लॉकडाउन और महिलायें : सर्वे रिपोर्ट

Lockdown and Women
फोटो: scroll.in से साभार

प्रस्तुति : नीता

‘प्रगतिशील महिला एकता केन्द्र’ के कार्यकर्ताओं ने कोविड-19 (कोरोना) महामारी काल में लॉकडाउन (पूर्णबन्दी) के दिनों में मजदूर-मेहनतकश महिलाओं की स्थिति-समस्या को जानने-समझने के लिए सर्वे अभियान चलाया। सर्वे दो स्तरों पर चलाया गया। एक ऑनलाइन और दूसरा घर-घर जाकर। सर्वे अभियान बहुत सीमित संख्या में लगभग 15-20 दिन चलाया गया। सर्वे उत्तराखण्ड के नैनीताल जिले में हल्द्वानी, लालकुआं व ग्रामीण क्षेत्र (बिन्दुखत्ता), पंतनगर विश्वविद्यालय की मजदूर बस्ती ‘ट’ कॉलोनी, जवाहर नगर, रामनगर व ग्रामीण क्षेत्र (पीरूमदारा), हरिद्वार जिले की कुछ मजदूर बस्तियां व दिल्ली की मजदूर बस्ती शाहबाद डेरी क्षेत्र में चलाया गया। लगभग 300 महिलाओं के सर्वे पत्र भरवाये गये। सर्वे में 9 प्रश्न दिये गये थे।
(Lockdown and Women)

इस सर्वे में अलग-अलग वर्गों व तबकों की महिलाएं शामिल हैं। इसमें मजदूर महिलाएं, स्वरोजगार करने वाली महिलाएं, आशा वर्कर, भोजन माता, आंगनबाड़ी कार्यकर्ता, अध्यापक, डॉक्टर, फार्मेसिस्ट, सफाई कर्मचारी, छात्राएं, घरेलू कामगार महिलाएं व घरेलू महिलाएं शामिल हैं। सर्वे के दौरान अलग-अलग तबकों की महिलाओं की अलग-अलग समस्याएं निकलकर सामने आयीं जिसने इन समस्याओं के प्रति अहसास गहराने व समझ को स्पष्ट करने में मदद की। सर्वे से समाज में लॉकडाउन के दौरान मजदूर-मेहनतकश व अन्य महिलाओं द्वारा उठायी गयी परेशानियों की एक तस्वीर उभरती है। यह तस्वीर बतलाती है कि महिलाएं कितने अधिक कष्ट और परेशानियों में जी रही हैं। 

सर्वे के अनुसार लॉकडाउन के दौरान मजदूरी करने वाली व अन्य काम करने वाली 300 में से 65 महिलाओं के रोजगार छूट गये। इन महिलाओं को पूरे लॉकडाउन में न तो कोई और काम मिला और न ही कहीं से कोई आर्थिक मदद मिली है। स्वरोजगार (सिलाई, पार्लर, कागज की थैली बनाने वाली, कॉस्मैटिक व छोटी-मोटी राशन की दुकान) वाली महिलाओं को लॉकडाउन के समय कोई काम नहीं मिला। जब उन्हें काम नहीं मिला तो पैसा कहां से मिलता।

