भगवती बिष्ट से बातचीत

सुश्री भगवती बिष्ट उत्तराखण्ड परिवहन निगम में बस कंडक्टर हैं। नैनीताल स 12 किमी. की दूरी पर स्थित खुर्पाताल में उनका घर है। रोडवेज की बसों में अक्सर उनसे भेट होती रहती थी। उनसे मेरा आग्रह था कि आपसे एक दिन बैठकर बातें करनी हैं पर उन्हें कभी इतना समय मिल नहीं पाता था। 7 जुलाई 2012 को उनसे बातचीत करने का संयोग बन पाया।
अपने परिवार के बारे में कुछ बताएँ।
मेरे पिताजी स्व. श्री रतन सिंह, जब में चार-पाँच साल की थी तभी गुजर गये थे। मेरी माँ गंगोत्री देवी ने ही हम भाई-बहनों को पाला-पोसा। 2006 में वह भी गुजर गईं। हम छ: बहनें और एक भाई है। बहनों की शादी हो चुकी है। भाई दिल्ली में नौकरी करता है। मेरी दो बहनें भी नौकरी करती हैं। खुर्पाताल में खेती है, मकान है।
आपने विवाह नहीं किया?
पिताजी की मृत्यु के कारण हमने बचपन से ही बहुत दु:ख झेले। सुख तो देखा ही नहीं। एक-एक कर सभी बहनों की शादी हो गई। भाई भी दीदी के साथ दिल्ली चला गया। फिर माँ घर में अकेली रह गई। मुझे पढ़ने और नौकरी करने की लगन थी। नौकरी भी मुझे अपने हिसाब से चाहिए थी। मैं पुलिस मैं भर्ती होना चाहती थी। मैं देखती थी कि लड़कियाँ एकदम डरी-डरी सी रहती हैं, यह मुझे बहुत खराब लगता था।
फिर आप पुलिस सेवा में नहीं गईं?
ईजा (माँ) को मैं अकेले नहीं छोड़ना चाहती थी। क्योंकि उसने बहुत दु:ख झेले थे। पुलिस में जाने से शायद उसे छोड़ना पड़ता।
आप इस नौकरी में कैसे आईं?
हम 15-16 लड़कियाँ थी, जिन्होंने रोडवेज में लिपिक पद के लिए डेढ़ साल का प्रशिक्षण लिया था। उसके बाद साक्षात्कार हुआ पर बाद में हमें कहा गया कि परिचालक (कंडक्टर) के पद पर काम करना पड़ेगा। मेरे साथ की बाकी लड़कियाँ तो वापस चली गयीं पर मैंने नौकरी शुरू कर दी। पहले तो मैं बहुत डर गई थी। मैं गाँव की लड़की थी लेकिन धीरे-धीरे ऐसे माहौल में आ गई कि सीट में जब बैठती हूँ तो भूल जाती हूँ कि गाँव की हूँ या शहर की। बस एक ही ध्यान रहता है कि टिकट ठीक से बनें, रोडवेज की आमदनी बढ़े, तभी मुझे खुशी मिलती है।


सुबह कितने बजे दिनचर्या शुरू होती है?
सुबह चार बजे उठकर खुर्पाताल से पैदल आती हूँ।
डर नहीं लगता?
पहले पहल डर लगता था। अब तो आदत हो गई है।
यह नहीं सोचा कि नैनीताल में कमरा लेकर रहूँ?
नहीं, घर में ईजा अकेली होती थी। उसी के कारण तो मैंने विवाह न करने का निर्णय लिया। अब ईजा नहीं है तो भी घर जाना ही पड़ता है।
Conversation with Bhagwati Bisht
शाम को कब लौटतीं हैं?
र्सिदयों में तो रात हो जाती है। पैदल ही जाना पड़ता है। र्गिमयों में कभी कोई गाड़ी मिल भी जाती है पर अक्सर पैदल जाती हूँ।
बाघ का भी डर नहीं लगता?
बाघ का तो डर मुझे नहीं लगता। भूत-प्रेतों से भी मैं नहीं डरती। वे तो मेरे सामने आते-जाते रहते हैं। केवल इंसानों की डर लगती है। बच्चे से बूढ़े तक सब मुझे जानते हैं। कभी किसी के दिमाग में शैतानी आ गई, चाहे मेरे पास पैसे हों या न हों पर हर किसी को लगता है कि इसके पास पैसे होंगे।
शाम को कैश आपके पास रहता है?
