लघुकथा : तकरार

तारादत्त गैरोला

एक थी घिंडुड़ी और एक था घिंडुड़ा। दोनों एक मकान में घोंसला बना कर रहते थे। वे दिन भर स्वच्छ वातावरण में इधर उधर फुदकते, दाना चुगते और सांझ को अपने घोंसले पर आ जाते। घिंडुड़ी बहुत मेहनती थी परन्तु घिंडुड़ा उतना ही आलसी। काम के नाम से उसे नींद आने लगती थी। कुछ न कुछ बहाना बनाकर वह काम से दिल चुराया करता था। दिन भर इधर-उधर घूमना और मस्त रहना उसकी दिनचर्या बन गई थी। साथ ही वह पेटू भी बहुत था। घिंडुड़ी जो कुछ भी घर में बनाती, वह उसे चट कर जाता था।

एक बार उनके छोटे-छोटे बच्चे हुये। घिंडुड़ी पर उनके लालन-पालन का बोझ बढ़ गया। वह दिन भर बच्चों के लिए दाना जुटाने के लिए घर से बाहर रहतीर्। घिंडुड़ा घर पर बच्चों की देखभाल करता। चाहता भी वह यही था। बच्चों की देखभाल के बहाने घर पर पड़े रहना और्र घिंडुड़ी की अनुपस्थिति में इधर-उधर पास पड़ोस की घिंडुड़ी घिंडुड़ों से गप्पे लड़ाना।

एक दिन घिंडुड़ी ने बड़े चाव से खिचड़ी बनाई और काम पर चली गई। काम पर जाने से पहिले उसने घिंडुड़े से कहा मैं बच्चौं तैं गालू लीक औंदू, तू घर पर ही रयी (मैं बच्चों के लिए दाना लेकर आती हूँ, तू घर पर ही रहना)। जब मैं अई जौलू  खिचड़ी तब खौला (जब मैं आ जाऊंगी खिचड़ी तब खायेंगे)। ऐसा कहकर्र घिंडुड़ी फुर्र से उड़ गई और्र घिंडुड़ा बच्चों की देखभाल के लिए घर पर ही रह गया। परन्तु कुछ देर बाद वह बैठे-बैठे ऊबने लग गया। उसे खिचड़ी का ध्यान आया। खिचड़ी की सुगन्ध से उसके मुँह में पानी आने लगा। वह खिचड़ी की डेगची के पास गया और उसमें से थोड़ी खिचड़ी खा ली। खिचड़ी बहुत स्वादिष्ट लगी। उसका मन और खिचड़ी खाने को होने लगा। उसने डेगची में झाँका। अभी तो इसमें बहुत खिचड़ी है, थोड़ा और खा लूँ उसने मन में कहा और थोड़ी खिचड़ी और खा ली।…….

थकी मांदी घिंडुड़ी जब घर लौटी तो उसे घर पर्र घिंडुड़ा नहीं मिला। उसने जल्दी-जल्दी बच्चों को दाना खिलाया और फिर खिचड़ी की डेगची के पास गई। भूख उसे बहुत लगी थीर्। घिंडुड़ा मालूम नहीं कहाँ चला गया तब तक मैं थोड़ी खिचड़ी खा लूँ उसने मन में कहा और डेगची को अपनी ओर खींचा। डेगची उसे हल्की लगी। वह फुदक कर डेगची के ऊपर बैठी तो देखती क्या है कि डेगची खाली पड़ी हैर्। घिंडुड़ा सारी खिचड़ी चट कर चुका था। उसे बड़ा गुस्सा आया। वह घिंडुड़े की खोज में घर से निकली। अपनी पड़ोसन से पूछा हे दीदी, त्वीन् मेरु घिंडड़ू भी देखी? (हे दीदी, तूने मेर्रा घिंडुड़ा भी देखा)। परन्र्तु घिंडुड़ा पास पड़ोस में होता तो मिलता। कख होई होलू तैकू निपैल्टू (कहाँ गया होगा वह) कहकर वह उसे गाँव में ढूँढने लगी। अन्त मेंर्, घिंडुड़ा उसे प्रधान के छज्जे पर बैठा मिल गया। त तू यख बैठ्यूंर्, घिंडुड़ियों दगड़ी गप्प मारनू। (तो तू यहाँ बैर्ठा घिंडुड़ियों के साथ गप्पें लड़ा रहा है) बैट, मैं त्वी तैं खिचड़ी खाण कू भजा चखौंदू (ठहर जा, मैं तुझे खिचड़ी खाने का मजा चखाती हूँ)। ऐसा कह उसने एक डंडा उठाया और धम्म से घिंडुड़े की पूंछ पर दे मारार्। घिंडुड़े की पूंछ टूट गई और वह दर्द के मारे तिलमिला उठा। डंडा मारने के बार्द घिंडुड़ी प्रधान के छप्पर पर बैठ गई और लग गई चहकते। कनी होंदी घिंडुवा खिचड़ी मिट्ठी, मेर्रा घिंडुवा की पुछड़ी टुट्टी (है घिंडुड़ा, खिचड़ी कैसी मीठी हुई, अच्छा हुआ जो तेरी पूँछ टूट गई)। औरों के सामने इस प्रकार अपनी बेइज्जती होते देर्ख घिंडुड़ा पानी पानी हो गया।

जर्ब घिंडुड़ी का गुस्सा कुछ कम हुआ वह फुर्र से उड़कर अपने घोंसले पर आ गई। उसने फिर अपने लिए खिचड़ी बनाई। खिचड़ी बनाकर जैसे ही वह खाने को बैठी, उसे अपर्ने घिंडुड़े की याद आ गई। अकेली कैसे खाऊँ? उसने मन में सोचार्। घिंडुड़ा भी होता तो दोनों साथ-साथ खाते। हमेशा ही वे एक साथ बैठकर खाते थेर्। घिंडुड़े की अनुपस्थिति उसे अखरने लगी। उसे अपने किये पर पछतावा भी होने लगा।
short story takrar

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