इसके अलावा भोजनमाता, आशा वर्कर, आंगनबाड़ी, अध्यापक, फार्मासिस्ट, डॉक्टर, सफाई कर्मचारी आदि महिलाओं के रोजगार नहीं छूटे। लेकिन इनके कार्यस्थलों पर अतिरिक्त काम का भार बढ़ गया था। सफाई कर्मचारियों ने बताया कि उनसे 8-9 घंटे ठेकेदारी में काम करवाया जाता है और उन्हें मात्र 4800 रुपये मिलते हैं। लॉकडाउन के दौरान उनका कार्य लगभग दुगना हो गया था। उनको शुरू में कोरोना से बचाव के लिए केवल एक पी.पी.ई़ किट देने के बाद उन्हें कोई सुरक्षा उपकरण नहीं दिये गये।  
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आशा वर्करों के अनुसार जब से लॉकडाउन शुरू हुआ था, तब से कोरोना योद्धा के रूप में उनकी ड्यूटी लगाई गई थी। उनके कार्य के अतिरिक्त उनसे सर्वे करना, दूसरी जगहों से आये लोगों की छानबीन करना व उनको होम क्वारेंटाइन करना, उनकी रिपोर्ट देना व डॉक्टरों की टीम के साथ फील्ड में जाना आदि कार्य बढ़ गये थे। उन्हें कोरोना से बचाव के लिए केवल दो पी.पी.ई़ किट मिलीं जिनको पहन कर वह सुबह काम पर निकलीं और शाम को जला दी। उसके बाद उन्हें कोई सुरक्षा उपकरण नहीं दिये गये। इतना काम करने पर भी मई तक उनको कोई पैसा नहीं मिला था, न ही उनको मानदेय के नाम पर दिया जाने वाला पैसा मिला और न ही कोरोना काल में ड्यूटी करने पर प्रोत्साहन राशि दी गई।

भोजनमाताओं के अनुसार लॉकडाउन के दौरान स्कूल तो बन्द रहे लेकिन समय-समय पर उनको स्कूल की साफ-सफाई, झाड़ी काटना, बच्चों को ‘मिड-डे-मील’ का राशन बांटने आदि कामों के लिए स्कूलों में बुलाया गया। उन्हें काम के दौरान कोई सुरक्षा उपकरण नहीं दिये गये। मानदेय के नाम पर उन्हें मात्र दो हजार रुपये मिलते हैं। उसमें भी 45 भोजनमाताओं को मई तक का मानदेय नहीं मिला। आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं के अनुसार उनसे भी अतिरिक्त कार्य करवाया गया और इनको कोई सुरक्षा उपकरण नहीं दिये गये। इनको भी अतिरिक्त काम का अतिरिक्त पैसा नहीं मिला।

प्राइवेट स्कूलों में पढ़ाने वाली अध्यापिकाओं  के अनुसार लॉकडाउन में स्कूल बन्द रहे। नौकरी तो नहीं छूटी, परन्तु उन्हें ऑनलाइन पढ़ाई का कोई अनुभव नहीं था जिसके कारण उनका काम बहुत बढ़ गया था। कुछ अध्यापिकाओं को तो वेतन नहीं मिला और कुछ को आधा वेतन ही मिला। फार्मासिस्टों के अनुसार उनसे 8-10 घंटे काम करवाया जाता था और कोई छुट्टी नहीं मिली। छुट्टी लेने की बात करने पर नौकरी से निकालने की धमकी दी जाती थी। कोरोना से बचाव के लिए सेनेटाइजर को छोड़कर कुछ नहीं दिया गया। सुरक्षा उपकरणों के बगैर ही काम करने को मजबूर किया गया।

घरेलू महिलाओं ने बताया कि लॉकडाउन में उनके पतियों की नौकरी/मजदूरी छूट गई थी। केवल सरकारी नौकरी वाली महिलाओं को छोड़कर रोजगार की समस्या व आर्थिक समस्या बहुत ज्यादा होने की बात सभी महिलाओं ने की। हल्द्वानी की एक मजदूर महिला ने बताया कि ‘‘लॉकडाउन हुआ तो रोजगार छूट गया, घर में खाने के लिए पैसे नहीं है। मेरे तीन बच्चे हैं। दो बच्चे दूध पीते हैं। घर में पैसे न होने के कारण उनके लिए दूध नहीं ला पाये। तब कई बार पानी में चीनी घोलकर बच्चों को पिलाया।’’

एक घरेलू महिला आशिफा ने बताया कि लॉकडाउन में घर की आर्थिक स्थिति इतनी खराब हो गई कि राशन कार्ड पर राशन (गेहूं, चावल, दाल) 302 रुपये में मिलता है, लेकिन उस राशन को लाने के लिए भी उनके पास पैसे नहीं थे इसलिए राशन नहीं ला पाये।
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लॉकडाउन और घरेलू काम का बोझ