नहीं। शाम को कैश जमा हो जाता है लेकिन लोगों को लगता है कि इसके पास पैसा होगा।
प्रशिक्षण में आप लोगों को क्या-क्या सिखाया गया?
उसमें तो क्लर्की का काम सिखाया गया था। बाद में कंडक्टरी दे दी। अभी तक हम लोगों को स्थायी नहीं किया गया है। केस भी लड़ा हम लोगों ने पर हुआ कुछ नहीं। आज चौदह साल हो गये हैं। पहले कहा गया कि लिपिक का पद खाली होगा तो तुम्हें ही दिया जायेगा। पर आज तक ऐसा नहीं हुआ। चौदह साल से मैं संविदा पर काम कर रही हूँ।
कितनी लड़कियाँ थीं आप लोग?
हम चौदह-पन्द्रह लड़कियाँ थी प्रशिक्षण के समय। सब ने नौकरी भी शुरू की। किसी ने कुछ दिन काम किया पर एक-एक करके सबने नौकरी छोड़ दी। एक लड़की कंडक्टर बनी थी पर दिल्ली में गाड़ी मोड़ते समय उसका पैर फै्रक्चर हो गया था। बाद में उसने भी नौकरी छोड़ दी। मैं तो अब नौकरी छोड़ भी नहीं सकती हूँ क्योंकि अब किसी दूसरी नौकरी की भी संभावना नहीं रही। पर मैं अपनी नौकरी से खुश हूँ। मुझे तो हर कोई जानता है। कहीं भी जाऊँ, बैंक में या किसी ऑफिस या कार्यालय में मेरा कोई काम अटकता नहीं।
आप किस-किस रूट में जाती रही हैं?
पहले नैनीताल-रानीखेत, नैनीताल-द्वाराहाट, नैनीताल-बरेली, नैनीताल-मुरादाबाद की बसों में गई हूँ। अब गाड़ियाँ कम हैं तो भवाली-नैनीताल चलती हूँ। वैसे परिचालकों की कमी होगी तो जहाँ जाओ कहेंगे मैं वहाँ जाऊंगी। लोकल में भी काफी परेशानी होती है। चौतींस सीटर बस में अस्सी-अस्सी लोगों को हम ले जाते हैं।
मना नहीं कर सकते हैं किसी को?
नहीं, मना नहीं कर सकते। स्कूल, ऑफिस जाने के समय कैसे मना करें।
इतनी भीड़ में तो गड़बड़ी भी हो जाती होगी?
हाँ, वह तो होती ही है। और सब कंडक्टर के मत्थे ही पड़ती है। अगर हमसे किसी को ज्यादा पैसा चला गया तो वह तो जेब में पैसा रखकर चल देगा पर उसे दो रुपये कम दे दो तो वह हल्ला करता रहेगा। आप ही सोचो, चौतीस सीटर बस में यदि मैं अस्सी यात्री ले जाऊंगी तो कैसे चैक करूंगी। यदि एक टिकट की भी गड़बड़ी हो और इंस्पेक्टर ने र्चैंकग में गलती पकड़ ली तो हमारी नौकरी में तो लाल स्याही लग जायेगी।
र्चैंकग होती रहती है?
हाँ, होती रहती है। गाड़ियों में कंडक्टर कम हैं, र्चैंकग वाले ज्यादा हैं।
कभी गलती हुई आपके काम में?
एक बार नहीं, कई बार गलती हो जाती है। कोयले की खान में हाथ डालें तो हाथ काले होने ही हैं। भीड़ में कई बच्चे शैतान होते हैं। ग्यारह किमी. के सफर में किस-किस को देखा जाय।
लम्बे रास्ते की गाड़ियों में अधिक आराम है?
हाँ, लम्बे सफर की गाड़ियों में चालीस सवारी हैं तो एक बार टिकट काटने के बाद फिर कोई मतलब नहीं। हमें तो हर एक-दो किमी. में सवारी लेनी पड़ती हैं और हिसाब भी रखना पड़ता है।
आप कभी दिल्ली तक की बस में भी जाती हैं?
