महापुरुषों के सान्निध्य में: संस्मरण 8

-उमा अनन्त
पराधीनता उस देश की भाषा, कला, संस्कृति पर ही प्रहार नहीं करती बल्कि आत्मा तक भेदती हुई उसे क्षत-विक्षत कर देती है। ए.ओ. ह्यूम द्वारा उबलती केतली से, ‘नरम दल’, ‘गरम दल’, ‘क्रान्तिकारी दल’ जैसे विभिन्न दल स्थापित हो गए। प्रवक्ता यूनिर्विसटी की नौकरी छोड़कर स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े। कुछ ने गवर्नमेंट की नौकरी से इस्तीफा दे दिया। छात्र-छात्राएँ भी निडर होकर आन्दोलन में योगदान के लिए तत्पर थीं। ‘साईमन कमीशन’ का बहिष्कार, ‘करो या मरो’ का नारा, ‘अंग्रेजो भारत छोड़ो’ के शंखनाद से समूचा देश गूंज उठा। कुछ देश पर न्योछावर हो गये और कुछ फिरंगियों के अत्याचार और दमन के भयावह तरीकों से तन-मन-धन एवं स्वास्थ्य गंवा बैठे। माननीय श्री गोविन्द बल्लभ पंत के कांधे पर लाठियों का ऐसा भयानक प्रहार हुआ कि गर्दन की नस दब जाने से उनका मस्तक हर समय हिलता और कंपायमान रहता था। ऐसे स्वतंत्रता सेनानी के लिये मेरे मन में विशेष आदर था।
(Memoir by Uma Anannt)
आज उनकी बैठक में प्रवेश करते ही मैंने नत-मस्तक हो उनके चरण-स्पर्श किये, उन्होंने गम्भीरता से मेरी ओर निहारा और अकस्मात चुप्पी धारण कर ली। मुझे समझ में ही नहीं आया कि मुझसे क्या गलती हुई है। उसी दिन सायंकाल माननीय पंत जी ने बाबा को बुला कर पूछा, ‘तुमने उमा का विवाह कर दिया और हमें बतलाया तक नहीं???’ तुम्हेंं पता है उमा को घर में सभी कितना स्नेह करते हैं। उसके गले में काले मोतियों की मटरमाला से ही मुझे पता चला।
काले मोती मंगलसूत्र की तरह पहाड़ी संस्कृति में गले में धारण किये जाते हैं। मुझे इसका ज्ञान ही नहीं था। अपनी सहेलियों के साथ जनपथ पर मोटे-मोटे काले मोतियों की मटरमाला खरीदकर, नए-नए फैशन के फलस्वरूप धारण करने का जोखिम हम सभी सहेलियों ने उठाया था। घर पर पहुंचते ही बाबा ने क्रोध से ऊंचे स्वर में कहा कि भविष्य में तुम वह काले मोतियों की माला धारण नहीं करोगी। हमारे पहाड़ में काले मोतियों का मंगलसूत्र केवल विवाहित सधवा स्त्रियां ही धारण करती हैं।
मैंने अगले रविवार को ईजा को पूरी घटना का ब्योरा दिया तो सुनकर वे मंद-मंद मुस्कुराने लगीं। उन्होंने कहा कि उमा, तुम अभी पहाड़ी संस्कृति से अनभिज्ञ हो। धीरे-धीरे तुम्हें समय रहते सब पता चल जायेगा। हमारी संस्कृति हमारे क्रिया-कलापों में झलकती है। हमारे पूर्वजों और पीढ़ियों से प्राप्त जिस परिवेश में जन्म लेते ही हम सांस लेते हैं, वह जाने-अनजाने हमारे अन्तर्मन तक को ऊष्मा प्रदान करती है, सींचती हैं। हमारी यही संस्कृति हमारी पहचान है। भारतीय संस्कृति को तो सम्पूर्ण विश्व अपने ‘विश्व गुरु’ की भांति देखता है और नत-मस्तक हो जाता है।
आज माननीय पंत जी की कोठी में विशेष हलचल थी। राजाभाई (श्री कृष्ण चन्द्र पंत) अध्ययन के लिए जर्मनी प्रस्थान करने वाले थे। बाहर जाने का उत्साह, परन्तु काफी समय तक दूर रहने का विचार भी हृदय को मथ रहा था।
