पर्वतारोहण : जीवन के वे सुखद क्षण
चन्द्रप्रभा एतवाल

6 सितम्बर को जौन और मैं चोटी फतह के लिये तैयार हुए। 3 बजे प्रात: नाश्ता व चाय पीने के बाद चल पड़े। आज मौसम बहुत साफ था और आकाश में चांदनी फैली हुई थी। सारा पहाड़ सफेद चांदनी में नहा रहा था। लगभग 8 बजे तक हम चलते रहे। मुझे बहुत अच्छा लग रहा था। इतने में जौन कहने लगा, तुम्हें मालूम है, 1974 में न्यूजीलैण्ड की 4 लड़कियों की हिमालय में मृत्यु हो गयी थी। मैने कहा, मेरी उम्र की रेखा बहुत लम्बी है और मैं अभी नहीं मर सकती। इस पर कहने लगा कि ताजी बर्फ कभी भी खिसक सकती है। अत: मैं कभी भी रिस्क नहीं लूंगा और मैं वापस जा रहा हूं। वह ऊँचाई को छूने के लिए दूसरी दिशा में चल दिया। अब मेरे लिये कोई चारा नहीं था। बहुत देर तक सुन्दर मौसम को निहारती रही और अपने भाग्य पर रोती रही।
काफी देर तक विचार करने के बाद सोचा कि कुछ दूर तक लगाई गयी रस्सियों पर जुमार द्वारा आरोहण करूं। अत: 5 रस्सियों तक चढ़ती चली गयी लेकिन अकेले चोटी की ओर जाने की हिम्मत नहीं थी। अत: आराम से उन्हीं रस्सियों के सहारे वापस आयी। पर मुझे दु:ख बहुत हो रहा था। अब मैं भी उसी दिशा की ओर चली जहां जौन गया था किन्तु 11 बजे जौन वापस आ रहा था। उसका मुंह लाल हो गया था। मेरी समझ में यह नहीं आया कि उसका मुंह इतना लाल क्यों हो रहा है ?
बाद में पता चला कि उसको हाई अल्टीट्यूड सिकनेस हो रही है और सिर में दर्द के कारण यह हाल है। किसी तरह उसे शिविर में वापस लाई। पर मुझे इतने सुन्दर मौसम को बर्बाद करने का दु:ख हो रहा था। मैं रोने लगी। जौन अब प्रथम शिविर जाने की तैयारी करने लगा और कहने लगा ”सौरी चन्द्रा, मैं तुम्हारा साथ नहीं दे सका” अभी तक तो कल जाने की उम्मीद थी, अब वह उम्मीद भी जाती रही।
मुझे रोता देखकर ग्रेम डिंगल को तरस आया और कहने लगा ‘‘क्या तुम्हें जुमारिंग पर चढ़ना आता है ?’’ मैने कहा, हाँ, और आज अभी 5 लगी रस्सियों पर चढ़कर वापस आई हूँ। उसने कहा, तब ठीक है, शाम को हमारे साथ चलोगी ? मैं तैयार हो गयी, कहने लगे अब तुम कुछ देर आराम करो। दिन का 1 बज चुका था पर मुझे नींद नहीं आई। बेचारा जौन मुंह लटका कर प्रथम शिविर वापस चला गया।
इस तरह शाम को खाना खाकर 6 बजे हम रवाना हुये। मैं सबसे आगे-आगे चलती चली गयी। गे्रम डिंगल और जौ-जौ पीछे से आ रहे थे, क्योंकि मैं टीम में देर से सम्मिलित हुई थी। अत: हमें एक दूसरे के बारे में कुछ भी पता नहीं था। वे देखना चाहते थे कि मैं किस तरह रास्ता खोलती हूँ और मुझे भी पक्का विश्वास था कि मैं किसी प्रकार उनसे पीछे नहीं रहूंगी और उनके सामने खरी उतरूंगी। इस तरह आगे ही आगे बढ़ती चली गयी। सारी बंधी हुई रस्सियों को चढ़ने के बाद रात 2 बजे के लगभग उनका इन्तजार किया। मैंने अब पानी पीने के लिये बोतल निकाली तो पता चला कि मेरी बोतल का पानी जम गया है। मैंने लालच में आकर शाम को ही बोतल में ग्लूकोज डाला था। वही ग्लूकोज जमकर बर्फ बन गया था। ग्रेम ने मुझे अपनी बोतल का पानी दिया।