नहीं, मैं मुरादाबाद, बरेली तक गयी हूँ। दिल्ली नहीं गयी हूँ। मैं रात को कभी बाहर नहीं रुकती हूँ, यह मेरा नियम है। नैनीताल से अप-डाउन की गाड़ियों में ही जाती हूँ। मैं एक औरत हूँ, रात को बाहर कहाँ रहूंगी। पहले जब मुरादाबाद जाती थी तो अक्सर रास्ते में जाम लग जाता था। आपको यकीन नहीं होगा कि मैं रात के बारह बजे भी यहाँ से अपने घर खुर्पाताल जाती थी। अब तो मुझे इतना अनुभव हो गया है कि ड्यूटी बहुत आसान लगती है। ड्यूटी की अब मुझे कोई चिन्ता नहीं रही। शुरुआत में इतनी कठिन ड्यूटी थी कि सुबह यहाँ से द्वाराहाट जाते थे। वहाँ से नैनीताल आते थे। फिर मुरादाबाद और रात को वापस नैनीताल। अब तो मैं लोकल में हूँ कोई परेशानी नहीं है।
जब से आप नौकरी में आयी हैं क्या बोलने का तरीका बदल गया है?
हाँ, बहुत बदल गया है। भवाली डिपो में एक कर्मचारी हैं वे मुझसे कहते हैं जिस दिन तुम प्रशिक्षण के लिए आई थी, मैंने सोचा यह कहाँ कर पायेगी नौकरी। पर मैं अब तक यहाँ टिकी हूँ। यहाँ हम कर्मठ हैं ऐसा दिखाना पड़ता है। शैतान लड़के मुझसे डरते हैं पर मैं भीतर से कुछ नहीं हूँ। मैं उनसे ज्यादा डरती हूँ।
Conversation with Bhagwati Bisht
यात्री परेशान करते हैं कभी?
हाँ, पहले पहल तो स्कूली बच्चों ने बहुत परेशान किया। वे मेरी नकल उतारते थे। मैं कहती टिकट बनाऊ वे भी कहते टिकट बनाऊँ । पर अब तो वे मुझसे हँसी-मजाक करते हैं और बताते हैं आंटी जी इनका टिकट रह गया है। मैं दो दिन छुट्टी में चली जाऊँ तो बच्चे कहने लगती हैं आंटी जी आप कहाँ थीं। यात्रियों से मुझे कोई शिकायत नहीं है। मैं एकदम गुस्सा करती हूँ तो दूसरे ही क्षण मेरा गुस्सा उतर भी जाता है। तू-तू, मैं-मैं तो होती ही है। कल ही एक यात्री ने कितना परेशान किया आप देख रही थीं। कल शाम को एक महिला बिगड़ गयी। कहने लगी, तुमने मुझे चार रुपये नहीं लौटाये। मैं तो दस दिन बाद भी यात्रियों को पैंसे लौटा देती हूँ। आखिर दिनभर इतने यात्रियों के लिए टूटे पैंसे कहाँ से लाऊंगी। यात्री भी बेईमानी करते हैं यदि किसी को बाकी पैसे चले गये और फिर उनसे कहो तो कहते हैं- मैडम हमने देखा ही नहीं। ऐसी कई घटनाएँ होती हैं। कई लोगों को मैंने बुरी तरह डांटा है। हम भी दो पैसा कमाने के लिए इतनी मेहनत कर रहे हैं। हमारे पास जो पैसा है वह सरकारी पैसा है। हमें पैसों से मतलब नहीं पर हिसाब सही होना चाहिए।
अपने सहकर्मी ड्राइवर कंडक्टरों से आपका कैसा व्यवहार रहता है?
उनसे तो मेरा दोस्ती का व्यवहार रहता है। जैसे वे आदमी हैं तो मैं भी आदमी हूँ। हमारी एक भाषा रहती है। तुम कंडक्टर हो तो मैं भी कंडक्टर हूँ। न महिला न पुरुष। कोई मेरे कंधे में हाथ रख देता है तो मुझे कोई आपत्ति नहीं होती। एक बात साफ है कि मुझसे कोई छेड़छाड़ नहीं कर सकता। मुझे तो वे अपने भवाली डिपो की शान समझते हैं। अगर कंधे में हाथ रखकर चल रहे हैं तो मुझे जाना है। पहले पहल मैं बहुत डर गई थी। हम खाना खा रहे हैं और वे बगल में बैठकर दारू पी रहे हैं तो मुझे यह सब देखना है पर खाना तो उनके साथ ही खाना है। अगर वे गन्दी गालियाँ बोल भी देते हैं तो मुझे तो एक कान से सुनना है और दूसरे कान से निकालना है।
आप गाड़ी से सम्बन्धित सारा काम कर लेती हैं?
