मैं ‘उत्तरा’ के लिए क्यों लिखता हूँ?
-आशुतोष उपाध्याय
‘उत्तरा’ की 30 साला यात्रा का गवाह होने पर किसे गर्व न होगा। एक ऐसी पत्रिका, जिसके पास कोई सांस्थानिक आर्थिक संबल नहीं है लेकिन वह न केवल नियमित प्रकाशन के लिए बल्कि महिला आन्दोलनों के पक्ष में बोलने और लड़ने के लिए जानी जाती है। मुझे भी कई बार इसमें लिखने का अवसर मिला है। ठीक-ठीक याद नहीं कि पहली बार ‘उत्तरा’ के लिए कब लिखा लेकिन लिखने की वजह बिल्कुल साफ है। छात्र जीवन से ही मेरी दिलचस्पी जन आंदोलनों में रही। संभवत: ‘चिपको’ और ‘नशा नहीं रोजगार दो’ जैसे आंदोलनों की प्रेरणा और कालांतर में उत्तराखंड संघर्ष वाहिनी के कार्यकर्ताओं की संग-सोहबत मुझे भी सामाजिक बराबरी के आंदोलनों की धारा में बहा ले गई। आंदोलनों में हिस्सेदारी ने समाज, संस्कृति और परम्पराओं में गुंफित अन्याय को देखने की दृष्टि पैदा करने को प्रेरित किया। दृष्टि पैदा हुई कि नहीं, कहना कठिन है, मगर न्याय के लिए समर्पित संघर्षों व आंदोलनकारियों के प्रति स्थाई अपनापन जरूर पैदा हो गया। यही अपनापन ‘उत्तरा’ से जुड़ने की भी वजह बना, जो स्वयं आंदोलनों की खुराक पर पलने वाली एक जरूरी पत्रिका है।
(Article by Ashutosh Upadhyay)
इस तथ्य में बहस की जरा भी गुंजाइश नहीं कि हमारा समाज स्त्रियों के प्रति घनघोर रूप से अन्यायपूर्ण है। हर जगह, कदम-कदम पर होने वाली गैर-बराबरी से लेकर स्त्रियों पर होने वाली हिंसा साबित करती है कि उन्हें देवी का दर्जा देने वाला समाज वास्तव में कितना पाखंडी है। घर, बाहर या कार्यस्थलों में अन्याय और हिंसा का वातावरण किसी दैवीय अभिशाप का परिणाम नहीं है बल्कि इसका स्रोत धर्म से निर्देशित होने वाली हमारी पारिवारिक संस्कृति में मौजूद है। परिवार ही निश्छल बाल मन में लैंगिक भेदभाव पर आधारित ‘मर्दाने’ और ‘जनाने’ संस्कारों का बीज रोपता है, जो हमारी रस्मों, रीति-रिवाजों और परंपराओं में कूट-कूटकर भरे हुए हैं। यही बीज बाद में पुरुष सत्ता के मजबूत वटवृक्ष का रूप लेते हैं। स्कूलों में पढ़ने वाले किशोर जब लड़कियों पर फब्ती कसते हैं, सीटी बजाते हैं या छेड़खानी करते हैं तो यह समझना मुश्किल नहीं कि इन हरकतों का वैचारिक औचित्य उन्हें कहां से मिलता होगा! कौन भाइयों के मन में बहनों के जीवन का स्वघोषित पहरेदार होने का भाव भरता है! कौन पतियों को पत्नियों के तन, मन और धन का स्वामी होने का अहसास कराता है! इस प्रकार पुरुष श्रेष्ठता से संस्कारित बालक कालांतर में एक ऐसे खौफनाक सामाजिक वातावरण का निर्माण करते हैं, जिसकी बानगी हम रोज अपनी आंखों के सामने देख सकते हैं। हमारे देश में इस स्त्री-विरोधी वातावरण की परंपरा नई नहीं है। महाभारत में द्रौपदी का चीरहरण हो या फिर रामायण में सीता की अग्निपरीक्षा, हमारे पौराणिक मिथक भी स्त्रियों पर होने वाले अन्याय और उत्पीड़न का महिमामंडन करते हैं। हैरत की बात है कि आधुनिकता के साथ इसने खुद को पहले से ज्यादा मजबूत और हिंसक बनाया है।
‘उत्तरा’ अपने जन्म से ही स्त्रियों के अधिकार और उनके प्रति होने वाले अन्याय को लेकर मुखर रही है। यह बात भी उल्लेखनीय है कि इसने मुनाफे पर चलने वाली कारोबारी पत्रिका की सुरक्षित राह चुनने के बजाय वैचारिक समर्थकों के अंशदान-सहयोग पर चलने का कठिन रास्ता चुना। अंक दर अंक अपने अस्तित्व को बचाए रखने का संघर्ष करते हुए ‘उत्तरा’ पिछले 30 सालों से लगातार निकल रही है, तो इसका एक मतलब यह भी है कि अन्याय के प्रतिकार की गुंजाइश अभी बाकी है।
