‘उत्तरा’ के तीस वर्ष

Uttara Editorial Oct Dec 2020

-विनीता यशस्वी

आज से 30 साल पहले उत्तराखंड की ‘कुछ महिलाओं’ को ये विचार आया कि महिलाओं की भी अपनी पत्रिका निकलनी चाहिये जिसमें महिलाओं के मुद्दों पर बात की जा सके और उस पत्रिका को निकालने की जिम्मेदारी भी महिलाओं की ही हो। इन ‘कुछ महिलाओं’ को ये विश्वास था कि वे इस महिला पत्रिका का संचालन स्वयं कर सकती हैं। इसी आत्मविश्वास के साथ उन्होंने महिला पत्रिका को निकालने की ठान ली। इस सोच और आत्मविश्वास के साथ नींव पड़ी उत्तराखंड की पहली त्रैमासिक महिला पत्रिका की जिसका नाम रखा गया ‘उत्तरा महिला पत्रिका’।
(30 Years of Uttara)

सन् 1990 के अकटूबर-दिसम्बर माह में ‘उत्तरा’ का पहला अंक निकला। इस अंक की संपादक टीम में उमा भट्ट, शीला रजवार, कमला पन्त और बसन्ती पाठक शामिल थे। आवरण में पदम्श्री डॉ़ यशोधर मठपाल के द्वारा बनाया चित्र है जो पहाड़ की महिलाओं की कठिन जिन्दगी का सजीव चित्रण करता है। अंक के कवर पेज के अंदर के पृष्ठ में गीता गैरोला की तीन कवितायें ‘पहाड़ी माँ’, ‘सपना’ और पीछे के बाहरी कवर में श्रीमती राजी देवी टोलिया का छोटा लेख ‘पहाड़ की शेरनी’ को प्रकाशित किया गया। इस अंक की कीमत रखी गयी 8 रुपये। वार्षिक सदस्यता शुल्क 30 रुपये और आजीवन सदस्यता शुल्क 300 रुपये। पहले अंक को बेहद सीमित सामग्री के साथ निकाला गया। हालांकि इस पहले ही अंक में ‘उत्तरा’ को कई लोगों ने आर्थिक सहयोग भी किया जिसमें पुरुषों ने भी बराबर की हिस्सेदारी निभायी।

पत्रिका के सम्पादकीय को नाम दिया गया ‘उत्तरा का कहना’ है। अपने पहले सम्पादकीय में ‘उत्तरा’ की जरूरत को समझाते हुए सम्पादक मंडल ने लिखा- उत्तरा क्यों? उत्तरा महिला पत्रिका क्यों? यह प्रश्न आप लोगों के मन में उठ सकता है… महिला पत्रिकाओं की बाजार में बाढ़-सी आई हुई है, किन्तु अलग से निकली इन पत्रिकाओं ने स्त्री को कोई सम्मानजनक स्थान दिलाने वाली अवधारणाओं का प्रतिपादन किया हो, ऐसा आम तौर पर दिखायी नहीं देता। अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए सम्पादक मंडल ने लिखा – मुख्य समस्या सोच की है। महिलाओं के लिये विशेष कुछ सोचते समय लेखक हो या राजनीतिज्ञ, परिवार के सदस्य हों या सामाजिक कार्यकर्ता, अपना दृष्टिकोण उस पर लादना चाहते हैं। किन्तु उसकी सोच को तरजीह नहीं देते। …वह पत्थर की सजावटी मूर्ति नहीं, जिसे जहाँ चाहे उठाकर रख दिया जाये। वह अपने बैठने, खड़े होने और चलने की जगह चुन सकती है। चुनना चाहती है और चुनेगी…