हाँ, सब। ए टू जेड सारा काम। गाड़ी खराब हो गई तो गाड़ी में भी हाथ लगाना है। पहिए भी खोलने हैं, इंजन भी उठाना है, देखना है। मुझे इसमें कोई परेशानी नहीं होती कि इससे मेरी इज्जत खराब हो जायेगी। मैं कंडक्टर हूँ तो यह मेरा व्यवसाय है। सुबह-सुबह जब मैं आती हूँ तो सबसे पहले मेरा काम होता है- गाड़ी में झाड़ू लगाने का। सफाई कर्मचारी भी मुझसे खुश रहता है, उसके आने में देर हुई तो मैं अपने हाथ से झाड़ू पोछा लगा देती हूँ।
एक कंडक्टर की ड्यूटी क्या-क्या है?
कंडक्टर की ड्यूटी है टिकट काटने और कैश सही रखने की। उसके टिकट सही हों, कैश सही हो, बस में जितने यात्री हों सबको टिकट मिल जाय। गाड़ी की बॉडी का मालिक चालक है और कैश का मालिक परिचालक है। गाड़ी में कोई खराबी आ जाय या कुछ काम कराना है तो उसके लिए चालक जायेगा। परिचालक सीधे कैश कार्यालय में जमा करायेगा।
प्रशिक्षण के दौरान परिचालकों को भी गाड़ी चलाना सिखाया जाता है?
ऐसा नहीं है, पर यह होना चाहिए कि जो परिचालक है उसे गाड़ी चलाना आना चाहिए। कभी ऐसी स्थितियाँ आ सकती हैं।
इतने साल की नौकरी में आपका कोई खास अच्छा या बुरा ऐसा अनुभव है?
शुरू-शुरू में नैनीताल-लमगड़ा की बस में बतौर परिचालक जा रही थी, तो मैं नयी-नयी थी, पहाड़पानी में गाड़ी से उतरी तो मुझे देखने के लिए वहाँ इतनी औरतें और आदमी इकट्ठे हो गए कि मुझे बहुत अच्छा लगा। हम सुबह-सुबह नैनीताल से जाते थे। दस-साढ़े दस बजे हम पहाड़ पानी पहुँचते थे और वहाँ एक दुकान पर चाय पीते थे। वहाँ पर इतनी भीड़ जमा हो गई कि कोई कहे लेडीज है, कोई कहे श्यैणि (स्त्री) है, तो कोई कुछ कहे। मेरा चाय पीना दुश्वार हो गया। मैंने ड्राइवर साहब से कहा, मैं तो बस में जाती हूँ मेरे लिए वहीं चाय भिजवा दो। फिर वे खिड़कियों से झाँकने लगे। जब मैं नीचे उतरी तो कहने लगी अरे नीचे आ गई-नीचे आ गई। गाँव की महिलाएँ कहती थीं, आप कितनी खुशनसीब हैं जो गाड़ी में बैठी हैं। हम तो घास-लकड़ी इकट्ठा करते रह गये।
और कोई बहुत बुरा अनुभव हुआ हो?
बहुत बुरा अनुभव तो ऐसा नहीं हुआ कभी पर यहाँ से रात को अपने घर खुर्पाताल जाना बुरा लगता था। एक-दो बार मुझे काफी रात हो गई थी। जाड़ों के दिन थे तब मुझे ऐसा लगा कि जो दो आदमी मेरे साथ चल रहे थे वे वास्तव में आदमी नहीं थे। तल्लीताल से ही घर तक वे आगे-पीछे मेरे साथ चलते रहे। कभी गायब हो जाते और कभी फिर साथ चलने लगते। मैं डर भी रही थी और चलती भी जा रही थी। जब मैं घर के पास पहुँची तो मैंने उनको हाथ जोड़े और कहा तुम जो भी हो, जैसे भी हो, तुमने तो आज मेरी रक्षा ही की। मेरे लिए तो तुम भगवान ही हो। एक बार और इस तरह का अनुभव हुआ कि मेरे आगे दो कटे हुए हाथ लहराते हुए आगे बढ़ते जा रहे थे पर मैं चलती गई और शकुशल घर पहुँच गई। उस दिन मेरे साथ हमारे ही गाँव के एक और आदमी भी थे। मेरी जेब में हमेशा माचिस, चाकू और हनुमान चालीसा रखी रहती थी। इस घटना को याद करते हुए आज भी मेरे रोंगटे खड़े हो जाते हैं। मुझे तो अपने से अधिक ऊपर वाले का भरोसा है। बचपन से ही जो इतने कष्ट सहन किये उसी से मन में शक्ति आ जाती है। लोगों से अगर मैं ये बातें कहूँ तो वे सोचते हैं कि ये किस्से गढ़ रही है। पर यह हकीकत है।
रात को यहाँ से जाकर खाना बनाती हो?
