीं होती
मेरे बच्चे!
मछली पानी में जीती है
पर वह यह नहीं जानती
कि ढलान में बहता पानी
वेग से बहता है तो
वह पानी की ही नहीं
ढलान की भी विशेषता है
(Poem by Girda)
यह बात मैं तुझसे तब कह रहा हूँ मेरे बच्चे!
जबकि ‘बेलाकूची’, ‘तवाघाट’
‘गंगनानी’, ‘ग्यान्सू’ और ‘कर्मी’ को
हम बहते हुए देख चुके हैं
और हमें यह भी मालूम है
कि हमारे पड़ोस में ही
‘छ्वांग हो’ जैसी नदी
हरी नकेल से नाथ दी गई है
मेरे बच्चे!
हमारा गांव वहां भी बहा था
हमारा गांव यहां भी बहा है
हमारा गांव पानी में डूबा था
हमारा गांव आग में भी जला है
हमारा गांव जमीन में भी धंसा था
हमारा गांव हवा में भी उड़ा है
मेरे बच्चे! मछली पानी का तेवर पहचानती है
अगर मछली यह नहीं जानती
कि अगर पानी के साथ
ढलान में मिट्टी बहती है
तो इसका अर्थ कतई यह नहीं होता
कि मिट्टी राख है
(Poem by Girda)
होता यह है इस देश में मेरे बच्चे!
कि कांच के जारों में बंद
रंगीन मछलियों से
कुछ खास जगहों को सजाये रखने के लिए
तमाम तालाबों की मछलियां सड़ाई जाती हैं
कुछ खास लोगों को बचाये रखने के लिए
शेष सारे लोगों के खिलाफ
देश में बाढ़ें लायी जाती हैं।
मिट्टी बहायी जाती है
सूखा बुलाया जाता है
हवायें बनायी जाती हैं
आग लगायी जाती है
उन्हीं कुछ खास लोगों को बनाये रखने के लिए ही
मेरे बच्चे!
तुझे पढ़ाया जाता है-
क्षिति जल पावक गगन समीरा
पंचतत्व यह अधम शरीरा
और तू पूछता है-
‘‘बोल री मछली …..?’’
मछली तुझे उत्तर नहीं देती
क्योंकि तब तक तेरी मछली
उन्हीं कुछ खास लोगों के लिए
‘ह्यूमस’ (खाद) बन चुकी होती है
ये बात सच है इस देश में मेरे बच्चे!
कि बाढ़ कभी भी स्वाभाविक नहीं होती।
(Poem by Girda)