शराब माफिया के खिलाफ
भगवती पाण्डे
यह अप्रैल में शराब के ठेके की नीलामी होगी या लाटरी खुलेगी इसके लिए जहाँ शासन-प्रशासन की अपनी तैयारी होती है, वहीं ठेकेदार की भी अपनी तैयारी होती है। प्रशासन की जिम्मेदारी होती है कि वह ज्यादा से ज्यादा राजस्व एकत्रित करवाये (सबसे ज्यादा राजस्व शराब की अर्थव्यवस्था से प्राप्त होता है)। दूसरी तरफ, प्रशासन जिले में मद्यनिषेध का कार्यक्रम भी चलाता है। दोहरी भूमिका में प्रशासन के होने से हम समझ सकते हैं कि वे किस भूमिका को अच्छी तरह निभायेंगे।
जिस ठेकेदार की लाटरी खुल गयी, उसकी तो पाँचों अंगुली घी में। वह उस समय इन जुगाड़ों में लगा रहता है कि मैं कहाँ का ठेका लूँ? किस-किस को काम दूँ। उनकी योग्यता क्या होगी? अक्सर इस तरह के पेशे में जुड़े व्यक्तियों के चयन में उनकी दबंगता, बेरोजगारी जन्य मजबूरी तथा क्षेत्र में उनकी नकारात्मक छवि ये सब आधार होते हैं। क्योंकि इन्हीं के सहारे शराब का व्यवसाय फल-फूल सकता है। एक ओर सम्पूर्ण व्यवस्था इस जन विरोधी तंत्र को मजबूती प्रदान करने में पूरी ताकत लगा देती है तो दूसरी ओर जागरूक जनता शराब का पुरजोर विरोध करती है। इस विरोध में महिलाएँ अधिक सक्रिय हैं। वे समझ रही हैं कि शराब और शराब पर टिकी हमारी व्यवस्था समाज व जनविरोधी है। वे समझने लगी हैं कि महिलाओं के खिलाफ होने वाली हिंसा (उत्पीड़न) के अनेक कारणों में से शराब भी एक प्रमुख कारण है।
क्षेत्र में शराब के खुले प्रचलन से महिलाएँ हर तरफ से प्रभावित हुई हैं, महिलाओं की दिन-प्रतिदिन असुरक्षा बढ़ी है। घरों और परिवारों में अशान्ति का माहौल बढ़ा है। देश के भावी नागरिक बालक-बालिकाओं के शारीरिक व मानसिक विकास पर बुरा असर पड़ रहा है। आये दिन यातायात सम्बन्धी दुर्घटनाएँ बढ़ रही हैं। सामाजिक व धार्मिक कार्यों में इसके बढ़ते प्रचलन से बुराइयाँ पैदा हो रही हैं। गरीब परिवारों में भोजन कपड़े व जीवन जीने की जरूरतों की भारी कमी पड़ने लगी है।
अब जबकि महिलाओं में जागरूकता आ गई है, वे न केवल घर-परिवार बल्कि समाज के प्रति भी एक सकारात्मक सोच रख रही हैं। इसी का परिणाम है कि अब दूर-दराज के क्षेत्रों में भी महिलाएँ संगठित हो रही हैं। चम्पावत क्षेत्र में महिलाओं की संग्ज्यू महासंघ संघर्ष समिति ने शराब के खिलाफ अपने को संगठित करना शुरू कर दिया। उन्होंने दूर-दराज गाँवों की महिलाओं को जोड़ना शुरू कर दिया। महिलाएँ खुद भी चाहती थीं, जिन लोगों से समिति को पहले बहुत मतलब नहीं रहता था तथा जिन कामों को जरूरी नहीं समझते थे, उन कामों में प्रतिभागिता स्वयं से जुड़ गयी। क्योंकि खुद अपने परिवार, पास-पड़ोस में यही हंगामा सुन-देख रही थीं। उन्होंने ग्राम प्रधानों को भी मदद के लिये तैयार किया। उन्होंने भी लोगों को सूचना देने तथा खुद प्रदर्शनों में शामिल होकर मूक सहमति देना शुरू कर दिया। महिलाओं के पक्ष में कुछ संगठन, पत्रकार, दुकानदार, स्थानीय प्रशासन, संवेदनशील अधिकारी भी आ गये। शराब के विरोध में गीत, नारे, रैली तथा धरने में बैठने से सब प्रभावित थे। अखबारों में भी खूब खबरें छप रही थीं। जिसने आन्दोलन को बल दिया।
