स्वराज के फायदे

प्रेमचंद

अपने देश का पूरा-पूरा इन्तजाम जब प्रजा के हाथों में हो तो उसे स्वराज्य कहते हैं। जिन देशों में स्वराज्य है वहाँ की प्रजा अपने ही चुने हुए पंचों द्वारा अपने ऊपर राज करती है।

स्वराज्य का मुख्य साधन ‘स्वावलम्बन’है, अर्थात अपने देश की सब जरूरतों को आप पूरा कर लेना है। जो प्राणी अपने खेत का अनाज खाता है, अपने काते हुए सूत का कपड़ा पहनता है और अपने झगड़े बखेड़े अपनी पंचायत में चुका लेता है उसे हम स्वाधीन कह सकते हैं। हम अपनी जरूरतों के लिए दूसरे देशवालों के मुहताज हैं, अनेक छोटे-छोटे घरेलू झगड़े चुकाने के लिए भी अदालतों के मुँह ताकते हैं, यहाँ तक कि अन्न वस्त्र के लिए भी दूसरों के अधीन हैं। यही हमारी पराधीनता है, इस अवस्था को दूर कर देने पर फिर हम सच्चे स्वराज्य का आनन्द उठाने लगेंगे। हमारे देश में काफी कपड़ा नहीं बनता। वह कपड़ा खरीदने के लिए हमें अपने देश का अनाज, तिलहन आदि अन्य देशों के हाथ बेचना पड़ता है। अनाज के निकल जाने से देश में बारहों मास अकाल की दशा बनी रहती है। महंगाई से प्रजा को काफी भोजन नहीं मिलता, वह अपना उदर भरने  के लिए नाना प्रकार के कुकर्म करती है, इस प्रकार पुलिस और अदालतों का जोर बढ़ता है। केवल एक कपड़े की कमी से देश के सिर कैसी-कैसी बाधाएँ आ पड़ती हैं। यदि हम लोग तन ढकने के लिए काफी कपड़े बना लें, तो हमारे 70 करोड़ रुपये देश में रह जाय, धन धान्य की वृद्धि हो जाय।
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प्राचीनकाल में भारत अत्यन्त समृद्धशाली देशों में था। अब वह कंचन, वह रत्न कहाँ…….
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भोग विलास की चीजों के पीछे भी हम अपने देश के करोड़ों रुपये अन्य देशों की भेंट करते हैं। इस मामले में  सारा अपराध पढ़े-लिखे अंग्रेजी शिक्षा के भक्तों के सिर है। वह वकालत करके या नौकरी करके या अन्य रीतियों से प्रजा का धन खींच लेते हैं और उसे सिगरेट, साबुन, मोटर, शीशे के सामान, भाँति-भाँति की विलासयुक्त सामग्रियों की वेदी पर चढ़ा देते हैं। जब तक हम लोग अपने देश की कमायी अन्य देशों के हाथों इस प्रकार बेचते रहेंगे हम सच्चे स्वराज्य का आनन्द नहीं उठा सकते। इसलिए निहायत जरूरी है कि हम अपने पैरों पर खड़े होना सीखें, किसी के अधीन न रहें। अगर हमारे देश में साठ लाख चर्खे भी चलने लगे, तो हम अपने वस्त्रों के लिए किसी अन्य देश के मोहताज न रहें, सारा देश धन और अन्न से परिपूरित हो जाय। इसी प्रकार यदि हमारे सुशिक्षित भाई लोग भोग विलास के पदार्थों को त्याग दें तो उन्हें प्रजा को ठगकर, धूर्तता से, छल से धन कमाने की जरूरत न रहे। हमारा राष्ट्रीय जीवन कितना सुखद और शान्तिमय हो जाय। कितनी मनोहर कल्पना है। कुछ लोगों के कथनानुसार, यह सुदशा काल्पनिक ही सही, मनोरम स्वप्न ही सही, आदर्श सही, पर कोई कारण नहीं कि हम उस आदर्श को प्राप्त करने का प्रयास न करें। इस अवस्था में देश का सबसे उपकार जो हम कर सकते हैं वह चर्खे चलाना है। यह केवल व्यावसायिक प्रश्न नहीं है। यह केवल दैहिक मुक्ति का नहीं, आत्मिक मुक्ति का साधन है। यह विचार मत करो कि चर्खे चलाने से तो मजूरी नहीं पड़ती। मजूरी समझकर नहीं, इस काम को अपना कर्तव्य समझ कर करो। हमारा विशेष अनुरोध उन परदे वाली साध्वी स्त्रियों से है जिनके समय का अधिकांश गपशप या परिनिन्दा में कटता है। उन्हें इस