अपने पहले ही दमदार सम्पादकीय से ‘उत्तरा’ ने स्पष्ट कर दिया की वह इस महिला पत्रिका के लिये क्या सोचती है और इस पत्रिका के माध्यम से स्त्री-जीवन में किन बदलावों का सपना देख रही है। पहले अंक में पहला लेख दिनेश तिवारी ने लिखा, जिसमें उन्होंने पहाड़ी स्त्री के कठिन जीवन के विषय में विस्तार से लिखा। पत्रिका का दूसरा लेख बसी/शीला द्वारा किये गये सर्वे पर आधारित है जिसमें उन्होंने यह जानने की कोशिश की कि महिलायें आखिर सोचती क्या हैं? इस सर्वे के लिये इन्होंने विविध आय वर्ग, उम्र, शिक्षा वाली 26 महिलाओं से सवाल पूछे और इस सर्वे से यह तथ्य निकलकर आया कि सभी महिलाओं ने आत्मनिर्भर होने पर बल दिया। सभी महिलाओं का मानना था कि उन्हें संगठित होकर समाज में फैल रही बुराइयों का विरोध करना चाहिये। इसी अंक में सावित्री कैड़ा ने स्वतंत्रता सेनानी श्रीमती बिश्नी देवी साह का विस्तृत परिचय  दिया। स्व़ योगेश धस्माना जी ने इस अंक के लिये ललिता वैष्णव का इंटरव्यू तैयार किया। उत्तरा के प्रवेशांक में लोकगीतों, लोक परम्पराओं और त्यौहारों को भी स्थान दिया गया। इस प्रवेशांक में बीना पाण्डे ने कुमाउंनी समाज में महिलाओं की हिस्सेदारी के विषय में व्यापक चर्चा की है तो उमा भट्ट ने विभिन्न स्थानों में महिलाओं पर हो रहे उत्पीड़नों को संकलित कर महिला हिंसा के मुद्दे को उठाया है।

इस अंक में साहित्य को भी जगह दी गयी। जिसमें कृष्णा रैणा द्वारा कश्मीरी कथा साहित्य में महिलाओं की भूमिका पर प्रकाश डाला गया और सुप्रसिद्घ साहित्यकार स्व़ शैलेश मटियानी जी की कहानी ‘कौवा’ को प्रकाशित किया गया। अंतिम पन्ने को बच्चों के लिये सुरक्षित करते हुए बच्चों के लिये दो कहानियाँ ‘गेहूं का दाना’ और ‘कबूतर-कबूतरनी’ को प्रकाशित किया गया। यह पहला अंक 40 पृष्ठों का था।
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यहाँ से ‘उत्तरा’ के प्रकाशन का जो सिलसिला शुरू हुआ तो फिर यह कारवां आगे बढ़ता ही चला गया और धीरे-धीरे लोगों के बीच इसकी पकड़ भी बनती चली गयी। इस महिला पत्रिका की एक अच्छी बात यह रही कि यह पत्रिका सिर्फ महिलाओं के लिये ही नहीं थी हालांकि इसमें ज्यादातर महिलाओं से संबंधित विषयों को ही महत्व दिया गया था पर पत्रिका के लेखक और पाठक वर्ग में पुरुष वर्ग की भी बराबर की भागीदारी रही और उसका मुख्य कारण था पत्रिका में प्रकाशित होने वाली सामग्री। आमतौर पर महिला पत्रिकाओं में जिस तरह की सामग्री प्रकाशित होती है, उससे हटकर यह पत्रिका एक गंभीर चिंतन के साथ प्रकाशित हुई।