आखिर वह समय आ गया जब भारी मन से माननीय पंत जी के परिवार के हम सब उन्हें एयरपोर्ट तक विदा करने गये। सबने गेंदे के पुष्पों की माला पहनाकर सोत्साह राजाभाई को विदा किया। एक भी सदस्य जब परिवार से दूर जाता है, चाहे वह किसी भी शुभ कार्य के लिये ही क्यों न हो, मन का भारी होना स्वाभाविक ही है।
घर में जब कभी मिष्ठान्न बनता तो राजाभाई अवश्य पूछते, ‘उमा बहन के लिए भी तो रखा है न?…’
राजा भाई ने मुझे अपनी बहिन समान जो आदर दिया, वह मैं आजीवन कभी नहीं भूल पाऊंगी। 11 मार्च, सन् 1984 को अनन्त जी के सिर और कंधे पर कम्बल ओढ़ाकर जो प्रहार किया गया था, (वे पर्वतीय टाइम्स के सम्पादक थे) उसके फलस्वरूप मैं और मेरे बच्चे बहुत घबराये हुए थे। लिकर माफिया की खबर न छापने का दबाव अस्वीकार करने पर अनन्त जी को लगातार धमकियां मिल रही थीं।
(Memoir by Uma Anannt)
सिर पर किये गये आघात के कारण अनन्त जी ‘हेल्यूसिनेशन (मतिभ्रम)’ के शिकार हो गए थे। राममनोहर लोहिया अस्पताल में डॉ. ब्रह्म प्रकाश उनका इलाज कर रहे थे। चौथी मंजिल की बालकनी की कुर्सी पर बैठकर अपने दोनों पैर हिलाते हुए बार-बार यह शेर दोहराते रहते-
‘चलो इक बार फिर से अजनबी बन जाएं हम दोनों’
मैं विद्यालय जाने की तैयारी कर रही थी, तभी अनन्तजी ने कहा ‘‘अगर मैं लिख नहीं पाया तो मेरा जिन्दा रहना व्यर्थ है। मैं चौथी मंजिल से कूदकर प्राण त्याग दूंगा।’’ इसी परेशानी के बीच मेरा तबादला शाहदरा हायर सेकेन्ड्री स्कूल, भोलानाथ नगर कर दिया गया। सुबह सात बजे की शिफ्ट में गोलमार्किट से शाहदरा पहुंचना मेरे लिए एक नई चुनौती थी। राजा भाई (श्री कृष्णचन्द्र पंत) उन दिनों शिक्षामंत्री के पद पर आसीन थे। उनकी कोठी पर सुबह-सुबह लोग अपनी समस्याओं के समाधान हेतु पहुँचते थे। सभी लॉन में प्रतीक्षा के लिए एकत्रित थे। मैंने भी अपनी फरियाद लिखकर उनके पी.ए. के हाथ में दे दी। ‘कष्ट मैं हूँ- आपकी बहन उमा।’ तत्काल राजा भाई ने मुझे अन्दर बुलाया। मैंने उन्हें स्वयं पर आई आपदा और परिस्थिति से अवगत कराया। मेरा तबादला ‘भोलानगर शाहदरा’ विद्यालय से माता सुन्दरी विद्यालय में कर दिया गया।
एक दिन लगभग सुबह दस बजे के करीब कुछ लोग गोल मार्किट में मेरे आवास पर आए। उन्होंने अपनी आपबीती में बताया कि किस प्रकार उनकी 19 वर्षीय पुत्री को उसके पति और ससुर ने दहेज कम लाने पर प्रताड़ित करते हुए, अमानुषिकता और बर्बरता से पीटते हुए उसे छत के पंखे से लटका दिया। कहा गया कि उसने स्वयं किन्हीं कारणों से स्वयं यह कदम उठाया है। हमने पुलिस में रिपोर्ट की है फिर भी पुलिस कोई उचित कार्यवाही नहीं कर रही है। पति और ससुर बेखौफ निडर होकर खुले में घूम रहे हैं।
(Memoir by Uma Anannt)
गिने-चुने लोगों और आत्मीयजन के साथ हम राजा भाई के आवास पर पहुंचे। भीड़ में मुझे देखते ही उन्होंने मुझे अपने पास बुलाया। धीमे स्वर में कहा ‘वहां बहुत धूप है, यहां छांव में आ जाओ…।’ राजा भाई ने पी.ए. को बुलाकर इस पर तत्काल कार्यवाही करने का निर्देश दिया। अगली सुबह उस लड़की का पति और ससुर जेल भेजे गए। राजा भाई के विवाह के उपरान्त भी उनका सहयोग एवं स्नेह पूर्णरूपेण मिलता रहा।