सर्वे के अनुसार 33 महिलाओं ने घरों में काम का बोझ नहीं बढ़ने की बात कही है। इन 33 महिलाओं ने बताया कि घरों में काम सामान्य रहा। घर के बाकी सदस्यों ने घर के काम में मदद की व उनको परिवार के सदस्यों के साथ समय बिताने का मौका मिल गया। 138 महिलाओं ने लॉकडाउन के दौरान घरेलू काम का बोझ बढ़ने व 129 महिलाओं ने काम का बोझ बहुत अधिक बढ़ने की बात कही। इन महिलाओं ने बताया कि लॉकडाउन में पति और बच्चे सब घर पर ही रहे। इस वजह से घर में काम का बोझ बढ़ गया। सामान्य दिनों में पति काम पर चले जाते थे और बच्चे स्कूल चले जाते थे। परन्तु लॉकडाउन में सब लोगों के घर पर रहने से खाना, चाय और बर्तन धोने का काम बढ़ गया।

इसके अलावा जिन महिलाओं (आशा वर्कर, आंगनबाड़ी, फार्मेसिस्ट) को नौकरी करने जाना था, उन्हें घर का काम जल्दी-जल्दी खत्म करके नौकरी पर जाना पड़ता था और वहां भी काम अधिक बढ़ गया था। एक आशा वर्कर सुमन ने बताया ‘‘काम का बोझ कितना बढ़ा, इसे शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता है। हमारे ऊपर घर व बाहर दोनों जगह के काम का बोझ बढ़ गया है।’’
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महिला अपराध व घरेलू हिंसा

सर्वे में 128 महिलाओं ने महिला अपराध व घरेलू हिंसा बढ़ने की बात की है। इनके अनुसार लॉकडाउन में रोजगार छूट गये, घर में खर्च के लिए पैसे नहीं रहे, बच्चे भूखे हैं और कोई काम न मिलने से सब लोग घर पर खाली बैठे रहे। ऐसे में लोगों के अवसाद में चले जाने की वजह से घरों में लड़ाई-झगड़ा, मार-पिटाई हुई। एक घरेलू महिला ने बताया कि आदमियों के काम छूट गये, बच्चे भूखे थे, पैसा कहां से लायें इस बात पर आदमी परेशान थे और इस परेशानी का गुस्सा आदमी महिलाओं पर ही उतारते हैं। एक शिक्षिका ने बताया कि उसने समाचार पत्र व टी.वी़ पर देखा-सुना कि कई महिलाओं ने आत्महत्या कर ली और बच्चों को मार देने तक की घटनाएं हुईं जो इस ओर इशारा करती हैं कि मजबूरी में ही महिलाओं ने ऐसा कदम उठाया होगा। इसके अलावा बहुत-सी महिलाओं ने सर्वे पत्र में इस बात को लिखा है कि उनके घर में तो कोई लड़ाई-झगड़ा, मार-पिटाई नहीं हुई थी परन्तु उनके पड़ोस में ऐसी बहुत-सी घटनाएं हुई थीं।

आशा वर्कर राबिया ने बताया कि लॉकडाउन में कुंवारी लड़कियों के गर्भपात कराने के बहुत केस आये जो महिलाओं के साथ यौन अपराधों को उजागर करते हैं। कुछ महिलाएं जो और बच्चे पैदा नहीं करना चाहती थीं, वे लॉकडाउन के समय में गर्भवती हो गईं और बच्चा पैदा करने को मजबूर हुईं। सर्वे में 34 महिलाओं ने कहा कि लॉकडाउन में ही महिला अपराध व घरेलू हिंसा के केस नहीं बढ़े हैं, सामान्य दिनों में भी महिला अपराध व घरेलू हिंसा होती थी। इसके अलावा कुछ महिलाओं ने यह कॉलम भरने से छोड़ दिया व कुछ महिलाओं ने कहा कि पता नहीं, महिला अपराध व घरेलू हिंसा बढ़े हैं या नहीं क्योंकि उनके घरों में तो कोई ऐसी घटना नहीं हुई थी।