हाँ, कभी-कभी बनाती हूँ। पहले ईजा बनाये रखती थी। अब मेरी भाभी हैं घर में, कभी वे बनाए रखती हैं और कभी मैं बनाती हूँ। खाना बनाने में मुझे कोई परेशानी नहीं होती। घर पहुँचकर मुझे कोई थकान भी महसूस नहीं होती अभी तक। मैं पूरी लगन से खाना बनाती हूँ। चाहे कितना ही समय लगे।
दिन का खाना बाहर ही होता है?
हाँ, सुबह घर से रोटी बनाकर ले आती हूँ। दही, सब्जी यहाँ ले लेते हैं। कभी चावल भी ले लेती हूँ।
घर में अकेलापन नहीं महसूस होता?
मुझे आज तक अकेलापन नहीं लगा। बहुत से लोग मेरे बारे में सोचते हैं कि यह अकेली है पर मुझे कभी इस बात का कोई ख्याल नहीं आता। मैं मजे से रहती हूँ। मेरे गाँव के चाचा, जब मैं स्कूल पढ़ती थी तो मुझसे कहते थे कि जब तू चलती है तो धरती हिलती है। नौकरी करने में भी मुझे कोई परेशानी नहीं है। पहले-पहल जब परेशानी होती थी तो मुझे बुरा लगता था पर अब ऐसी कोई बात नहीं। दो-चार लड़कों को तो मैंने झापड़ भी मारे हैं।
क्या बिना टिकट चलने पर?
हाँ। एक बार यहाँ से हम पाइन्स पहुँच गये थे। दो बच्चे नौकुचियाताल के गाड़ी में थे। मेरे हिसाब में दो सवारीयाँ बढ़ गई थी। कितनी बार पूछते-पूछते भी जब कोई नहीं बोला तो मैंने एक-एक टिकट करके देखना शुरू किया। अन्त में दो लड़के बैठे थे, मैंने उनसे कहा टिकट दिखाओ तो सौ का नोट दिखाकर बोले, दो टिकट दे दो। मुझे इतना गुस्सा आया कि मैंने जोर से उन्हें झापड़ मारा- एक दो नहीं चार-पाँच तब मुझे शान्ति मिली। मैंने कहा इतनी देर से तुम बोले क्यों नहीं। उसके बहुत दिन बाद वे लड़के नौकुचियाताल में मुझे मिले तो मुझसे कहने- लगे आज आ जाओ बस से उतरकर नीचे। मैं बस से नीचे उतरी तो वहाँ दुकानों में मुझे और भी परिचित लड़के मिल गए। उन्होंने उनसे कहा यह तो हमारी आंटी जी हैं। इनसे ऐसे बात क्यों कर रहे हो। मैंने कहा जो बात करनी है कर लो। चार झापड़ मैं खाऊंगी तो दो झापड़ मैं भी तुमको लगाऊंगी। ऐसे ही एक बार हल्द्वानी में काठगोदाम में कालेज के दस-बारह लड़के बस में बैठ गए। मैंने पूछा कहाँ जाओगे तो बोले, हम छात्र हैं। मैंने उनसे कहा सीट छोड़ दो खड़े होकर चले जाओ। कुछ तो खड़े हो गए पर एक-दो लड़के खड़े नहीं हुए और आस्तीन चढ़ाने लगे। मैंने कहा तू आस्तीन क्यों चढ़ा रहा है। मैं सरकारी कर्मचारी हूँ। अभी थाने के अन्दर बंद करा दूँ तो जिन्दगी भर तू पछताएगा। मैंने अपना बैग एक यात्री को दिया और आस्तीन चढ़ाई और उससे कहा चल तू नीचे उतर मेरी भाषा देखकर वे डर गए और कहने लगे चल यार दूसरी बस में चलते हैं। मैं अन्दर से तो काँप रही थी पर उससे कह रही थी चल तू नीचे उतर।
Conversation with Bhagwati Bisht
आप क्या सोचती हो, लड़कियों के लिए इस तरह की नौकरी ठीक है?