समय ईश्वर ने देशोद्धार का बड़ा अच्छा अवसर प्रदान किया है। इस पवित्र काम में उन्हें सहर्ष अपने पुरुषों की सहायता करनी चाहिए। उन्हें केवल वस्त्र दान का पुन्न ही न होगा बल्कि वह अपने देश के उन लाखों जुलाहों को काम में लगा देंगी, उनके परिवार को दरिद्रता के चंगुल से निकाल लेंगी, जो इस समय ताशे ढोल बजाकर, या नेचे आदि बनाकर अथवा पुतली घर में मजूरी करके अपना पेट पाल रहे हैं। इससे भी बड़ा उपकार यह होगा कि हमारे देश से कुली प्रथा उठ जायेगी जिसके कारण आज लाखों परिवार अपने गाँव-घर छोड़कर शहरों की तंग और गन्दी कोठरियों में अपने जीवन के दिन काट रहे हैं और नाना प्रकार की कुवासनाओं में पड़कर अपने जीवन का सर्वनाश कर रहे हैं।

स्वराज्य प्राप्ति का दूसरा साधन अन्य व्यवस्थाओं का त्याग करना है जो हमारी आत्मा को दबाती है और उसे पराधीन, परावलम्बी बनाती हैं। अदालतें, सरकारी नौकरियाँ, सरकारी शिक्षा आदि हमारी आत्मा को कुचलने वाली, हमारे मन के पवित्र भावों का दमन करने वाली हमें कौड़ी का गुलाम बनाने वाली, हमारी वासनाओं को भड़काने वाली संस्थाएँ हैं। हमारे बालकवृन्द बालकपन से ही सरकारी नौकरियों की आशा करने लगते हैं, उसी समय से उनकी आत्मा पराधीन होने लगती है। उन्हें परकटे पक्षी की भाँति दरबे के सिवा और कुछ नहीं सूझता चापलूसी करने की, कांइयापन करने की आदत पड़ जाती है, वह अपनी इन्द्रियों के दास बन जाते हैं, सरकारी नौकर ही उनका सर्वाधार बन जाती है। ऐसी शिक्षा पाने वाले युवकों के हृदय में देश प्रेम के उच्च भावों का उदय होना असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य है। जिनकी आत्मा ही दब गयी वह स्वराज्य और स्वाधीनता की कल्पना भी नहीं कर सकते। यह तो हुआ शिक्षा का हाल। अदालतों का प्रभाव इससे कम प्राणघातक नहीं। वहाँ मुकदमेबाजी करने वाली जनता और उनका धन लूटने वाले वकील मुखतार दोनों ही अपनी आत्मा को हताहत करते हैं। अगर कोई आदमी, झूठ, छल, कपट, धूर्तता, बेईमानी का भीषण नाटक देखना चाहे तो उसे एक बार अदालत में जाना चाहिए।
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हम पुलिस की इतनी बड़ी संख्या न रखेंगे और पुलिस के उच्च अधिकारियों की संख्या घटाने का प्रयत्न किया जायेगा। खर्च की सबसे बड़ी मद सेना है। हम इतनी बड़ी और इतनी महंगी सेना न रखेंगे।
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वहाँ ऐसे-ऐसे घृणोत्पादक दृश्य देखने में आयेंगे कि उसकी आँखें खुल जायेंगी और मानवीय दुर्बलता, दुष्टता तथा नीचता का विकट अनुभव हो जायेगा। कहीं गवाह तैयार किये जा रहे हैं, कहीं मुवक्किलों को उनका बयान तोते की भाँति रटाया जा रहा है, कहीं काइयाँ मुहर्रिर-मुवक्किलों से खर्च के लिए तकरार कर रहा है, कहीं कर्मचारी लोग रिश्वत के सौदे चुका रहे हैं, कहीं, वकील साहब अपने मेहनताने का सौदा पाटने में मग्न हैं, कहीं मुखतार देहातियों के एक दल को साथ लिये इजलासों में दौड़ते फिरते हैं। और यह सब धूर्त लीला खुल्लम-खुल्ला बिना किसी संकोच के होती रहती है। आत्मनाश का इससे करुणाजनक दृश्य कल्पना में नहीं आ सकता। वकालत को आजाद पेशा कहकर लोग इस पर गर्व करते हैं, यहाँ तक कि शिक्षा का यही सर्वश्रेष्ठ लक्ष्य समझा जाता है। हमारे विद्यालयों से उच्च उपाधियाँ प्राप्त करके लोग यही कामना लिये हुए निकलते हैं पर वास्तव में इससे नीच और परतंत्र बनानेवाला कोई दूसरा पेशा नहीं है। शिक्षक की चिकित्सक की, सौदागर की, कारीगर की जरूरत हमेशा रहेगी चाहे देश की राजनीतिक स्थिति कुछ भी हो। लेकिन वकीलों की उपयोगिता अदालतों पर ही निर्भर है।