मां के हाथ के कीमे के भरवे करेले राजा भाई को बहुत पसंद थे। एक दिन मां आठ करेले कटोरदान में रख कर (7 त्याग राज मार्ग, तीन मूर्ति के पास) उनके आवास में पहुंच गई। अपना परिचय देने पर सफेद कपड़ों में सिक्योरिटी के अधिकारी ने मां को सीढ़ियां चढ़ने में मदद करते हुए ड्राइंग रूम में ले जाकर बिठाया। मां को देखकर प्रसन्नता से राजा भाई ने कहा, ‘इला, देखो मां जी आई हैं, मेरे लिए कीमे के भरवां करेले भी लाई हैं…’ मां खुशी के आंसू लिए आशीर्वाद देते हुए, गद्गद् हो वापस अपने निवास स्थान पर पहुंची।
हमारे परिवार की ओर से जब भी कभी बच्चे के मुंडन या विवाह का न्योता भेजा जाता, राजा भाई और इला दोनों ही सप्रेम शरीक होते। माननीय पन्त जी का शरीर अब पहले के समान स्वस्थ नहीं रह गया था। उन्हें घोर कब्ज की शिकायत हो गई थी। एक घंटे तक का समय लगने पर भी पेट पूरी तरह साफ नहीं हो पाता था। ईजा ने बताया कि उन्होंने खान-पान में भी कटौती कर दी है। फिर भी फर्क दिखाई नहीं देता।
माननीय पंत जी को रविवार के दिन भी मेरा दिखाई न पड़ना खलता था। वे ईजा से पूछते, ‘उमा, दिखाई नहीं दी?’ ईजा को बताना पड़ता कि उसकी वार्षिक परीक्षाएं हो रही हैं, तैयारी करनी पड़ती है, इसीलिये समय नहीं निकाल पाई।
बाबा आज बहुत उदास थे। उन्होंने बताया कि माननीय पंत जी ‘कोमा’ में चले गए हैं। यह खबर एक वज्रपात के समान भयंकर थी। विद्यालय से लौटने के बाद मैं सीधे माननीय पंत जी को देखने पहुंच जाती थी। वहां उनका हाल-चाल जानने के लिए तत्कालिक राजनीति से सम्बन्धित विशेष लोग, कुमाऊं और गढ़वाल से आए उनके शुभचिन्तक भी पहुंचते थे। सिक्योरिटी के अधिकारी मुझसे कहते थे, उमा अब घर जाओ, कल फिर आ जाना।
मैं अश्रुपूरित नेत्रों से ‘पहाड़ी चट्टान’ जैसे शरीर धारण किए माननीय पंत जी की ओर एकटक निहारती रहती। मैंने काले मोतियों की माला धारण कर ली थी तो वे अचानक चुप हो गए थे। पर वह माला मैंने फिर नहीं पहनी। लगातार उनके समीप खड़ी हूं पर उनका हाथ आशीर्वाद के लिए नहीं उठता। कभी-कभी मैं स्वयं को भाग्यशाली मानती हूं कि लोग मुझसे अत्यधिक स्नेह रखते हैं। माननीय पंत जी ईजा से प्रश्न करते हैं, इन पिछले दो रविवारों में उमा दिखाई नहीं दी, या ईजा मुझे याद करते हुए कहती हैं, ‘उमा की याद आ रही है, आज घर में मशरूम और पालक की सब्जी बनाई थी…’
उन हिम महापुरुष के सान्निध्य में रहने का सौभाग्य भी किसी-किसी बिरले के ही भाग्य में होता है, ऐसा मैं मानती हूं। भवाली में लच्छी से बीच-बीच में मिलना सम्बन्धों की कड़ी में पिरोए मोतियों के समान था।
(Memoir by Uma Anannt)
क्रमश: …
अगली कड़ी यहां देखें: अनन्त जी से मुलाकात: संस्मरण 9
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