मैं तो सोचती हूँ, जब इंदिरागाँधी ने देश चला दिया तो हम क्यों नहीं कर सकते नौकरी। कोई भी काम करने के लिए अपने आप को, अपने दिमाग को पुख्ता रखना पड़ता है। आप कैसे ही माहौल में चले जाएँ अगर आप मजबूत हो तो कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता है, मेरा तो यह मानना है। जब मैं नयी-नयी थी, मैं वर्कशॉप में जाती थी तो मेरे साथ के कर्मचारी आते-जाते गन्दी गालियाँ देते रहते थे, आपस में गन्दी बातें करते थे। पहले पहल तो मुझे बहुत बुरा लगा बाद में जब लगातार उनके साथ उठने-बैठने लगी तो उनका भी व्यवहार बदलने लगा। जब वे गन्दी गालियाँ देते थे तो मैं कहती थी- तुम किस घर से आते हो? तुम्हारे घर का माहौल क्या है भाई? तुम अपने घर में भी यही बोलते हो, तुम शराब पीकर एक बार बोल रहे हो, मैं पचास बार यही शब्द बोल दूंगी। वे तो मेरी बात सुनकर सन्न रह गये। एक बार मेरा ड्राइवर से झगड़ा हो गया। मेरे पैर में दर्द हो रहा था, उनको गाड़ी पीछे करनी थी मैं अपनी सीट से उठ नहीं पायी। अब ये लगे गन्दी गालियाँ बकने। उनकी भाषा वही थी। जैसे मैं आपसे बोल रही हूँ वैसे ही उनकी वही भाषा थी। उन्होंने मेरी स्टेशन प्रभारी से शिकायत कर दी कि भगवती को हटा दो। यह गाड़ी आगे-पीछे करने में देखती नहीं। स्टेशन प्रभारी ने मुझे बुलाया और पूछा क्यों भगवती तुम गाड़ी देखती नहीं हो? मैंने कहा गाड़ी क्यों नहीं देखती हूँ साहब, ये तो मुझसे………… कहते हैं…….. कहते हैं। मैंने साफ-साफ साहब के सामने वह गाली बोल दी। मैंने कहा ये मुझसे ऐसी भाषा में बात क्यों करते हैं? साहब ने कहा, अच्छा तुम जाओ। मैंने कहा मैं क्यों जाऊँ? आप उनकी पूरी बातें सुनते हो तो मेरी बात भी सुनो, मुझे भी कहने का अधिकार है। मेरे पैर में दर्द था। इन्होंने मुझसे यह नहीं पूछा कि तू उठ क्यों नहीं रही है। सीधे गाली देना शुरू कर दिया। मैंने कहा मैं गाड़ी का सारा काम करती हूँ। कोई दूसरा मेरे बराबर काम करके दिखा दे। मैंने हाथ से सीटी बजाना सीखा क्योंकि टिकट काटते समय बैग से निकालने में झंझट होता है तब ड्राइवर साहब ने कहा कि भगवती मुझे पता नहीं था। तब मैंने कहा आपको भी तो समझना चाहिए कि महिलाओं की दस तरह की समस्याएँ होती हैं। आपके घर में भी लड़कियाँ होंगी। कभी न कभी उनको भी परेशानी हो सकती है। आप तो कह देते हो कि हमें गाली देने की आदत है। मैं सच कहती हूँ कि मेरे वहाँ जाने से कई आदमियों ने तो कई गन्दे शब्दों का प्रयोग करना छोड़ दिया है।
आजकल सरकारी सेवाओं में भी महिलाओं के अनुकूल नियम बनाये जा रहे हैं। आपके यहाँ भी कुछ ऐसा है?
कुछ नहीं है। वहाँ एक ही बात है कि जिसका जो पद है वह उसके अनुसार काम करेगा। कंडक्टर है तो कंडक्टर है, क्लर्क है तो क्लर्क है। वहाँ महिला-पुरुष का कोई सवाल नहीं है। हाँ, इतना है कि मुझे अब कम दूरी की बस सेवा दी गई है।
ओवर टाइम भी करते हो?