स्वास्थ्य सेवाएं

सर्वे में 14 महिलाओं ने बताया कि लॉकडाउन के दौरान सरकारी अस्पतालों में गर्भवती व बीमार महिलाओं को इलाज मिला। सफाई कर्मचारियों ने बताया कि लॉकडाउन में अस्पताल खुले रहे, जो भी अस्पताल आ रहे थे उनको इलाज मिल रहा था। लगभग 20 महिलाओं ने बताया कि उन्हें पता नहीं कि सरकारी अस्पतालों में इलाज मिल रहा था या नहीं क्योंकि उनके घरों से इस समय कोई अस्पताल नहीं गया। 54 महिलाओं ने बताया कि गर्भवती व अन्य बीमार महिलाओं को इलाज तो मिला लेकिन पूर्णरूप से नहीं मिला। आपातकालीन स्थिति में ही इलाज मिल रहा था। मजदूर महिलाओं ने बताया कि इलाज न के बराबर मिला। केवल चैकअप हो रहे थे। दो महीने तक टेस्ट नहीं हुए लेकिन बाद में होने लगे। 5 महिलाओं ने कहा कि सरकारी अस्पतालों में केवल 50 प्रतिशत ही इलाज मिल पाया है।
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110 महिलाओं ने कहा कि लॉकडाउन के दौरान सरकारी अस्पतालों में इलाज नहीं मिला। रामनगर की एक महिला ने बताया कि रामनगर में एक ही सरकारी अस्पताल है। उसमें भी गर्भवती महिलाओं को सही इलाज नहीं मिल पाता है। इस वजह से महंगे प्राइवेट अस्पताल जाना पड़ता है। हरिद्वार की एक मजदूर महिला ने बताया कि बीमार व गर्भवती महिलाओं को कोरोना के नाम पर एक अस्पताल से दूसरे अस्पताल दौड़ाया गया। हरिद्वार की ही एक घरेलू महिला ने बताया कि ‘‘मैं गर्भवती थीं, अचानक मेरा बच्चा खराब हो गया। मैं अस्पताल गई लेकिन मुझे कोई सुविधा नहीं मिली।’’ कुछ आशा वर्करों ने बताया कि लॉकडाउन के शुरू के दो महीने  गर्भवती महिलाओं व बच्चों का टीकाकरण तक नहीं हुआ। बहुत-सी गर्भवती महिलाओं ने अपने घरों में ही बच्चों को जन्म दिया। हल्द्वानी की एक आशा कार्यकर्ता ने बताया कि हल्द्वानी के एक बड़े अस्पताल सुशीला तिवारी को कोविड-19 का सेन्टर बना दिया गया। इस वजह से बहुत से मरीजों को दिक्कतों का सामना करना पड़ा।

एक सामाजिक कार्यकर्ता सुनीता ने बताया कि शहर से दूर-दराज के गांव की गर्भवती महिलाओं को इस लॉकडाउन में न तो इलाज मिल पाया और न ही उनका चेकअप हो पाया है क्योंकि आने-जाने के सारे सार्वजनिक वाहन बन्द हो गये थे। आम मजदूर-मेहनतकशों द्वारा अपना वाहन बुक करके आने पर बहुत खर्चा हो रहा था और इस पर भी भरोसा नहीं था कि डॉक्टर मिल ही जायेंगे। इस वजह से गांव की बहुत-सी महिलाएं चेकअप कराने भी नहीं आ पायीं।

