पुरानी और नई बातें

Article by Nirmala Bora
-निर्मला बोरा

आज से 50-55 साल पहले की बात है। तब हम मुरादाबाद में रहते थे। गर्मी की छुट्टियों में बागेश्वर स्थित अपने गाँव आ जाते थे। गाँव में महिलाओं की दिनचर्या से मैं बहुत प्रभावित रहती थी। उन महिलाओं से, जो गाँव की बहुएँ थीं या जो अकेले अपने बच्चों के साथ गाँव में रहती थीं। छुट्टियों में मेरा सारा समय इन्हीं महिलाओं के साथ बीतता था।
(Article by Nirmala Bora)

उनकी दिनचर्या सूरज उगने से पहले शुरू हो जाती थी। अंधेरे में उठकर पहले वे गधेरे जाती थीं। वहाँ हाथ-मुँह धोकर गागर में पीने का पानी भरकर लातीं। फिर वे कुल्हाड़ी व रस्सी सिर पर रखकर जंगल को निकल पड़ती थीं। रात की रोटी में नमक रखकर बड़े चाव से खाती हुई गपशप मारती, हँसी-मजाक करतीं, कब उनकी मंजिल आ गयी, पता ही नहीं चलता था। मैं भी उनके साथ चल देती थी। फिर रास्ते में थोड़ी देर सुस्ताने के लिए बैठ जातीं। इतने में दो महिलाएँ उठकर कुल्हाड़ी पकड़कर जोर से दे मारतीं। एक लम्बे-चौड़े पेड़ में दोनों महिलाएँ दो तरफ से चोट करतीं थी और थोड़ी देर में पेड़ को गिरा देती थीं। फिर सब महिलाएँ पेड़ से लकड़ी काटकर गट्ठर बनातीं और सिर पर रखकर घर को ले आतीं। जब वे घर पहुँचती थीं, उस समय सूर्य पंच पहाड़ियों के बीच में से दिखना शुरू होते थे।

घर आते ही घर के अन्दर न जाकर पहले जानवरों के ‘गोठ’ में जाकर जानवरों को बाहर बाँधतीं। पराल व घास का मिश्रण बनाकर उनको चारे के रूप में दिया जाता था। उसी पराल को थोड़ा-सा हाथ में लेकर जानवरों (भैंस) को पोछा जाता था। फिर दूध निकाला जाता। उसके बाद वे घर के अन्दर जाती थीं। चाय बनातीं, बच्चों को उठातीं, सबको चाय देतीं। जिन महिलाओं के पति वहीं गाँव में रहते थे, वे पत्नी के जंगल से आने से पहले ही उठकर नदी चले जाते थे (तब गाँव में शौचालय नहीं होते थे) और दुकान में बैठकर चाय पीकर तब आराम से घर को आते। तब तक घर की महिला रोटी-सब्जी बना, दूध गरम कर बच्चों को खिलाकर स्कूल भेज देती थी। तब आदमी के आने के बाद उसको खाना खिलाती थी। अगर आदमी घर नहीं आया तो रोटी ढककर रख देती।

उस समय सारे घरों में मिट्टी के फर्श होते थे। उसको झाड़ने के लिए पहले पानी छिड़का जाता था फिर घर को झाड़ा जाता था। तीज-त्योहार पर मिट्टी से लीपा जाता था। महिला घर को साफ करके लगभग 9-10 बजे खेतों को निकल जाती थी। दिन में करीब 2 बजे घर आकर जानवरों को पानी दिया, उनको गोठ में बांधा फिर घर में घुसी। एक चूल्हे पर चावल चढ़ाया दूसरे पर दाल या झोली चढ़ाई। छांछ की झोली बनती थी। बस आधे घंटे में खाना खाकर तैयार। सबेरे नाश्ते (कलेऊ) में सब्जी रोटी और दिन में भात-दाल।

दिन में भात-दाल खाने उनके पति भी आ जाते थे। खाना खाकर फिर दुकान में ताश खेलने चले जाते। घर की महिलाओं ने खाना खाया फिर चूल्हा लीपा, बर्तन सिर पर रखे नहर में गयीं (एक नहर गांव के बीचों बीच थी) बर्तन मांजे, कपड़े धोये तथा नहाया। घर आयीं थोड़ी देर लेटी, हाथ-पांव व सिर पर तेल लगाया। आधे-एक घंटे में चाय बनाई, चाय पी फिर जानवरों को बाहर बांधा और खेत में चली गयीं। वहां से अंधेरो होने पर ही घर पहुंचती थीं।

घर आयीं दूध निकाला फिर अन्दर आयीं और रात का खाना तैयार कर सबको खिलाया। सब काम निपटाकर वे महिलाएं धान लेकर ओखल में धान कूटने आती थीं।  दूसरे दिन भात बनाने के लिये चावल चाहिए होते थे। धान कूटकर घर पहुंचीं कि उसी वक्त पति महाशय दुकान से शराब के नशे में घर पहुँचते हैं। खाना पसंद न होने पर लात मारकर फेंक देते। फिर पत्नी को मारते। वह अपनी जान बचाने के लिए जानवरों के गोठ में छिप जाती थी। हमारे गांव में ऐसा सभी महिलाओं के साथ नहीं होता था। सत्तर प्रतिशत पुरुष तो नौकरी के लिए गांव से बाहर शहरों में रहते थे। जो गांव में रहते थे उनमें 50 प्रतिशत पुरुष शराब नहीं पीते थे। बाकी जो 50 प्रतिशत पीते थे, उनकी पत्नियों की स्थिति बहुत खराब थी।
(Article by Nirmala Bora)