हाँ, करती हूँ, जब कहीं गाड़ी फँस जाती है और कहा जाता है कि गाड़ी लानी है तो जाना ही पड़ता है। वैसे अब पहले की तुलना में इतनी सुविधाएँ हो गई हैं कि ज्यादा ऐसी नौबत नहीं आती।
आप क्या सोचती हो, क्या महिलाओं को बसों में ड्राइवर का काम भी करना चाहिए?
हाँ, बिलकुल करना चाहिए। महिलाएँ बड़ी संख्या में ड्राइवर हो तो हमारे लिए बहुत आसानी हो जायेगी। तब तो बढ़िया है क्योंकि दोनों महिलाएँ होंगी तो आपस में अपनी समस्या एक-दूसरे को बता सकेंगी। पुरुषों से हमारी नहीं पटती। वे अलग स्वभाव के हैं- पीने खाने वाले होते हैं।
महिलाओं के लिए बस चलाना कठिन नहीं होगा?
कठिन कुछ नहीं है। एक बार काम आ जाए, फिर कुछ कठिन नहीं होता। इतनी महिलाएँ कार चलाती हैं जबकि वे गाड़ी के बारे में कुछ नहीं जानती लेकिन एक-एक हफ्ते में कार चलाना सीख जाती हैं। मैं कंडक्टर हूँ लेकिन मुझे भी पता चल जाता है कि गाड़ी में कुछ गड़बड़ हो रही है। कहीं खटपट हो या आवाज आए तो मुझे पता चल जाता है कि ये कमानी के पट्टे में गड़बड़ है, या पहिये में या इंजन में।
क्या बसों में महिलाओं के लिए सीट भी आरक्षित होनी चाहिए?
हमारे इलाके में तो लोग महिलाओं के लिए सीट छोड़ ही देते हैं।
नहीं मैंने तो देखा है कि बहुत बार छोटे-छोटे बच्चों को गोद में लेकर महिलाएँ खड़ी रहती हैं?
मैं सोचती हूँ कंडक्टर अगर सही हो तो व्यवस्था हो जाती है। मैं तो पहले महिलाओं और बच्चों को ही सीट दिलाती हूँ। गाड़ी के अन्दर पूरी तरह कंडक्टर का ही अनुशासन चलता है। कल मेरी गाड़ी में एक आदमी शराब पीकर गाली-गलौज कर रहा था। सारे यात्री परेशान थे मैं टिकट काटने में लगी थी। जब सारे टिकट हो गए तो मैं उसके पास गई। मैंने कहा, क्या बात है? टिकट नहीं बनाना है? तो कहने लगा मैंने टिकट बना लिया है। मैंने कहा टिकट दिखाओ? तो सौ रुपये का नोट दिखाने लगा। मैंने उसका टिकट काटा, पैसे लौटाए और उससे कहा अब मुँह से अगर आवाज निकाली तो जितने दाँत हैं सब तोड़कर मुँह के अन्दर डाल दूंगी। चुपचाप बैठ जाओ। वह चुप हो गया। उसके बाद उसके मुँह से एक भी शब्द नहीं निकला।
शराबी तो पेरशान करते ही होंगे?
हाँ, करते ही हैं। पर अब मैं ज्यादा गुस्सा नहीं करती। कल भी आपने देखा वह आदमी मुझे कितना परेशान कर रहा था। हम तो जनता के नौकर हुए और हमने भी अपनी दुकान चलानी है। बस में उल्टा-सीधा बोलेंगे तो यात्री हमारे पास क्यों आएगा। मैं तो हमेशा खुदरा पैसे रखे रखती हूँ जितना हो सके। यात्री हमें पैसे भी दे रहा है और हम उसे डाँठ भी रहे हैं तो वह हमारे यहाँ क्यों आएगा। यात्रियों से ज्यादा उलझने से तो चुप रहना या प्यार से बात करना ठीक होता है। बच्चे लोग यही तो कहते हैं कि एक मिनट में हमारी आंटी गरम हो जाती है और दूसरे मिनट में पानी की तरह शीतल हो जाती है।

आपसे बात करके बहुत अच्छा लगा भगवती। बहुत-बहुत धन्यवाद।

प्रस्तुति: उमा भट्ट
Conversation with Bhagwati Bisht


उत्तरा के फेसबुक पेज को लाइक करें : Uttara Mahila Patrika
पत्रिका की आर्थिक सहायता के लिये : यहाँ क्लिक करें