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हमें यही उद्योग करने चाहिए कि हमारा ग्राम्य जीवन जो स्वास्थ्य, रक्षा और आचरण की पवित्रता का पोषक है नष्ट न होने पावे। इसलिए हमें प्राय:  उन्हीं उद्योग-धन्धों का प्रचार करना होगा जो कृषक लोग घर बैठकर अवकाश के समय कर सकें। छोटे-छोटे कारखाने अलबत्ता कस्बों में खोले जा सकते हैं। रेल के विभागों में ऊँचे पदों पर कोई हिन्दुस्तानी नियुक्त नहीं होने पाता। रेलगाड़ियों में जनता को कष्ट जो होता है वह हम अपनी आँखों से देखते हैं। आमदनी का बहुत बड़ा हिस्सा जनता की जेब से आता है लेकिन अव्वल और दूसरे दरजे के मुसाफिरों के लिए जहाँ सजी हुई गाड़ियाँ होती हैं, सजी हुई भोजन की गाड़ियाँ और ठहरने के स्थान होते हैं वहाँ सर्वसाधारण को तीसरे दर्जे की गाड़ियों में भूसे की भाँति भरा जाता है और वह पशुओं की तरह मुसाफिर खानों में पड़े रहते हैं, उन्हें स्टेशनों पर पानी तक नहीं मिलता।
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आज अदालतें बन्द हो जाय या पंचायतों का सर्वसाधारण में प्रचार हो जाय तो वकीलों को कोई कौड़ी को भी नहीं पूछे। टके-टके मारे फिरें। अंग्रेजी राज के पहिले यहाँ वकालत का नाम भी न था। अंग्रेजी राज के साह पेशा भी आया और उसी राज की भाँति दिनों दिन उन्नति करने लगा, यहाँ तक कि आज इसने शिक्षित समाज पर एकाधिपत्य-सा कर लिया है। सोचिए कि जिस समाज का प्रतिभाशाली भाग अपनी जीविका के लिए किसी विशेष संस्था के अधीन हो वह स्वराज्य और आजादी के भावों का आनन्द कैसे उठा सकता है। वस्तुत: हमारे वकील भाई अदालतों के गुलाम हैं, उन्हें कोई स्वाधीन पेशा नहीं आता, उनमें स्वावलम्बन का भाव लुप्त हो गया है। और उनसे समाज के उपकार की कोई आशा नहीं की जा सकती। अब रहे मुकदमेबाज लोग, उनमें स्वावलम्बन का भाव लुप्त हो गया है और उनसे समाज के उपकार की कोई आशा नहीं का जा सकती। अब रहे मुकदमेबाज लोग, उनमें प्राय: वही लोग हैं जो अपने धन या धूर्तता के बल से अन्याय को न्याय बनाना चाहते हैं। ऐसे आदमियों की आत्मा दुर्बल हो जाती है और वह अपना मतलब निकालने के लिए किसी गरीब की जायदाद हजम करने के लिए अथवा शत्रुओं से अपना बैर चुकाने के लिये तरह-तरह के पाखण्ड रचते हैं। जो आत्मा अनीति की शरण लेती है वह कभी स्वराज्य के योग्य नहीं हो सकती। वह सदैव कुचेष्टाओं के नीचे दबी रहती है, अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए सदैव दूसरों की खुशामद किया करती है। उसमें सम्मान का भाव नष्ट हो जाता है, वह पतित हो जाती है। ऐसी गिरी हुई आत्माएँ स्वराज्य की कल्पना भी नहीं कर सकतीं। उनके संकीर्ण हृदय में स्वार्थ के सिवा ऊँचे और पवित्र भाव उठते ही नहीं। वह नित्य इसी चिन्ता में रहती है कि किसका धन उड़ा लें, किसकी जायदाद हड़प कर जाय। स्वराज्य प्राप्त करने के लिए आत्मशुद्धि, निर्भयता और सद्व्यवहार ही की उपासना करनी पड़ेगी और मुकदमेबाजी को छोड़ने में हमें इस उपासना में बड़ी मदद मिलेगी।
benefits of swaraj