‘उत्तरा’ के दूसरे वर्ष का दूसरा अंक 19 अक्टूबर 1992 को गढ़वाल में आये भीषण भूकम्प पर निकाला गया। इस अंक के सम्पादकीय में सम्पादक मंडल ने सरकार से प्रश्न उठाया- ताजुब्ब तो सरकार की मुआवजा नीति पर भी होता है। दिल्ली सुराकांड के मृतकों को सरकार 50,000 रुपये का मुआवजा देती है। ऋषिकेश  के सुरा मृतकों को 20,000 रुपये और इस भूकम्प के मृतकों को भी 20,000 रुपये। यदि एक परिवार से तीन लोगों की मृत्यु हुई है तो 60,000 रुपये का मुआवजा दिया जा रहा है। उत्तरा के संपादक मंडल ने प्रश्न उठाया है कि- यदि मृतकों की अधिकतम संख्या 900 भी हो जाये और अधिकतम मुआवजा 50,000 कर दिया जाये तो भी साढ़े चार करोड़ रुपये ही सरकार को देने होंगे। ‘उत्तरा’ के इस अंक के सम्पादकीय में टिहरी बांध को लेकर भी गंभीर सवाल उठाये गये।
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‘गढ़वाल भूकम्प’ पर आधारित इस अंक में बी़ आऱ पंत द्वारा गढ़वाल के भूकम्प प्रभावित इलाकों पर गहन अध्ययन कर आलेख दिया गया। उन्होंने अपने आलेख में भूकम्प के आने के कारणों का भी विस्तृत अययन  किया। भूकम्प आने के लगभग 20 दिन बाद उत्तरा की 6 सदस्यीय टीम ने 7 दिन तक गढ़वाल मंडल का दौरा कर जिला उत्तरकाशी और जिला टिहरी के भयावह हालातों का ब्यौरा दिया। कनक रावत और उमा भट्ट ने उत्तरकाशी की स्थितियों के बारे में लिखते हुए बताया कि किस तरह से उत्तरकाशी के गाँव इस भूकम्प से प्रभावित हुए हैं और अभी तक भी उनके पास किसी तरह की राहत नहीं पहुँच पायी है और जिन जगहों में सरकारी राहत पहुँची भी है तो ग्रामीण खुश नहीं हैं। टीम ने अपने दौरे में पाया कि इन गाँवों में मृत मनुष्यों की संख्या का तो फिर भी पता लग सका है पर मकान, मकानों के सामान, पशु, खेत, चारागाह, सरकारी भवन, स्कूल, सार्वजनिक भवन जैसी कई अन्य चीजों को हुए नुकसान के आंकड़े इकट्ठा नहीं हो पाये हैं।

टिहरी जिले के दौरे की रिपोर्ट नमिता हरबोला और भवानी प्रसाद भट्ट ने तैयार की। टिहरी के गाँवों की स्थिति भी अमूमन उत्तरकाशी जैसी ही थी। जितना नुकसान हुआ है, उसके मुकाबले सरकारी राहत काफी नहीं थी। इस भूकम्प के नुकसान का एक आंकड़ा  शेखर पाठक ने दिया जिसके अनुसार गढ़वाल के उत्तरकाशी, चमोली और टिहरी जिले इस भूकम्प से प्रभावित हुए और इस भूकम्प में मृतकों की संख्या 780 से अधिक थी और लगभग 370 करोड़ से अधिक की सम्पत्ति को नुकसान पहुँचा था। इस अंक के लिये उत्तरा की टीम ने उत्तरकाशी के गाँव नैटाला की ग्राम प्रधान माहेश्वरी भट्ट से विस्तृत बात की और यहाँ हुए नुकसान को समझने की कोशिश की। इसी सिलसिले कमला पंत ने एस़एस़ पांगती और राजीव लोचन साह/महेश पाण्डे ने डॉ़ खड्ग सिंह वाल्दिया से भूकम्प की स्थितियों को समझने की कोशिश की।