जिन महिलाओं के पति नौकरी के लिये गाँव से बाहर थे वे अधिकांशतया फौज में थे। ये महिलाएं अपना समय निकालकर अपने पतियों के लिए चिट्ठी लिखवाने मेरे पास आती थीं। मैं उन की बातों को ध्यान से सुनती थी, समझती थी और उनकी भावनाओं को जैसा वे चाहती थी, वैसा ही चिट्ठी में लिख देती थी। हर महिला का अपने पति के लिए पहला प्रश्न यह होता था कि घर कब आओगे? दूसरा वे लिखवाते थे कि पैसे भेज देना बच्चों को स्कूल भेजना है। सास भी बीमार रहने लगी है।

हर कोई यह लिखना चाहता था कि मुझे तुम्हारी याद आती है पर शर्म से नहीं लिखवा पाती थी। मैं स्वयं ही लिख देती थी। उनके पति भी खुश हो जाते थे। उनके अगले पत्र में लिखा होता था कि आजकल पत्र किस से लिखवा रही हो? उनको खुश देकर मुझे भी अच्छा लगता था। जब मेरी छुट्टियाँ खत्म होने वाली  होती थीं तो उनको बुरा लगता था क्योंकि फिर उनको पोस्टमैन से चिट्ठी लिखानी पड़ती थी।

उस जमाने में बहुएं अपने मायके से अपने लिए कुछ खाने की चीजें जैसे शक्करपारे या च्यूड़े लेकर लाती थीं। साथ में नहाने व कपड़े धोने का साबुन तथा तेल-कंघी आदि भी लाती थीं। इनको वह अपने बक्से में रखती थीं तथा उसमें ताला लगा देती थीं। ये सामान खत्म होते-होते उनका मायके जाने का समय हो जाता था।
(Article by Nirmala Bora)

चैत्र के महीने में मायके से उनकी भिटौली आती थी। एक बड़ा डाला (टोकरी) जिसमें सरसों के तेल की पूरी व हलवा होता था। साथ में उसके लिए कपड़े और रोजमर्रा का सामान (नहाने का साबुन, कपड़े धोने का साबुन व सिर का तेल) जरूर आता था। सारे सामान को बक्से में बंद करके रख लेती थीं। परन्तु पूरी व हलवा पूरे गाँव में बांटती थी। एक पूरी उसमें थोड़ा हलवा घर-घर जाकर देती। कहती मेरी भिटौली आयी है। वह उसके लिए बहुत खुशी का पल होता था।

उस जमाने में समय के अभाव के कारण हमारे गांव में महिलाओं द्वारा पूजा-पाठ नहीं किया जाता था। लेकिन कोई पर्व आता तो महिलाएं अंधेरे में उठकर सरयू नदी से नहाकर तथा पानी लेकर आती। फिर मिट्टी से घर लीपती थीं। तब एक दिया जलाती थीं। जो बाकी पूजा होती थी, उसके लिए गांव का पुरोहित आ जाता था। वे घर-घर जाते थे और उनको दान-दक्षिणा दे दिया जाता था। नवरात्रियों में गाँव में दुर्गा मां का मन्दिर है जहां महिलाएं जो भी भेंट उनके पास हो चढ़ा आती थीं। बस यहीं पूजा कर पाती थी वे महिलाएं।
(Article by Nirmala Bora)

एक बार हम दीपावली पर गांव गये थे। उस समय फसल (धान) कटाई का समय था। गांव की महिलाएं सब खेतों में थीं और रात सात-आठ बजे तक वे अपने घरों को लौट रही थीं। जिनके घर में बड़े बच्चे या पुरुष थे, वे फूलों की माला बनाकर दरवाजे पर लगा रहे थे। दिये पानी में भिगाकर सुखा रहे थे पर जो महिला अकेले बच्चों के साथ गांव में रहती थी, उनके बच्चे दीवाली की रात में मां के खेत से आने के इंतजार में अपने आंगन की दीवार पर बैठकर घर आती महिलाओं को देखते रहते थे। सोच रहे होंगे कि हमारी मां कब आयेगी? थकी-हारी मां घर पहुंचकर बोझ नीचे फेंककर भैंस को अन्दर बांधती है, दूध दुहती है क्योंकि रात हो गई थी फिर वह अन्दर आती तो सोचिये उस मां के बच्चों की कैसी दिवाली रही होगी। मां को कितना बुरा लगा होगा, वह तो वही समझ सकती है या उसके बच्चे समझ सकते थे।

पर अब समय बदल गया है। जो उस वक्त बहुएं थीं, वे आज उम्रदराज हो गयी हैं। उनकी बहुएं-बेटियां हैं। अब ये महिलाएं घाघरे से साड़ी में आ गयी हैं। बिना पूजा-पाठ किये चाय नहीं पीतीं। कितने तरह के उपवास रखने लगी हैं। नवरात्रियों में पूरा व्रत रखती हैं। अपनी बहुओं व बेटियों को पढ़ा रही हैं। सब की बहुएं नौकरी कर रही हैं। कोई ग्राम प्रमुख है, कोई सभापति है। अब पुरानी महिलाओं के हाथ में भी मोबाइल फोन है। महिला संगीत हो या भजन कार्यक्रम, सब में वे आगे हैं। एक उम्रदराज महिला का बेटा कुछ नहीं करता पर वह अपनी बहू को वह सब देती है जो औरों की बहुओं के पास होता है। कहती है, मेरी बहू किसी से कम क्यों रहे? अब हमारी सास का जमाना गया। जो कष्ट हमने सहे तथा जो हमारे साथ हुआ, मैं अपनी बहू के साथ क्यों करूं?

आज उन महिलाओं को देखकर लगता है कि ये महिलाएं हमसे कितनाआगे निकल गई हैं।
(Article by Nirmala Bora)

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