मायावी है घर
कमल कुमार
घर में रहते हैं लोग
खाते पीते सोते
और जीते हैं लोग
यहीं रहती है
एक बंधुआ
पकाती खिलाती रिझाती
सब ठीक ठाक है/
घर के भीतर मारता है आकाश
छीजती है रोशनी,
न हवा का बुल्ला न फुहार/
धीरे-धीरे मरता है वृक्ष
सूखती जाती नमी
खड़ा ज्यों का त्यों
घरों में उग आए हैं ठूँठ
दीवारों, छतों खिड़कियों
फर्नीचर और साजो सामान वाले
घर मकान हैं/
घरों में रहती हैं औरतें
घरों में मरती हैं औरतें
बड़े मायावी हैं घर।
वजूद
आकांक्षा यादव
मुझे नहीं चाहिए
प्यार भरी बातें
चाँद की चाँदनी
चाँद से तोड़कर
लाए हुए सितारे।
मुझे नहीं चाहिए
रत्नजड़ित उपहार
मनुहार कर लाया
हीरों का हार
शरीर का श्रृंगार।
मुझे चाहिए
बस अपना वजूद
जहाँ किसी दहेज, बलात्कार
भ्रूण हत्या का भय
नहीं सताए मुझे।
मैं उन्मुक्त उड़ान
भर सकूँ अपने सपनों की
और कह सकूँ
मेरा भी स्वतंत्र अस्तित्व है।

उनकी आँखों में तुम झाँक लो
खेमकरण सोमन
चूल्हा/चौकाबर्तन/ या
घर मकान आँगन ही
नहीं है स्त्रियों की जगह
वे भी बनी हैं/पंच तत्वों से
है उनमें भी-
शब्द-
स्पर्श-
रूप-
रस-
गन्ध-
है उनमें भी-
आकाश और आकाश की तरह/
विस्तार छान मारने का साहस-
वायु और वायु की तरह/छूने/चलने
किसी को उखाड़ने का साहस-
अग्नि और अग्नि की तरह/तपिश देने
जलाने का साहस-
जल और जल की तरह/
प्यास बुझाने का साहस
है उनमें भी-
पृथ्वी और पृथ्वी की तरह/
जीवन उगाने का साहस
बस/उन्हें ऑक लो।
औरतें
अंजना बख्शी
औरतें,
मनाती हैं उत्सव
दीवाली होली और छट्ट का,
करती हैं घर भर में रोशनी
और बिखेर देती हैं कई रंगों में रंगी
खुशियों की मुस्कान
फिर सूर्य देव से करती हैं
कामना पुत्र की लम्बी
आयु के लिए।
औरतें
मुस्कराती हैं
सास के ताने सुनकर
पति की डाँट खाकर
और पड़ोसियों के उल्लहनों
में भी।
औरतें,
अपनी गोल-गोल
आँखों में छिपा लेती हैं
दर्द के आँसू,
हृदय में तारों-सी वेदना
और जिस्म पर पड़े
निशानों की लकीरें!!
औरतें,
बना लेती हैं
अपने को गाय सा
बँध जाने किसी खूंटे से
औरतें,
मनाती हैं उत्सव
मुहर्रम का हर रोज;
खाकर कोड़े
जीवन में अपने।
औरतें,
मनाती हैं उत्सव रखकर
करवाचौथ का व्रत
पति की लम्बी उम्र के लिए
और छटपटाती हैं रातभर
अपनी ही मुक्ति के लिए।
औरतें,
मनाती हैं उत्सव
बेटों के परदेश से
लौट आने पर
और खुद भेज दीं
जातीं हैं वृद्धा आश्रम
के किसी कोने में!!
रानी, लक्ष्मी, बाई
शोभा रावत
हिन्दुस्तान की अधिकतर महिलाएँ
बनना चाहती हैं रानी लक्ष्मीबाई
बनती तो हैं पर कैसे?
रानी, बिटिया रानी, माँ की दुलारी
पिता की लाड़ली, सारे घर की
रौनक।
शादी होते ही गृह लक्ष्मी
गृहस्थी को आबाद कर
पति के संसार को
स्वर्ग बनाती
‘लक्ष्मी’
संतान होते ही माँ का सुख
काम का बढ़ता बोझ
झाड़़ू, पोछा, चौका, बर्तन
बच्चों को लिखाना-पढ़ाना
सजाना
खुद के लिए समय न निकाल पाना
एक बिना तनख्वाह की
‘बाई’