‘उत्तरा’ मेहनत और विश्वास के साथ आगे बढ़ती रही। पाठकों और लेखकों तथा अन्य सहयोगियों का भी सहयोग उत्तरा को मिलता रहा। उत्तरा के पाँचवे वर्ष में पहुँचने तक उत्तराखंड आंदोलन जोर पकड़ चुका था और इस आंदोलन में महिलाओं ने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया। ‘उत्तरा’ ने पाँचवे वर्ष का पहला अंक उत्तराखंड आंदोलन पर ही निकाला। इस अंक के सम्पादकीय में ‘उत्तरा’ ने लिखा कि- …यह एक बड़ा सवाल है कि कोई भी सामाजिक विषमता हो, अन्याय हो, कुप्रवृत्ति हो, सरकारी योजना हो, समाज का अपराधीकरण हो, सरकारी दमन हो उसका खामियाजा गंभीर रूप से अंतत: महिलाओं को ही भोगना पड़ता है, आखिर क्यों? और कब तक ? उत्तराखंड आंदोलन के जरिये महिलाओं ने अपनी इस लड़ाई की शुरूआत कर दी है, हर उस व्यवस्था के खिलाफ जो उसकी अस्मिता को चोट पहुँचा रही है।

इस अंक के पहले आलेख को उत्तराखंड आंदोलन पर विभिन्न अखबारों में जो छपा उसे इकट्ठा करके प्रकाशित किया गया और दूसरे आलेख में शेखर पाठक ने उत्तराखंड आंदोलन की जरूरत और उसके महत्व को समझाते हुए एक लेख लिखा। इसी अंक में आंदोलन के सिलसिलेवार घटनाक्रम को भी प्रकाशित किया गया और उस समय के मंत्रियों ने उत्तराखंड आंदोलन पर क्या टिप्पणी की थी, इसे भी एकत्र कर प्रकाशित किया गया। चण्डीप्रसाद भट्ट और रमेश पहाड़ी ने अपने लेख के जरिये इस बात पर जोर दिया कि उत्तराखंड की विकट भौगोलिक स्थिति, आवागमन के साधनों का आभाव, आबादी का छितरापन और आर्थिक आधारों की कमजोरी पर्वतीय क्षेत्रों की ऐसी समस्यायें हैं जिनका अनुभव मैदानों में नहीं किया जा सकता है और योजनाएं हमेशा मैदानों को केन्द्र में रख कर बनायी जाती हैं जिससे पहाड़ी इलाके को कोई फायदा नहीं मिलता है इसलिये इस आंदोलन के लिये सड़कों पर आना पड़ा। अंक में उन संघर्ष समितियों का भी उल्लेख है जिन्होंने अपने स्तर से इस आंदोलन को गति दी। हरीश चन्दोला अपने लेख में लिखते हैं- पहाड़ के 60 लाख लोग मानते हैं कि उनसे औपनिवेशिक प्रजा की तरह व्यवहार किया जा रहा है और लोगों को उनकी जीवन शैली के निर्धारण का हक नहीं दिया जा रहा है और आंकड़ों के द्वारा उन्होंने ये समझाया कि कैसे उत्तराखंड का शोषण हो रहा है। निखिल चक्रवर्ती के लेख ‘मुलायम सरकार का बेरहम चेहरा’ को पढ़ने से पता चलता है कि कैसे मुलायम सरकार ने उस समय आंदोलनकारियों पर बर्बरता की। इस अंक में ‘खटीमा नरसंहार’ का भी जिक्र हुआ तो ‘मसूरी हत्याकांड’ की भी पूरी बारीकी से चीरफाड़ की गयी। नीलम गुप्ता ने ‘मुजफ्फरनगर कांड’ में पुलिस द्वारा महिलाओं पर किये अत्याचारों की लम्बी छानबीन कर रिपोर्ट लिखी। इस अंक में उस समय बेहद चर्चा में रहे ‘उत्तराखंड बुलेटिन’ का भी जिक्र है। इसके अलावा उस दौरान हुई कई अन्य छोटे-छोटे प्रयासों को भी अंक में शामिल किया गया।
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‘उत्तरा’ के आंठवे वर्ष का पहला और दूसरा अंक संयुक्तांक के रूप में निकाला गया और यह पूरा अंक समर्पित किया गया आजादी की लड़ाई में हिस्सा लेने वाली महिलाओं को। 96 पेज के इस अंक में बेहतरीन सामग्री का संकलन है। इस अंक का पहला लेख प्रदीप पाण्डे द्वारा लिखा गया जिसका शीर्षक था ‘राष्ट्रीय आंदोलन में महिलायें’। इस लेख में उन्होंने पूरे भारतवर्ष की उन महिलाओं के बारे में विस्तार से लिखा है जिन्होंने राष्ट्रीय स्तर पर इस आंदोलन में बढ़-चढ़ के भाग लिया जिनमें मुख्य थी रानी लक्ष्मी बाई, बेगम हजरत महल, ऐनी बेसेंट समेत कई ऐसी महिलाओं के बारे में लिखा है जिनके बारे में इतिहास में बहुत कम लिखा गया है। खान अब्दुल गफ्फार खाँ की आत्मकथा से ‘वे बहादुर महिलायें’ आलेख को इसमें शामिल किया।  संजय घिल्डियाल ने भी अपने लेख में आजादी के आंदोलनों में महिलाओं की भूमिका का विस्तार से वर्णन किया तो प्रकाशवती पाल और श्रीमती कृष्णा हठीसिंग ने अपने स्वयं के आजादी के आंदोलनों के अनुभव को लिखा है। शीला रजवार ने अपनी रिपोर्ट में रानी झाँसी रेजीमेंट के बारे में बताया। डॉ़ शेखर पाठक ने राष्ट्रीय संग्राम में उत्तराखंड की महिलाओं की भागीदारी पर विस्तृत लेख लिखा। ज्योति साह ने ‘नायक सुधार आंदोलन’ के बारे में बताया है। इसी अंक में सावित्री कैड़ा ने कुमाऊँ की स्वतंत्रता सेनानी महिलाओं को जीवन परिचय दिया। हरेन्द्र कौर ने अपने लेख में लक्ष्मी देवी के बारे में बताया है जो एक स्वतंत्रता संग्रामी की पत्नी थी और इन्होंने आजादी के आंदोलन में अपने पति का साथ भी दिया और अपने घर की देख-रेख भी की।  इस अंक में मालती देवी भट्ट और कुन्ती वर्मा का शेखर पाठक द्वारा लिया एक इन्टरव्यू भी प्रकाशित किया गया है। मंजू थापा ने सुभद्रा कुमारी चौहान पर आलेख लिखा। सरला बहन की आत्मकथा से सल्ट और सालम क्रान्ति के बारे में एक अंश को भी इसमें शामिल किया गया है। इस अंक में आजादी से संबंधित साहित्य को भी भरपूर जगह दी गयी। इतनी मेहनत से निकला यह अंक अपने आप में आजादी के एक इतिहास को समाये हुए है।