सर्वे में अधिकांश महिलाओं का कहना था कि लॉकडाउन के दौरान स्वास्थ्य सेवाओं की स्थिति खराब रही है। मुस्लिम महिलाओं ने सर्वे में लिखा कि लॉकडाउन में मुस्लिम महिलाओं का डॉक्टर चेकअप तक नहीं कर रहे थे। दूर से ही बस दवाइयां लिखकर दे रहे थे। हल्द्वानी की एक घरेलू महिला शबनम ने बताया कि जब उसकी तबीयत खराब हुई तब किसी तरह अस्पताल गई। वहां उससे पास मांगा गया। पास बनवाना उन्हें नहीं आता था। उसे बिना देखे ही वापस भेज दिया गया। दिल्ली की एक घरेलू महिला आशमा ने बताया कि वह गर्भवती थी, वह तीन अस्पतालों में गई, उसे कहीं भर्ती नहीं किया गया। प्राइवेट अस्पताल में उनसे एक लाख रुपये मांगे गये। अत: मजबूरी में घर पर ही बच्चे को जन्म दिया। बच्चा बहुत कमजोर था, बहुत मुश्किल से बचा पाये।
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लॉकडाउन और शिक्षा

लॉकडाउन के दौरान ऑनलाइन शिक्षा पर लगभग 274 महिलाओं ने कहा कि ऑनलाइन तरीके से बच्चों की पढ़ाई नहीं हुई बल्कि इसकी वजह से घर-परिवार व महिलाओं को काफी परेशानियां उठानी पड़ीं। कुछ महिलाओं ने बताया कि घर में कोई पढ़ा-लिखा नहीं है तो किसी के पास स्मार्ट फोन नहीं है। किसी के पास फोन में नेट रिचार्ज करवाने के लिए पैसे नहीं थे। कुछ ने बताया कि ऑनलाइन होम वर्क आ जाता था, जो बच्चों को समझ नहीं आ रहा था। कई बार तो उन्हें ही बच्चों की कॉपी में होमवर्क करना पड़ा। कुछ महिलाओं ने बताया कि छोटे बच्चे फोन से पढ़ने के बजाय उससे खेलने में लगे रहते थे। ऑनलाइन पढ़ाई से परिवार पर अतिरिक्त आर्थिक और मानसिक बोझ बढ़ गया था।

शिक्षिकाओं ने बताया कि ऑनलाइन पढ़ाई का पहले से उन्हें कोई अनुभव नहीं था। गांव और कस्बों में इंटरनेट के बहुत कम सिग्नल आने से भी उन्हें बहुत परेशानियों का सामना करना पड़ा और उनका काम बहुत बढ़ गया। एक शिक्षिका आरती ने बताया कि सिग्नल की समस्या की वजह से उन्हें रात को एक-दो बजे तक जागकर वीडियो बनानी पड़ती है। वीडियो में पढ़ाते समय कोई दूसरी आवाज नहीं आनी चाहिए। अगर ऐसा हो गया तब उस वीडियो के स्थान पर दूसरा वीडियो बनाना पड़ता था। इससे उनका काम बहुत बढ़ गया था और उन्हें मानसिक तनाव भी बहुत हो रहा था।

छात्राओं को भी ऑनलाइन पढ़ाई में बहुत दिक्कत आईं। पैसों के अभाव में कभी फोन में नेट रिचार्ज नहीं करवा पाते हैं तो कभी सिग्नल नहीं आते हैं। बड़े बच्चे तो तब भी ऑनलाइन पढ़ाई से कुछ समझ लेते हैं परन्तु छोटी कक्षा के बच्चों को बहुत परेशानी होती है जिसकी वजह से छात्रों में मानसिक तनाव बढ़ रहा है। एक आशा कार्यकर्ता ने बताया कि ‘‘इस लॉकडाउन में स्कूल तो बन्द हो गये। बच्चों की पढ़ाई इस साल तो खत्म ही हो गई। जिलाधिकारी सर ने आदेश दिया था कि स्कूल प्रबंधन अभिभावकों से फीस न ले, लेकिन फिर भी तीन महीने की फीस स्कूल प्रबंधन मांग रहे हैं जिसका परिवारों पर अतिरिक्त बोझ बढ़ गया है’’। एक सफाई कर्मचारी ने बताया कि घर में कोई पढ़ा-लिखा नहीं है। वह बच्चों को ऑनलाइन कैसे पढ़ाये? एक मजदूर महिला ने बताया कि उनके घर में खाने के राशन के लिए पैसे नहीं थे। वह स्मार्ट फोन व नेट रिचार्ज करने के लिए पैसे कहां से लायें?