महिलाओं का कहना था- शराबी पतियों द्वारा महिलाओं के शरीर पर पड़े हुए मार के निशान भी उन्हें प्रेरित कर रहे थे। वे अपने प्रति होने वाले हर अन्याय के लिये शराब को ही दोषी मान रही थी इसलिये इससे जुड़े हर व्यक्ति से गुस्सा था। हमें कभी-कभी लगता था कि हमारा संगठन कमजोर है लेकिन हमें यह बात तब समझ में आयी जब हम धरने में अलग-अलग जगह से एक ही बैनरों के साथ मिल रही थीं। सभी को अपने चोट खाये निशानों का दर्द था। घर में गाय, भैंस, बच्चे, बूढ़े, बीमार सभी को छोड़कर जो हम आये थे। तब हमने जाना कि हमारा संगठन कमजोर नहीं है। हमें कमजोर बनाने के लिये कई तरह की व्यवस्थाएँ समाज में हैं लेकिन हम भी इसको समझ कर तैयार हो रही थीं। तभी तो बसन्ती दीदी ने हमारी कमान संभाली है। पीछे से हम सब दीदी-भुली तैयार हैं इस गुमदेश में।
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जब हम महिलाएँ संग्ज्यू महासंघ संघर्ष समिति के बैनर तले एकत्रित हो रही थीं तो हमें सोचने में भी परेशानी आ रही थी क्योंकि हमारा क्षेत्र बहुत बिखरा था। कहीं गुमदेश तो कहीं रौसाल तो कहीं दिगालीचौड़, चमदेवल, मडलक, सुंगरखाल। लेकिन ये क्षेत्र भी कहने लगे हम दूर नहीं हैं। पुल्ला (पुल्ला हिंडोला) हमारा बाजार था, जहाँ से हमने पैंतीस वर्षों से जमी शराब को हटाना था। यहाँ से बहुत दूर नेपाल बार्डर में रहने वाली, महाकाली नदी की स्वां-स्वां सुनने वाली महिलाएँ अपने लकड़ी-घास के कामों से दबी थीं। लेकिन इस बार इस मुद्दे ने महाकाली से पुल्ला (लोहाघाट) की दूरी कम कर दी। हर दिन किसी न किसी गाँव-संघ से महिलाएँ धरने में बड़े उत्साह से पैदल ही चल देतीं। धरने में बैठकर हम अपनी थकान मिटातीं फिर हाथों में तख्तियाँ लिये खूब जोर-जोर से नारे लगातीं। ऐसे ही हमने हजारों रैलियाँ निकालीं। इस दौरान हम कभी पुलिसवालों से लड़ते तो कभी शासन-प्रशासन को ललकारते। विधायकों-सांसदों को भी नहीं छोड़ते। हममें से कुछ महिलाएँ इतनी आक्रोशित हो जातीं कि वे छत से कूद मारने को तैयार हो जातीं। लेकिन महिलाओं को सम्भालने के साथ प्रशासन के नये डाकिया (जो समझौते के लिए हमारे पास आ रहे थे) पुलिस वाले, नायब तहसीलदार, पटवारी, थाना प्रभारी, उनसे भी हम टक्कर ले रही थीं। सभी लोग एक ही बात समझाने की कोशिश करते कि आप लोग अपने-अपने घर चली जाओ। शराब तो बन्द नहीं हो सकती। लेकिन महिलाओं ने ठानी थी कि शराब को यहाँ से भगायेंगे। क्योंकि हम कहीं भी इसकी दुकान नहीं खुलने देना चाहती थी। इस बीच हम जब धरने में बैठतीं, हमने अपनी बातें लिखनी शुरू कर दीं। हम हर दिन ज्ञापन बनाते और शासन-प्रशासन को अपना दुखड़ा लिखते। हर दिन हममें से पाँच-छ: महिलाएँ कभी एस.डी.एम. तो कभी डी.एम. को व्यथा सुनातीं। पर वहाँ असर नहीं होने वाला था। वे टाल जाते थे। हम अखबार को अपने दिनभर की बातें लिखती, वे उसे छापते। इस सबसे हमने बहुत सीखा। लोगों ने हमें बहुत चन्दा दिया। इस चन्दे ने हमारा आवागमन, यातायात सहज कर दिया। हम सिर्फ शराब के बारे में सरकार-प्रशासन-शासन ठेकेदार से ही नहीं लड़ रही थीं। हमारी असली लड़ाई तो अपने पतियों, भाइयों और इस मर्दाना व्यसन से थी, जो समाज को हर तरह के कुकर्म करने का लाइसेन्स देता है। कभी-कभी महिलाएँ धरने से दूसरे दिन वापस जाती थीं तो कभी वहीं रहतीं। हमें डर था कि ये लोग हमारी आँखों में धूल झोंककर रात को