1 अगस्त 2000 को अलग उत्तराचंल राज्य की घोषणा कर दी गयी। उत्तराखंड आंदोलन में महिलाओं ने तो अहम भूमिका निभाई ही थी पर ‘उत्तरा’ पत्रिका ने भी इसमें अहम योगदान दिया था इसलिये ये घोषणा  ‘उत्तरा’ के लिये भी कई मायनों में खास थी। अब तक ‘उत्तरा’ अपने दसवें वर्ष में प्रवेश कर चुकी थी और दसवें वर्ष का चौथा अंक अलग उत्तराखंड राज्य पर निकला। इस अंक के सम्पादकीय में सम्पादक मंडल ने लिखा- उत्तराखंड आंदोलन के दौर में जुलूसों में महिलाओं की भारी संख्या होती थी। जेल जाने से वे कभी पीछे नहीं हटीं। शहादत दी। मुजफ्फरनगर में शासन-प्रशासन के अत्याचार सहे़.़.श्रीनगर में अगस्त 1994 से अगस्त 2000 तक धरना चलाया… निरन्तर बहसें की… इसके आगे सवाल उठाते हुए ‘उत्तरा’ कहती है- अब जबकि उत्तराखंड राज्य का सपना साकार हुआ है, ये महिलायें क्या करने जा रही हैं? क्या इन्हें चुपचाप घरों में बैठकर अपने को खपा देना है या उत्तराखंड से जुड़े हर सवाल पर अपनी समझदारी, अनुभव और बात-बहस के जरिये एक स्पष्ट सोच बनाकर अपने घोषणा पत्र की तरह सबके सामने रखना है…

