उत्तरा के बाबत

Article by Nirmla Dhaila

-निर्मला ढैला बोरा

उत्तरा को तीस साल होने जा रहे हैं। इतना समय बहुत होता है, किसी पत्रिका के कलेवर और तेवर को पाठकों के दिलो-दिमाग में अपनी छाप छोड़ने के लिए। यह समय, यह दौर बहुत परिवर्तनशील रहा है वैश्विक दृष्टि से भी, सामाजिक दृष्टि से भी और तकनीकी के हिसाब से भी। इन सबने मिलकर समाज को और सामाजिक मनोविज्ञान को भी बदला है। इस दौर में अपने तेवरों के साथ ‘उत्तरा’ चलती चली गई। उसका चलना, आम या खास पत्रिकाओं के चलन या चलने जैसा नहीं था। जहाँ वह बुकशैल्फ में दिखी, वहीं महिलाओं के अधिकार, न्याय के मुद्दों पर सड़क पर भी उतरती दिखाई दी और इसीलिए उसकी सार्थकता एवं प्रासंगिकता किसी दूसरे ही तल पर पहुंची दिखती है। ‘उत्तरा’ क्षेत्रीय मुद्दों को भी उतनी ही शिद्दत से उतारती दिखती है जितनी कि उत्तराखण्ड की महिलाओं की राज्य आन्दोलन में भागीदारी से लेकर दैनिक जीवन में उनकी पहाड़-सी कठिनाइयों को।
(Article by Nirmala Dhaila)

उत्तरा यह जानती है कि उत्तराखण्ड की महिलाओं का संघर्ष उन लैंगिक चेतना के आन्दोलनों से अलग किस्म का संघर्ष है। यही कारण है कि यह आम पत्रिका की तरह फैशन या पाक-कला तक सीमित नहीं है। यह जीवन के संघर्ष में महिला की जद्दोजहद को कहीं ज्यादा तवज्जो देती है। महिलाओं का पहाड़ की मुश्किल जिन्दगी से रोजाना दो-चार होना, साथ ही समाज में उसका अपनी निर्णायक भूमिका के लिए संघर्ष, ये दो पहलू उत्तरा अपने लेखों के माध्यम से भली-भांति उजागर करती आई है। हालांकि गांव और शहरी महिलाओं के संघर्षों की भूमिका में अन्तर है लेकिन पहाड़ की विरासत को आगे ले जाने का दायित्व शहरी महिला पर कहीं अधिक है, जिसे उत्तरा जैसी पत्रिका अपने ‘कंटेंट’ में बखूबी स्थान देती है और महिला सशक्तीकरण के आयामों को क्षेत्रीय एवं राष्ट्रीय धारा से जोड़ते हुए आगे बढ़ती नजर आती है।

निश्चय ही इन संदर्भों को लेकर चलने का साहस और संकल्प बहुत बड़ा है, जिसकी तहों में अगर देखने जाएं तो शायद यह पत्रिका उत्तराखण्ड के लिए समृद्धि का सूत्र खोज निकालने के ‘उद्यम’ से भरी है। उत्तरा की भूमिका सामाजिक संदर्भों में तब कहीं ज्यादा जरूरी नजर आती है, जब हम पहाड़ की मुश्किलों, प्राकृतिक आपदाओं, जीवनयापन की रीति, समझ, नये दौर के मुताबिक ढलना, स्वास्थ्य, शिक्षा, रोजगार, जल, जंगल, चारे की समस्या तथा वन कानून आदि से जूझती महिला को देखते हैं।
(Article by Nirmala Dhaila)

कंटेन्ट के साथ पहुंच का प्रश्न काफी नहीं है, इसके तीस साल का आंकलन करने के लिए। क्योंकि जब किसी पत्रिका के उद्देश्यों में सामाजिक आन्दोलन के बीज हों तो उसके सामने कई अन्य पहलू भी आते हैं। साथ ही इस आक्षेप से भी अलग होना आवश्यक हो जाता है कि कहीं यह ‘न्यूज लैटर’ की तरह न आंकी जाय। इसलिए भी महिला पत्रिका का बहुआयामी होकर साहित्य, संस्कृति, परम्परा से जुड़कर सम्पूर्णता में पत्रिका बन जाना जरूरी लगता है, जिसमें हर कोई बाबस्तगी (जुड़ाव) महसूस कर सके। इस संतुलन को बतौर पत्रिका में बनाये रखना भी बड़ा कार्य है, जिसे उत्तरा बखूबी निभाती आई है।

यह आवश्यक है कि दृष्टि को बड़ा कर समाधानों की ओर प्रवृत्त करने के लिए साहित्य या पत्रिका की एक भूमिका होती ही है। ‘उत्तरा’ साक्षी रही है, उत्तराखण्ड राज्य आन्दोलन की, बतौर भागीदारी के अपनी सक्रिय भूमिका के साथ। उसके बाद उत्तरा को अपनी भूमिका की व्यापकता को चुनते हुए निरन्तर आगे आना चाहिए था, क्योंकि उत्तराखण्ड के हर सकारात्मक आन्दोलन में महिलाओं की भूमिका की ऐतिहासिकता स्वयं में प्रमाण है। तब भी और अब भी, यह आवश्यक है कि दृष्टि के विस्तार के साथ उत्तरा परिवर्तन का वाहक बन चैतन्यता के प्रति आग्रह रखे।
(Article by Nirmala Dhaila)

यह इसलिए ताकि उत्तराखण्ड की संस्कृति की वाहक महिला, इस पलायन के दौर में अपनी मेहनत के प्रतिफल को समझ पाएं, क्योंकि इस पीढ़ी के लिए यह संकट (पलायन) बहुत बड़ा है। इस निर्णायक दौर में अपनी भूमिका तय कर उत्तरा क्षेत्रीय संदर्भों में अपनी प्रतिष्ठा को और आगे ले जाने में समर्थ होगी। निश्चय ही ‘उत्तरा’ वैश्विक संदर्भों को भी आगे बढ़ाती है पर क्षेत्रीय संदर्भों में उससे अपेक्षा कहीं ज्यादा रहती है।

अंत में उत्तरा के तीसवें बसंत में प्रवेश की खुशी भी कैसे जाहिर करूं, जबकि उत्तरा परिवार का एक जीवंत, कर्मठ और सहृदय सदस्य उत्तरा का साथ हमेशा के लिए छोड़ चुका है। मेरा यह लेख अपनी उसी अंतरंग सखी मधु जोशी की मधुर एवं प्रेरणादायी यादों को समर्पित है।
(Article by Nirmala Dhaila)

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