शराब खोल देंगे। एक बार किमतोली में हमारी नजर बचाकर एक दुकान में दूध की गाड़ी में शराब भर कर चढ़ा दी। पता चलते ही सभी ने डंडा, दातुली (दराँती)लेकर गुस्से में दुकान में तोड़-फोड़ कर दी। उसके मालिक के साथ हाथापाई हुई। उसे हाथ जोड़ माफी माँगकर उसी समय भागना पड़ा। हमारी हिम्मत में हिम्मत बढ़ रही थी। इसी तरह अप्रैल का महीना चला गया। हमारे खेतों में गेहूँ तैयार होकर गिर रहे थे। थोड़ी बहुत दालें और मसूर, सरसों जो सूखे की मार से बच गये थे, सिर्फ जिन्हें हमारे भूखे पेट और सम्मान का ख्याल था, हम उसे सम्भालने भी नहीं गये। हमने तय किया कि हम इस शराब की दुकान को भगा कर ही अपने खेतों में वापस जायेंगे। 12 जून तक ठेकेदार को अपनी शराब की दुकान खोलने के लिये कहीं जगह नहीं मिली, इससे पूर्व वह इस आशा में लगा था कि पहाड़ी औरतों का क्या? खेत, जानवर, घर के काम से लदी ये महिलाएँ अब थककर अपने घर चली जायेंगी। अब इनका गुस्सा शान्त हो जायेगा। कुछ एक के पतियों को तो उसने लालच भी दिया था। जो घरों में अपनी पत्नियों के लिए उत्पात मचा रहे थे और औरतों को लम्बे समय तक विरोध करने हेतु रोकने का माहौल बना रहे थे। वे तो इन पतियों का तांडव पहले ही बहुत भुगत चुकी थीं। आज तो उनके मन में उत्साह था। वे आज निडर थीं। उन्होंने अपने घर के काम में विरोध करने के लिये भी? जोड़ लिया था। हाथों में शराब विरोधी नारों की तख्तियाँ लिये चिल्ला-चिल्ला कर अपने जो उद्गार निकाल रही थीं, उस जोश से उन्हें दोगुनी ताकत और ऊर्जा मिल रही थी।
शराब विरोधी आन्दोलन की लड़ाई उन दिनों खतरनाक होती जा रही थी, जब ठेका खुलने के डेढ़ माह बाद भी दुकान के लिये ठेकेदार को जगह नहीं मिल रही थी। दोनों तरफ का विरोध बहुत तीखा था और जायज भी था। शासन-प्रशासन ने इतने बड़े विरोध के बावजूद कान बन्द कर लिये थे। उन्हें लगा कि उधर पाटी ब्लॉक में, इधर चल्थी में और अब लोहाघाट में भी इस तरह से विरोध हो रहा है तो राजस्व का क्या होगा। राज्य सरकार हमसे जवाब मागेंगी और हमें फटकारेगी कि इन औरतों को तुम नहीं कुचल सके। इसीलिये उन्होंने औरतों को तवज्जो देना बन्द कर दिया। लेकिन महिलाओं द्वारा बार-बार यह समझाया जा रहा था कि राजस्व का लाभ तो तभी है जब जनता की सुविधाओं- पानी, बिजली, खेत, जंगल की व्यवस्था महिलाओं के हक में हो। तभी उत्पादकता बढ़ती है और आय भी बढ़ती है। इसीलिये महिलाओं द्वारा इस आन्दोलन को यह नारा दिया गया-
हटाओ शराब बचाओ पहाड़
पहाड़ बचाना है शराब हटाना है
जल-जंगल-जमीन बचानी है शराब हटानी है
करो पानी की व्यवस्था। बदलो शराब नीति व्यवस्था
आखिरकार महिलाओं का आन्दोलन रंग लाया। ठेकेदार को अपनी दुकान खोलने का विकल्प बदलना पड़ा। उसने मोबाइल वैन को अपना माध्यम चुना। लेकिन मोबाइल वैन से शराब बेचने की सूचना की तीखी प्रतिक्रिया हुई। मीडिया के द्वारा भी प्रतिक्रियायें माँगी गयीं। सभी सम्मानित जनप्रतिनिधि, संगठन और जानकार लोगों, विशेषज्ञों, समाजसेवियों द्वारा तीखी आलोचना की गयी। महिलाओं का कहना था कि मोबाइल वैन से शराब बेचने से असुरक्षा का माहौल बढ़ेगा लेकिन महिलाओं की सुरक्षा एवं उनके स्वस्थ एवं खुशहाल रहने की परवाह किसको थी।
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