सोलहवें वर्ष में पहुँचने तक ‘उत्तरा’ के कलेवर में काफी बदलाव आ गये और अब इसमें लिखने वाले लेखकों की संख्या और प्रकाशित होने वाले लेखों की संख्या में भी इजाफा हो गया था। समय के साथ-साथ इसके प्रकाशन के तरीके और कागज में भी बदलाव हुए और साथ ही वक्त के साथ महंगाई बढ़ गयी इसलिये  इसके मूल्यों को भी थोड़ा बढ़ा दिया गया। अगर किसी चीज में कोई बदलाव नहीं आया था तो वे थे ‘उत्तरा’ के तेवर। यह अभी भी अपने उन्हीं तेवरों के साथ प्रकाशित हो रही थी जिन के साथ इसने शुरूआत की थी। ‘उत्तरा’ के सम्पादकीय हमेशा ही गहरे और तीखे रहे। समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारियों से ‘उत्तरा’ ने कोई समझौता नहीं किया और न ही इसमें प्रकाशित होने वाली सामग्री को लेकर किसी तरह का समझौता किया गया।

‘उत्तरा’ के अठारहवें वर्ष का तीसरा अंक मेरे अपने लिये खास था क्योंकि इसी अंक से मेरा ‘उत्तरा’ के साथ जुड़ाव हुआ। मैंने इस अंक से ‘उत्तरा’ के लिये लिखना शुरू किया और मेरा पहला लेख था ‘विज्ञापन में शादियाँ’। इस आर्टिकल का आधार था विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं और अखबारों में प्रकाशित होने वाले वैवाहिक विज्ञापनों में महिलाओं को कैसे उनके रूप-रंग को लेकर प्रस्तुत किया जाता है। मुझे ‘उत्तरा’ से जोड़ने में डॉ़ उमा भट्ट और शीला रजवार ने मुख्य भूमिका निभाई। इस अंक के अंदर ‘उत्तरा’ ने एक पर्चा भी अपने पाठकों के लिये डाला था जिसमें उसने पाठकों से अनुरोध किया है कि पाठक पत्रिका पर अपनी प्रतिक्रियाओं और अपने आलेख लिख कर भेजें।
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16-17 जून 2013 को उत्तराखंड में विनाशकारी जल प्रलय आया। जिसमें उत्तराखंड के चारधाम क्षेत्र में भयंकर तबाही मचायी और हजारों की संख्या में लोग इस प्रलय की भेंट चढ़े। इस विनाशकारी जल प्रलय के आने तक ‘उत्तरा’ तेइसवें वर्ष में प्रवेश कर चुकी थी। तेइसवें वर्ष के चौंथे अंक में ‘उत्तरा’ ने सटीक और तीखे सम्पादकीय में लिखा- प्रकृति का यह रौद्र रूप देखकर हर कोई इस बात को समझने लगा है कि उत्तराखंड  में सरकारों ने विकास के जिसे मॉडल को अपनाया है, वह यहाँ के लिये विनाशकारी सिद्घ हो रहा है। बड़े बांध, बड़ी परियोजनायें, ब्लास्टिंग करके सड़कों का चौड़ीकरण, अंधाधुंध अवैध खनन, नदियों के किनारे निर्माण व अतिक्रमण, जंगलों पर से जनता के हकों को छीनना, प्राकृतिक सम्पदा को पूंजीपतियों के हवाले करना जैसे कारण हैं जो इस प्रकार की त्रासदी के लिये जिम्मेदार होते हैं। इस अंक में इन्द्रेश मैखुरी द्वारा घटनास्थल में किये गये दौरे की रिपोर्ट को प्रकाशित किया गया जिसे पढ़ कर उस समय के हालातों को आसानी से समझा जा सकता है। इसी अंक में सुशीला भंडारी का एक इन्टरव्यू भी प्रकाशित किया गया। सुशीला भंडारी रुद्रप्रयाग से केदारनाथ तक मंदाकिनी नदी में बनने वाली जल विद्युत परियोजनाओं का डट कर विरोध कर रही हैं और इसी कारण वे 65 दिन तक जेल में भी रहीं। इन जल विद्युत परियोजनाओं को ही उत्तराखंड में आये जल प्रलय के लिये जिम्मेदार माना जा रहा था।