मेरे लिए ‘उत्तरा’ के लिए लिखना दरअसल स्त्री-मुक्ति के आईने में खुद को देखने जैसा है। एक पुरुष के रूप में हम उन मूल्यों पर कितना खरा उतरते हैं, जिनकी बौद्घिक वकालत करते कभी थकते नहीं। शायद यही वजह रही होगी कि मैंने बहुत कम मौलिक लेख ‘उत्तरा’ के लिए लिखे होंगे। मेरी कोशिश रही कि स्त्री-संघर्ष की उन कहानियों को सामने लाया जाए, जो ‘उत्तरा’ के नौ-उम्र पाठकों के लिए प्रेरक हो सकती हों। इस क्रम में मैंने भारतीय विज्ञान अकादमी के चर्चित ग्रंथ ‘लीलावती डॉटर्स’ की चुनिंदा प्रस्तुतियों का ‘उत्तरा’ के लिए हिन्दी में अनुवाद किया। इस ग्रंथ में भारत की उन महिला वैज्ञानिकों की जीवनियां संकलित हैं, जिन्होंने तमाम अड़चनों के बीच उच्च शिक्षा लेकर वैज्ञानिक शोधों में विशेष योगदान दिया। ऐसे ही कई और अनुवाद भी समय-समय पर ‘उत्तरा’ में प्रकाशित होते रहे।
(Article by Ashutosh Upadhyay)
ऐसा नहीं कि ‘उत्तरा’ के नजरिए से हमेशा पूरी तरह सहमति रही हो। कई बार ऐसा लगा कि ‘उत्तरा’ संस्कृति, परंपरा व उसकी विरासत के प्रति जरूरत से ज्यादा उदार रुख रखती है और उनमें मौजूद स्त्री-विरोधी पहलुओं की उपेक्षा करती है। जबकि जरूरत इस बात की है कि संस्कृति के तमाम पहलुओं को नारीवादी नजरिए से देखा-परखा जाए। उन रस्म-रिवाजों की निर्मम चीर-फाड़ की जाए, जो पुरुष वर्चस्व को न सिर्फ टिकाए रखते हैं बल्कि पीढ़ी-दर-पीढ़ी आगे भी बढ़ाते हैं। आज जब धर्म और संस्कृति की ओट में स्त्री-उत्पीड़न के सारे रिकार्ड ध्वस्त हो रहे हों, नारीवादी आलोचना के औजारों को तेज करना समय की मांग है।
हमारी सामाजिक व्यवस्था और संस्कृति, वास्तव में, मनुष्य जनित अन्याय के चार स्तम्भों पर टिकी है। इन स्तम्भों की बुनियाद संभवत: तब रखी गई जब घुमंतू मानव कृषि आधारित स्थाई बसासतों के युग में पहुंचा। माना जाता है कि मानव इतिहास का पहला अन्याय स्त्रियों को दोयम दर्जा देने के साथ हुआ। इसके बाद अन्याय के दो और स्तम्भ निर्मित हुए, जिन्हें आज हम जाति-धर्म-रंग आधारित अन्याय तथा वर्ग आधारित अन्याय के रूप में पहचानते हैं। अन्याय के इन तीनों स्तम्भों को समाज व संस्कृति का भरपूर संरक्षण प्राप्त है़ सामाजिक व सांस्कृतिक जीवन में इन्हें पहचाने और इनका उन्मूलन किए बिना हम न्यायपूर्ण समाज होने का दावा नहीं कर सकते। अन्याय का चौथा स्तम्भ है प्रकृति के साथ अन्याय, जिसके कारण आज समूचे जीव-जगत का अस्तित्व ही खतरे में दिखाई दे रहा है। उपभोक्तावादी संस्कृति का जिस तेजी से हमारे जीवन में विस्तार हो रहा है, उसने इस खतरे को कई गुना बढ़ा दिया है।
कई बार ऐसा भी लगता है कि ‘उत्तरा’ के लेखों को खास तरह की एकरसता या मोनोटोनी जकड़े रहती है। उदासी जैसे उसका स्थाई भाव है। उल्लास मनुष्य के सहज स्वभाव का हिस्सा है और विकट परिस्थितियों में भी वह उसे छोड़ता नहीं। अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करती हुई स्त्रियां जीवन के उल्लास को कैसे छोड़ सकती हैं! इनके चित्र भी ‘उत्तरा’ में दिखाई देने चाहिए। इसी तरह स्कूली बच्चों के लिए भी कुछ न कुछ सामग्री अवश्य होनी चाहिए ताकि बचपन से ही उनमें लैंगिक समानता की संवेदना जगाई जा सके। अन्यथा पाठ्यपुस्तकें तो परोक्ष रूप से लैंगिक भेदभाव को मजबूत करने की अपनी परंपरागत जिम्मेदारी निभा ही रही हैं।
‘उत्तरा’ को दीर्घ जीवन की शुभकामना के साथ-साथ यह भी अपेक्षा है कि वह नई पीढ़ी को उसके वैचारिक धुंधलेपन से बाहर निकालने में कामयाब होगी। ‘उत्तरा’ की विरासत को थामने वाले नए साथी, समय के साथ इसे नए-नए कलेवरों में पाठकों तक पहुंचाएंगे। और यह उन सभी को उद्वेलित करती रहेगी जो इस दुनिया को बदलना चाहते हैं या जस का तस बनाए रखने की जुगत में लगे हैं।
(Article by Ashutosh Upadhyay)
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