ऊपर जिन साधनों का जिक्र किया गया है वह सभी एक शब्द असहयोग के अन्तर्गत आ जाते हैं। और शासन प्रजा के सहयोग या सहायता के बिना नहीं चल सकता। प्रजा का धर्म है कि वह अपनी सरकार की यथायोग्य सहायता करे, धन से, बल से, बुद्धि से उनकी सेवा करे, किन्तु जब शासन अपनीति पर उतारु हो जाय, प्रजा को कष्ट देने लगे, उसके अधिकारों को कुचलने लगे, अपना रौब जमाने के लिए उस पर अत्याचार करने लगे, तो फिर उसका प्रजा से सहायता पाने का मुँह नहीं रहता, और प्रजा भी उसकी सहायता न करने में दोषी नहीं ठहरायी जा सकती। भारत में इस समय ऐसा ही अवसर आ पड़ा है।
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मादक वस्तुओं का त्याग करना स्वराज्य प्राप्ति का उपाय है। सरकार को मादक पदार्थों की बिक्री और अफीम के बनाने से करोड़ों रुपयों की आमदनी होती है। यह अधर्म का धन है और अधर्म के धन को भोग करके कोई देश सुखी नहीं रह सकता।
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अधिकारी वर्ग नाना प्रकार के विधानों से प्रजा का दमन करने पर तुले हुए हैं। कहीं सभाएँ बन्द की जा रही हैं, कहीं नेताओं का मुँह बंद किया जा रहा है, कहीं निहत्थी प्रजा पर गोलियाँ चल रही हैं, कहीं कार्यकर्ता जेल भेजे जा रहे हैं और वहाँ उनसे कड़ी मेहनत ली जा रही है, कहीं पंचायतों को तोड़ा और पंचों को दण्ड दिया जा रहा है, यहाँ तक कि किसी को शराब पीने से रोकने को भी जुर्म समझा जाता है। महात्मा गाँधी की जय-जयकार करने के लिए, खादी पहनने के लिए, चरखों का प्रचार करने के लिए सज्जनों पर तरह-तरह के दोषारोपण किये जा रहे हैं। ऐसी दशा में प्रजा का कर्तव्य है कि वह सरकार को किसी प्रकार की सहायता न दे, क्योंकि अत्याचारी शासन की मदद करना अत्याचार करने से कम पाप नहीं है। सरकार की नौकरी करना अनुचित है इसलिए कि प्रजा पर अत्याचार करने का काम नौकरों द्वारा ही होता है। सरकारी अदालतों में जाना अनुचित है इसलिए कि इससे सरकार का रौब बढ़ता है और प्रजा की आत्मा दुर्बल होती है, वकालत करना अनुचित है, इसलिए कि इसकी सरकारी न्यायालयों की पुष्टि होती है, सरकारी विद्यालयों में पढ़ना अनुचित है, इसलिए कि इससे हृदय में गुलामी के भाव पुष्ट होते हैं।
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हम विद्या को धर्म समझकर सीखते और सिखाते थे, चाहे वह गान विद्या हो, धर्नुिवद्या हो या कोई अन्य विद्या हो। अब हम उसे धर्नोपाजन के लिए सीखते और सिखाते हैं। हममें परस्पर प्रेम नहीं रहा, सहानुभूति नहीं रही। हमारी मैत्री, हमारा प्रेम, हमारी सदिच्छाएँ, हमारे हृदय की उच्च वृत्तियाँ सभी धन इच्छा के नीचे दबती जाती हैं।
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लेकिन यह स्मरण रखना चाहिए कि हम असहयोग इस हेतु ग्रहण नहीं करते कि इससे सरकार को हानि पहुँचे। नहीं, हम केवल इसलिए असहयोग करते हैं कि हमारा यही वर्तमान धर्म है, सरकार की नीति का हमको जो अनुभव हुआ और हो रहा है उससे भली-भाँति सिद्ध हो जाता है कि स्वराज्य के बिना हमारे देश का कल्याण नहीं हो सकता। उसकी प्राप्ति का साधन शान्तिमय असहयोग है, और आत्मशुद्धि, निर्भयता और सद्व्यवहार असहयोग के तीन अंग हैं। केवल असहयोग हमको स्वराज्य पद पर नहीं पहुँचा सकता। असहयोग तो केवल ब्रह्म साधन है, आन्तरिक साधन आत्मा की  पवित्रता है। अपनी आत्मा को खो देने से हम पराधीन हुए, स्वार्थ परायणता ने ही हमारे गले में दासत्व की जंजीर डाली। आत्मा को पाकर ही हम स्वाधीनत हो सकते हैं।
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