अक्टूबर-दिसम्बर 2016 का अंक प्रकाशित होने तक ‘उत्तरा’ को 27 वर्ष हो गये। यही वह दौर था जब 8 नवम्बर 2016 को प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र दामोदर दास मोदी जी देश के नाम संदेश देते हुए पूरे देश में 1000 और 500 रुपये के नोटों की नोटबंदी की। इस पर भी ‘उत्तरा’ की सम्पादकीय टीम ने एक मुखर सम्पादकीय लिखते हुए कहा- नोटबंदी से जिस तरह छोटे और घरेलू उद्योगों को हानि पहुँची है उसका ज्यादा प्रभाव महिलाओं पर ही पड़ा है…छोटा धंधा चलाने वालों की छटनी करनी पड़ी उसमें भी महिलाओं को ही नुकसान पहुँचा। हाथ की कारीगरी से जुड़े उद्योगों में कार्यरत महिलाओं के लिये भी संकट पैदा हो गया है। इस सम्पादकीय में भी महिलाओं के लिये मुखर आवाज उठायी गई सम्पादक मंडल द्वारा।

और होते-होते ‘उत्तरा’ को तीसवां वर्ष लग गया और ‘उत्तरा’ के तीस वर्ष पूरे होने तक दुनिया में कोरोना महामारी फैल गयी। सब कुछ बंद हो गया। देश ही क्या, पूरी दुनिया में लॉकडाउन लगने लगा। कामकाज, व्यापार, आवाजाही सब कुछ बंद। कोराना काल में ‘उत्तरा’ को भी अपने 30 वर्ष का तीसरा और चौंथा अंक एक साथ निकालना पड़ा। इस महामारी के दौर में जब सब कुछ लगभग बंद ही हो गया था ये ‘उत्तरा’ का ही हौसला था कि आर्थिक तंगियों से जूझने के बावजूद भी ‘उत्तरा’ निकलती रही।

शुरू से लेकर अभी तक ‘उत्तरा’ ने अपने संकल्प के साथ कोई समझौता नहीं किया। इस दौरान बेहद कठिन आर्थिक तंगियों से भी ‘उत्तरा’ गुजरी पर फिर भी अपने इरादों के साथ डटी रही। तीस वर्षों की यात्रा के दौरान ‘उत्तरा’ ने कई नये लेखकों को मंच दिया और हर तरह के महिला मुद्दों पर अपनी आवाज मुखर रखने के साथ ही जब भी जरूरत हुई ‘उत्तरा’ की टीम सड़क पर भी उतरी और न्याय दिलाने की भरपूर कोशिश करती रही।

‘उत्तरा’ ने सिर्फ महिला मुद्दों पर ही आवाज नहीं उठायी बल्कि  उत्तराखंड राज्य की बुनियादी समस्याओं पर भी आवाज़ मुखर की। इस पत्रिका में स्त्री मुद्दों पर गंभीर लेख तो प्रकाशित हुए ही, पर इस गंभीर लेखन के अलावा कई कहानियाँ, यात्रा संस्मरण, कवितायें, छोटी कहानियाँ, लोक संस्कृति और लोक गीतों को भी प्रकाशित किया जाता रहा जिस कारण इस पत्रिका के पाठक वर्ग में हर तरह के लोग जुड़ पाये और आज भी इसके साथ जुड़े हुए हैं।
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