सर्वे में केवल 26 महिलाओं ने ऑनलाइन पढ़ाई होने की बात कही है। उनके अनुसार उनके बच्चे बड़े हैं। वह अपने आप पढ़ लेते हैं। कितना इन बच्चों को समझ में आ रहा है, यह तो बच्चे ही जानें।
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लॉकडाउन और मानसिक तनाव

सर्वे में लगभग 270 महिलाओं ने मानसिक तनाव बढ़ने की बात कही है और 30 महिलाओं ने लॉकडाउन में मानसिक तनाव न होने की बात कही है। इनके अनुसार लॉकडाउन में परिवार के साथ समय बिताने का मौका मिला। लेकिन 270 महिलाओं ने मानसिक तनाव बढ़ने का कारण बीमारी का लगातार फैलते जाना, रोजगार छूटना या रोजगार छूट जाने का भय बने रहना, बच्चों की शिक्षा का न होना, इलाज न मिलना, महंगाई बढ़ते जाना, ऑटो-बसों का किराया महंगा होना व आर्थिक तंगी के कारण घरों में लड़ाई-झगड़े, मार-पिटाई होना बताया। एक सफार्ई कर्मचारी ने बताया कि उसे आर्थिक तंगी व बीमारी के भय से बहुत परेशानी हो रही है। लॉकडाउन में आने-जाने के सारे वाहन बन्द हो गये थे तब 5-6 किमी़ (आना-जाना) पैदल ड्यूटी की है और जब आवागमन के साधन चलने लगे तब ऑटो का किराया दुगुना हो गया है।

कुछ महिलाओं ने बताया कि लॉकडाउन के शुरू में तो कुछ राशन बांटा गया। जब वे वहां राशन लेने जातीं तब उनके साथ बुरा व्यवहार किया जाता था। लेकिन बाद में तो वह भी बंटना बन्द हो गया। एक शिक्षिका प्रीति ने बताया कि लॉकडाउन के दौरान मजदूरों-महिलाओं-बच्चों का भूखे, पैदल अपने घरों को जाने की घटनाओं से उनका मन बहुत विचलित हुआ और मानसिक तनाव बढ़ गया।

लॉकडाउन और शराब (नशा)

सर्वे में मात्र 5-6 महिलाओं को छोड़कर सभी महिलाओं ने लॉकडाउन में शराब की दुकान नहीं खोलने का समर्थन किया। बहुत-सी महिलाओं ने कहा कि शराब की दुकानें हमेशा के लिए बन्द हो जानी चाहिए क्योंकिनशे के आदी लोग घरों का सामान बेच कर चोरी करके भी नशा करते हैं। कुछ महिलाओं ने बताया कि नशे में धुत होकर पति पत्नी और बच्चों के साथ लड़ाई-झगड़ा, मार-पिटाई करते रहे हैं। शराब की वजह से महिलाओं का शारीरिक व मानसिक उत्पीड़न हो रहा है। कुछ महिलाओं ने बताया कि पति दिन में पैसा कमा कर शाम को नशे में उड़ा देते हैं जिससे घरों की आर्थिक स्थिति खराब होती है। इस नशे की वजह से कितने ही घर बर्बाद हो गये हैं।

कुछ महिलाओं ने बताया कि उनके आदमियों की नौकरी छूट गई, जिससे घर में आर्थिक तंगी आ गई। कोई भी काम न मिल पाने के कारण पुरुष घर पर खाली बैठे हैं। यह बात पुरुषों में मानसिक तनाव बढ़ा रही है और अपने मानसिक तनाव को दूर करने के लिए पुरुषों ने और अधिक नशा करना शुरू कर दिया है। कुछ महिलाओं ने बताया कि जब लॉकडाउन के शुरू के दिनों में शराब की दुकानें नहीं खुली थीं, उन दिनों घरों में शांति थी। शराब नहीं मिलने की वजह से घरों में लड़ाई-झगड़ा, मार-पिटाई नहीं हो रही थी।
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इसके अलावा बिन्दुखत्ता व हल्द्वानी की महिलाओं ने शराब की दुकानों के साथ-साथ कच्ची शराब, स्मैक व चरस की समस्या भी बतायी है। इनके अनुसार लॉकडाउन में शुरू से ही कच्ची शराब व स्मैक मोहल्लों में लगातार बिकी है। इस पर भी सरकार को रोक लगानी चाहिए। छोटे-छोटे बच्चों को भी नशे की लत लग रही है। उनका भविष्य बर्बाद हो रहा है। मोहल्ले के लोग जब विरोध करते हैं तब पुलिस कुछ लोगों को उठा कर बन्द कर देती है और फिर छोड़ देती है।

