इंसानियत से दूर

Article by Rajendra Kandpal

नई कलम

राजेन्द्र काण्डपाल

नई कलम के अन्तर्गत उन युवाओं की रचनाएं शामिल की जा रही हैं जो पहली बार किसी समाचार पत्र या पत्रिका में प्रकाशित हो रहे हैं। राजेन्द्र काण्डपाल राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय बागेश्वर में एम.ए. तृतीय समेस्टर (हिन्दी साहित्य) के छात्र हैं।

अत्याचार शब्द नहीं, किसी पार्टी का मुख्य मुद्दा है। यह अब किसी एक के साथ नहीं, अपितु पूरे समाज के साथ होता है। कभी अत्याचार करने वाला पुरुष होता है तो कभी स्वयं समाज। अत्याचार एक बार नहीं होता, यह समाज चुप रहो, आपकी लड़की की गलती है, बोलकर उसे दोबारा दोहराता है और इस बार शारीरिक रूप से नहीं बल्कि जो कसर पुरुष से छूट जाती है, उसे मानसिक रूप से अत्याचार करके पूरा करता है।
(Article by Rajendra Kandpal)

21वीं सदी युवा एवं मॉडर्न है। उसे भी आधुनिकता की दौड़ जीतनी है। फिर क्या लड़के क्या लडकियां। लड़कियां भी लड़कों की तरह इस दौड़ में जीतना चाहती हैं मगर लड़के पहले ही अपने आपको प्रथम मान बैठते हैं। मगर इसके बाद भी लडकियां हार नहीं मानतीं हैं क्योंकि सभी स्वतंत्र हैं और स्वतंत्रता से लोकतंत्र में अपने मत का प्रयोग कर सरकार बनाते हैं। आधुनिकता की यह दौड़ तब समाप्त हो जाती है, जब स्वतंत्र मत से चुनी गयी सरकार किसी एक जाति या समुदाय के पुरुषों का समर्थन करती है। इस दौड़ के समाप्त होने का दूसरा कारण महिलाओं की होने वाली जीत भी है। महिलाएं इस दौड़ को इतनी आसानी से नहीं छोड़ सकतीं तो ऐसा कुछ किया जाता है जिसे शब्दों में बलात्कार कहा जाता है।

यह शब्द होने को बहुत छोटा है मगर इसका शाब्दिक अर्थ उसी को पता रहता है जिसके साथ यह होता है। उस लड़की को तो यह समाज, उसका खुद का घर-परिवार बेगुनाह आरापों के नीचे दबा कर पूरा गूंगा बना देता है, मानो वह कभी बोली ही न हो और बाकी के बचे लोग मोहल्ले की ही किसी आंटी के घर की चाय पर माँ दुर्गा समान उस लड़की के चालचलन को बोलते-बोलते  दोषी ठहरा देते हैं, बगैर उस अत्याचारी को देखे-सुने अपनी लाड़ली को नजरअंदाज करते हुए। किसी भी शख्स की मर्जी के बगैर उसके साथ जिस्मानी रिश्ता कायम करना बलात्कार है। यह एक जुर्म है। यह परिभाषा है बलात्कार की। मगर अब यह जुर्म नहीं कहलाता।

अब यह राजनीतिक पार्टियों में प्रवेश करने का, समाज में अपने को सर्वोच्च दिखाने का, अपनी ताकत का प्रदर्शन करने का जरिया है, जिसका शुरू के कुछ दिन विरोध होता है मगर फिर सब उसे ही सही देख कर भूल जाते हैं और इसे भूलने में आपकी हमारी मदद करता है आज का मीडिया। जी, आप सही पढ़ रहे हैं, लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ कहलाने वाला मीडिया जो बलात्कार करने वाले को चुनाव प्रचार की भांति अलग-अलग आकर्षक शब्दों वाली हेड लाइन के साथ प्रस्तुत करता है, अलग-अलग समय में उसके द्वारा किये गए अत्याचारों को दिखाया जाता है, राष्ट्रीय स्तर के चैनलों पर बहस करायी जाती है और अगर इन सब से भी जनता आकर्षित नहीं होती है तो फिर उसे धर्म के साथ जोड़ दिया जाता है। अलग-अलग समुदायों के लोग बिना कुछ सोचे-समझे अपनी राय रखने लगते हैं। जिन्होंने कभी उस इन्सान को न देखा हो, जिसने कभी अपनी माँ का सम्मान न किया हो, वे भी अपनी सात्विक राय देने लगते हैं।
(Article by Rajendra Kandpal)

इसी बीच यह बहस बदलकर धर्म और देश की रक्षा की बहस में बदल जाती है। फिर राजनीतिक पार्टियां भी इसमें अपनी सामथ्र्य के अनुसार शामिल हो जाती हैं और जो सत्य की बात कहने के लिए आवाज उठाते हैं, उन्हें प्रवासी बताकर दरकिनार कर दिया जाता है। अब तक जनता भी अपनी खोयी हुई समझ से फैसला लेकर अपनी पार्टी का समर्थन करने लगती है और उनकी हां में हां मिलाने लगती है।

जुर्म का फैसला तो मोहल्ले की आंटी के द्वारा कब का तय हो चुका होता है तो अब अदालत के फैसले की किसे परवाह। अदालत के फैसले के साथ पूरा मीडिया आरोपी को जेल पहुंचा कर आता है और उसके जल्दी छूटने की गुहार के साथ यह शांत होता है। मगर कोई उस लड़की के दु:ख को कम करने नहीं पहुंचता, कोई उसके घावों को मरहम लगाने नहीं जाता, कोई उन यातनाओं को भुलाने की कोशिश नहीं करता जो उस बलात्कारी और उसके अपने समाज ने दी थीं। उसे बस उसके शरीर और उसके चालचलन को सुधारने की सलाह मिलती है और साथ में चुप रहने की खामोश धमकी।

समय बीतता है और फिर समाचारों में एक और नई कहानी दिखाई जाती है। मगर सभ्य कहे जाने वाले इस समाज में कोई भी अपने सुपुत्रों को कुछ नहीं बताता, न ही उन्हें स्त्री का सम्मान करना सिखाया जाता है और न ही दूसरों की रक्षा करना बतलाता है। महिला-पुरुष की उस दौड़ को कोई नहीं देखना चाहता क्योंकि उसमें एक महिला जीतने वाली थी। यह समाज प्रतिवर्ष कन्यापूजन करना जानता है मगर उनकी सुरक्षा के लिए अपने पुत्रों को गणेश और कार्तिक नहीं बनाना चाहता है।
(Article by Rajendra Kandpal)

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