हम लोग साथ-साथ चलने लगे और रस्सी से बंध गये। अब मुझे भयंकर नींद आने लगी और जहां खड़ी थी, वहीं नींद के मारे झूमने लग गयी थी। नींद को भगाने के लिये मैं अपने गालों पर खूब मारती थी। यदि ऐसा नहीं करती तो कहीं भी गिर सकती थी, क्योंकि मुझे रात भर जगने की आदत नहीं थी और फिर दिन भर की थकी भी थी। खैर किसी तरह से अपने को संभाल-संभालकर चल रही थी। मुझे हमेशा न्यूजीलैण्ड वालों के सामने अपने देश का ख्याल आता था और किसी तरह पीछे होना नहीं चाहती थी।
लगभग 4 बजे मेरे जीवन का सबसे सुखद क्षण मेरी आँखों के सामने था। पूर्व की ओर से सूर्योदय हो रहा था और पश्चिम की ओर (फूलों की घाटी) में चांदनी रात और तारे चमक रहे थे। यानी एक ओर दिन तथा एक ओर रात एक ही समय में देख रही थी। साथ ही फूलों की घाटी की तरफ अन्धेरे में कहीं-कहीं कुछ चीज चमकती हुई नजर आ रही थी। वह क्या चीज थी ? मैं समझ नहीं पायी और हमेशा ही मेरे मन में एक प्रश्न बनकर रह गयी। काफी देर तक खड़े-खड़े इस अनुपम दृश्य का अवलोकन करने के बाद अब धीरे-धीरे आगे बढ़ने लगे। थोड़ी देर एक जगह पर आराम करने बैठे और पानी पीकर चीज आदि खाने लगे, पर मुझे चीज पसन्द नहीं थी। अत: मैने मना कर दिया ।
Mountaineering : Those happy moments of life
ग्रेम डिंगल काफी अच्छे अनुभवी पर्वतारोही थे। अब काफी तेज ढ़ाल शुरू हो गया था। अत: वह पहले अपने आप (आईस ऐक्स व आईस हैमर की सहायता से) चढ़ते थे फिर आईस ऐक्स लगा करके हमारे लिये रस्सी छोड़ देते थे और उसमें जुमारिंग करके आने को हमें कहते थे। इस प्रकार हम दोनों ही एक-एक करके जुमारिंग करके गे्रम के पास पहुंच जाते थे। इससे समय की बचत होती थी और साथ ही सुरक्षित भी चढ़ जाते थे। कभी-कभी रास्ते के लम्बे क्रेवास को भी आराम से पार कर लेते थे। इस प्रकार गे्रम डिंगल ने हम दोनों की जो सहायता की, उसे मैं कभी भूल नहीं सकती।
आज तक के इतने लम्बे पर्वतारोहण की अवधि में मैंने किसी भी भारतीय सदस्य को अपने दल के दूसरे सदस्य की इतनी मदद करते हुए नहीं देखा। जैसे ही हम उनके पास पहुँच जाते जो-जो से पूछते, जो, क्या तुम ठीक हो ? हिम्मत रखो। यह बहुत अच्छा लगता था। इस तरह 8 बजे रक्तवन चोटी को फतह किया। चोटी पर पहुंचकर गे्रम डिंगल को धन्यवाद दिया और उस परम शक्ति को भी प्रणाम किया। फोटो खींचे, चारों ओर का सुन्दर दृश्य देखा। फिर धीरे-धीरे नीचे उतरने लगे।
नीचे उतरते समय भी आईस एक्स में रस्सी लगाकर रस्सी आगे देंक देते थे, फिर हमें रैपल करके उतरने को कहते थे। इस प्रकार सीधे उतरकर क्रेवास को भी पार करते हुए कूद कर आते और अपने आप फिर उसी प्रकार टीक, टोक प्वाइन्ट से उतरकर आते। इस तरह जहां तक रस्सियां नहीं लगा रखी थीं वहाँ तक आराम से बदल-बदलकर आये। जैसे ही लगाई रस्सियां शुरू हुईं, वे लोग आराम करने बैठ गये। मैं धीरे-धीरे आगे बढ़ने लगी, क्योंकि लगाई गई रस्सियों में एक साथ नहीं जा सकते थे और समय की भी बचत होती थी साथ ही दूसरे को रुकना नहीं पड़ेगा। यह सोचकर मैं आगे चली।