सर्वे में 100 महिलाओं ने कहा कि लॉकडाउन में नशे की वजह से उनके घर-परिवार पर कोई फर्क नहीं पड़ा। फिर भी शराब की दुकाने बंद रहनी चाहिए थीं। आस-पड़ोस में नशा करके लड़ाई-झगड़े हुए हैं। 194 महिलाओं ने सर्वे में बताया कि नशे की वजह से उनके घर-परिवार पर असर पड़ा है। नशा करके लड़ाई-झगड़ा व मार-पिटाई हुई है और अधिकतर महिलाओं को ही झेलना पड़ता है।

प्रगतिशील महिला एकता केन्द्र द्वारा किये गये इस सर्वे से निष्कर्ष निकलता है कि मजदूर-मेहनतकश महिलाओं को इस लॉकडाउन के दौरान बहुत परेशानियां झेलनी पड़ी हैं। इस दौरान देश-दुनिया में रोजगार का बहुत बड़ा संकट पैदा हो गया। यह संकट सिर्फ लॉकडाउन के दौरान पैदा हुआ है ऐसा नहीं है बल्कि यह लॉकडाउन के पहले से चले आ रहे आर्थिक संकट का ही परिणाम है। यानी अर्थव्यवस्था पहले से ही चौपट थी और रही-सही कसर लॉकडाउन ने निकाल दी। एक ओर सरकार महिला सशक्तीकरण, महिलाओं को आर्थिक तौर पर आत्मनिर्भर बनाने की बात करती है। लेकिन सर्वे के दौरान हमने पाया कि सरकारी नौकरी वाली महिलाओं को छोड़कर अन्य सभी महिलाओं की नौकरी या तो छूट गयी या नौकरी जाने का भय बना रहा या कुछ को आधा वेतन दिया गया। यह सर्वे पितृसत्तात्मक संबंधों व मानसिकता को भी दर्शाता है, जिसमें घरेलू काम पुरुषों की नहीं बल्कि महिलाओं की जिम्मेदारी होते हैं। यह बात सर्वे की रिपोर्ट में दिखाई देती है कि पितृसत्तात्मक मानसिकता समाज में अधिकांश लोगों के जेहन में अन्दर तक जड़ जमाये हुए है। लॉकडाउन के दौर में पूरे देश में मुसलमानों के साथ जो भेदभाव किया गया वह भी इस सर्वे में दिखाई देता है।

देश में इतनी बड़ी महामारी के बावजूद अभी तक सरकार ने स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च नहीं बढ़ाया। स्वास्थ्य सेवाओं की स्थिति पहले भी लचर हालत में थी अब लॉकडाउन और कोरोना महामारी ने स्वास्थ्य सेवाओं की स्थिति को सबके सामने और अधिक उजागर कर दिया है। सरकार की शिक्षा, स्वास्थ्य जैसी मूलभूत आवश्यकताओं को निजी हाथों में बेचने की कोशिश लगातार जारी है। सर्वे में हमने पाया कि मजदूर मेहनतकशों के बच्चों के पास ऑनलाइन पढ़ाई के लिए संसाधन नहीं हैं, दरअसल सरकार ने निजीकरण की नीतियों को लागू कर शिक्षा को पूंजीपतियों के हाथों में बेच दिया है। अब जिसके पास जितना पैसा है, वह उस स्तर की शिक्षा खरीद सकता है।
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