मैं लगाई गई रस्सियों में आराम से चल रही थी। अत: मैंने अपने क्रम्पोन्स को उतार कर रूक्सेक के ऊपर बांध रखा था, किन्तु अचानक एक जगह मेरा क्रम्पोन नीचे गिर गया। मैं रूक्सेक रखकर उसे उठाने लगी थी। तभी देखा कि ऊपर से बहुत सारे पत्थर गिरने लगे। यदि मैं फिक्स रोप में ही चल रही होती तो इन पत्थरों से बचना बहुत ही मुश्किल था। परन्तु बचाने वाला तो वह परमपिता है, जिसकी इच्छा के बिना एक पत्ता भी हिल नहीं सकता है। उसी ने बहाना बनाकर मुझे क्रम्पोन को उठाने दूसरी तरफ भेज दिया। इस प्रकार उस परम शक्ति को धन्यवाद देने लगी, किन्तु मैं बार-बार यही सोच रही थी कि इतने भयंकर पत्थर कैसे गिरे? तब मैं साथियों के आने तक वहीं बैठी रही और आगे बढ़ने की हिम्मत नहीं की।
मैंने उन दोनों को आगे जाने दिया और काफी देर बैठने के बाद पीछे-पीछे उतरी। अब धूप काफी तेज चमक रही थी जिस कारण जूतों पर बर्फ चिपक रही थी। इस प्रकार धीरे-धीरे चलती हुई लगभग 3 बजे शिविर पहुंची। शिविर में कोई भी भारतीय नहीं था फिर भी उन लोगों ने मुझे जूस पिलाया। नीचे के शिविर से अली, स्टू व टोनी भी आये हुये थे। आज शाम उन लोगों का चोटी की ओर जाने का विचार था। शाम 6 बजे खाना खाकर रवाना हुए। रात आराम से अकेली टेन्ट में सो गयी।
सुबह 6 बजे के लगभग उठकर टेन्ट से बाहर आयी और चोटी की ओर नजर डाली तो कोई कहीं दिखाई नहीं दिये। जैसे-जैसे नीचे की ओर देखती गयी तो तीनों लगाई हुई रस्सियों पर थे और रस्सियां खत्म होने की जगह पर तीनों पहुंच गये थे। मैंने मैगी को आवाज दी और बताया कि देखो वे लोग वापस आ रहे हैं। रसोई में जाकर चाय नाश्ते का प्रबन्ध किया। जब वे लोग शिविर में पहुंच गये तो सभी ने साथ में चाय आदि लिया। कुछ देर तक उनसे बात करके आराम करने के बाद मैने गे्रम डिंगल से कहा ‘‘क्या मैं आधार शिविर जा सकती हूं ?’’, उन्होंने कहा, हाँ। अब मैं अपना पूरा सामान रूक्सेक में पैक करके आधार शिविर के लिये अकेली ही चल पड़ी।
प्रथम शिविर तक बिना आराम किये ही आयी। अब रूक्सेक उठाकर चढ़ाई चढ़ने की हिम्मत नहीं थी। अत: रूक्सेक को नीचे छोड़कर प्रथम शिविर गयी। प्रथम शिविर में सेब पड़े थे, उन्हें खाकर थोड़ा आराम किया और कुछ सामान को ठीक से रखा। फिर कुछ सेब साथ लेकर आधार शिविर के लिये चल पड़ी। रास्ते में कुछ कुली मिले। वे लोग मुझे देखकर बहुत खुश हुए और कहने लगे आपने चोटी फतह करके भारत का नाम रोशन किया है और अपने साथ लायी रोटी खाने के लिये देने लगे। उनके प्यार को देखकर आधी रोटी खाई। हालांकि मेरा मन खाने को नहीं कर रहा था। पर अब मैं काफी थक गयी थी, क्योंकि सारे सामान को उठाकर लाई थी और वजन काफी था। चढ़ाई जैसे ही शुरू होती थी मुझे थोड़ी देर आराम करने की आवश्यकता पड़ रही थी। मन कर रहा था कि आधार शिविर से कोई थोड़ी देर लेने को आते, परन्तु शिविर में पहुंचकर भी कोई टेन्ट से बाहर नहीं निकला। उस समय मुझे बहुत बुरा लगा।
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काफी देर तक आराम कर चुकी थी तब जाकर डोडियाल टेन्ट से निकलकर आया। उस समय मैं रसोई में खिचड़ी खा रही थी। उसके बाद लीडर भी आये और कहने लगे क्या चोटी फतह किया ? मैंने कहा, सर, मेरा चेहरा क्या बता रहा है ? परन्तु मन ही मन गुस्सा आ रहा था कि क्या लीडर का व्यवहार इस प्रकार से नीरस होना चाहिए ? खैर, खाना खाने के बाद किस-किसने चोटी फतह की और कैसे-कैसे योजना बनाई, इसके बारे में पूरा विवरण लीडर को दिया। उसी दिन बिजू और लखा सिंह डॉक्टर के साथ जोशीमठ चले गये थे। मेरा उन लोगों से मिलने का बहुत मन कर रहा था, परन्तु यह सम्भव नहीं था।
रात को आराम से सो गयी थी। सुबह उठकर नाश्ते के बाद लीडर कहने लगे कि क्या बोझ लेने प्रथम शिविर जाओगे? मैं कुछ नहीं बोली क्योंकि मैं काफी थकी हुई थी और पूरे सामान के साथ द्वितीय शिविर से सीधे ही आधार शिविर तक आयी थी। बाद में लीडर भी समझ गये कि यह नहीं जायेगी। अत: आगे कुछ नहीं बोले।
अगले दिन भगवान की कृपा से मौसम खराब हो गया और पूरे दिन आराम करने का मौका मिल गया था। आज आधार शिविर में काफी रौनक थी, क्योंकि न्यूजीलैण्ड के सभी सदस्य आधार शिविर में आ गये थे। शिविर में आज बड़ा खाना बना। रात भर खा-पी कर खूब नाचे और देर रात तक हल्ला-गुल्ला करते रहे। यहाँ तक कि ग्रेम डिंगल तो नाच-नाचकर टेन्टों के ऊपर चढ़ने लगा और रसोई का टेन्ट तो फाड़ ही दिया।
सुबह सभी देर से उठे क्योंकि रात की खुमारी निकालनी थी। पर आज न्यूजीलैण्ड वालों की हालत पस्त थी। अधिक खाना-पीना करने से सबका पेट खराब हो गया था। गे्रम डिंगल अब बैठकर रसोई के फटे टेन्ट को सिलने लगा। साथ ही सभी ने यह विचार किया कि 19500 मीटर की एक अनाम चोटी की चढ़ाई की जाय।
10 सितम्बर को मौसम साफ था अत: सभी अपने-अपने रास्ते से सामान पहुंचाने हेतु चल पड़े। मेरे साथ जौन था। उसने ग्लेशियर वाला रास्ता अपनाया ओर मैं मोरिन से रिज को पकड़ कर चलती रही। इस प्रकार हम दोनों भी अलग-अलग हो गये। काफी देर तक उसे पुकारा पर उसका कहीं अता-पता नहीं था। अन्त में हारकर एक बड़े पत्थर के ऊपर बैठ गयी और भगवान को कुछ बिस्कुट चढ़ाया और अपने साथ जो सामान लेकर आयी थी, उसे उसी पत्थर के ऊपर छिपाकर वापस आने की तैयारी की। अब मैने दूसरी ओर का रास्ता अपनाया। एक जगह मेरे पैर के नीचे जो पौधा दबा था, उससे बहुत अच्छी खुशबू आ रही थी। उसकी पत्तियों को हाथ में लेकर अब मैं पहाड़ पर इधर-उधर घूमने लगी। एक जगह झील के किनारे बहुत ही सुन्दर हल्के पीले रंग का फूल दिखाई दिया जो पास जाने पर देखा कि ब्रह्मकमल था। मैंने इससे पहले ब्रह्मकमल को खिले हुए कभी नहीं देखा था। ब्रह्मकमल को पहली बार देखकर बहुत खुश हुई। मैने उसके अलग-अलग बहुत से फोटो खींचे, फिर कुछ फूलों को तोड़कर लाई। उस समय मैं इतनी खुश हो गयी थी कि मैं अपने आप कल्पना से परे उन फूलों की दुनियां में एक स्थान से दूसरे स्थान पर घूमने लगी। वहाँ से मन वापस आने को नहीं कर रहा था। उस दिन मन प्रसन्नता से भरा हुआ था। वापस शिविर में आकर सभी को बताया। आज डॉ. पुष्कर भी जोशीमठ से वापस आ गये थे।
अनाम चोटी के लिये अलग-अलग दल बने। ग्रेम डिंगल और जौ जौ उसी शाम चल दिये। दूसरे दिन अली, रे, मैगी का एक दल तथा जौन, डॉ. पुष्कर और मेरा तीसरा दल बना। हम लोगों ने चारों ओर ब्रह्मकमल ही ब्रह्मकमल वाले बहुत ही सुन्दर और शानदार जगह पर शिविर लगाया। ऐसा लगता था कि हम लोग स्वर्ग में हैं। ब्रह्मकमल की भीनी-भीनी खुशबू चारों ओर फैली हुई थी। कहीं गलती से पैर पड़ जाते थे तो और भी अधिक खुशबू आने लगती थी। काश, हमारे पास समय होता तो हम इस जगह से इतनी जल्दी लौटकर नहीं जाते। काफी समय वहीं रहते और अपनी आंखों से इस सुन्दर स्थान को ओझल नहीं होने देते।
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अगले दिन रात के 12 बजे चोटी के लिये तैयार हुए, परन्तु सभी ने अपना-अपना रास्ता अपनाया। हमारा दल कुछ अजीब ही था। रास्ते भर मुझे ही रस्सियाँ उठाने को दीं। मैने भी मना नहीं किया और उठाकर ले गयी। जैसे ही रस्सियों से बंधने की बारी आयी मुझे बीच में रखा। कभी आगे वाला खींचता था तो कभी पीछे वाला। इस प्रकार मेरी कमर टूटने को हो रही थी। इससे बहुत परेशानी हो रही थी और मैं उनसे कह-कह कर थक जाती थी।
खैर, किसी तरह चोटी के करीब पहुंचे तो देखा कि रिज बहुत ही पतली है। जरा सी लापरवाही की नहीं कि खड्डे में पहुंच जायेंगे। इतने में डॉ. पुष्कर एक जगह बुरी तरह से लटक गये। उनका शरीर बड़ी मुश्किल से सम्भाल पायी, फिर उसे धैर्य दिलाकर धीरे-धीरे उठने को कहा। मेरे पैर के नीचे की बर्फ टूट रही थी, फिर भी किसी प्रकार उसे बचा पायी।
इस प्रकार लगभग एक घण्टे तक घोडे़ की सवारी करते हुए चोटी की ओर बढ़ रहे थे। यदि रिज में थोड़ा भी लापरवाही करते तो दोनों तरफ कहीं भी गिर सकते थे और सीधे खड्डे में पहुंच जाते। चोटी पर रे व हमारे दल दोनों ने एक साथ फोटो खिंचवायीं। लगभग आधे घण्टे तक बैठकर पूजा अर्चना की, फिर वापसी में उस पतली रिज को काट-काटकर चलने योग्य बनाया और एक-एक कदम गिन-गिनकर रखकर वापस आये। जहाँ तक रस्सियां बंधी थी, वहां तक सभी एक साथ वापस आये। जैसे ही रस्सियां खोलीं, सभी ने दौड़ लगा दी और रस्सियाँ फिर से मुझे ही उठानी पड़ीं। क्योंकि जौन दौड़ गया था और डॉ. पुष्कर उठाना नहीं चाहता था। मुझे पुष्कर पर बहुत गुस्सा आ रहा था, किन्तु विदेशियों के सामने लड़ना नहीं चाहती थी। अत: धीरे-धीरे उन रस्सियों को उठाकर चल दी।
अब थकान के मारे चला नहीं जा रहा था। रात शुरू हो गयी थी। हमारे पास का पानी खत्म हो गया था और बुरी तरह से प्यास लग रही थी। एक जगह अंधेरे में पानी की आवाज आ रही थी, उसी में मुंह लगाकर पीने लगे, अब चाहे कीचड़ ही क्यों न हो। इस तरह प्यास बुझाने के लिये जहाँ-तहाँ पानी की आवाज पर मुंह लगाने लग जाते थे।
अब अंधेरा बहुत बढ़ गया था। रे का दल बहुत पीछे छूट गया था। जौन शिविर में पहुंच गया होगा परन्तु हमें अंधेरे के कारण कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था। हमारे पास टार्च भी नहीं थी। खैर किसी तरह बैठ-बैठकर आगे बढ़े और जौन को चिल्ला-चिल्लाकर बुलाया। फिर जौन अपने साथ टार्च लेकर थोड़ी दूर तक लेने आया। पता चला कि हम एक भयंकर चट्टान के ऊपर बैठे थे। थोड़ी सी लापरवाही होती तो लुड़ककर पता नहीं कहां पहुंचते, किन्तु जौन के टार्च की रोशनी से हमें राहत मिली और किसी प्रकार शिविर तक आने में मदद मिली। जौन ने खाना बनाना शुरू कर रखा था। खाना खाकर हम सो गये।
क्रमश:
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