धाम की छाँव, सुमन के गाँव

महावीर रवाँल्टा

भारतीय प्रशासनिक सेवाओं के लिए चुना जाना गौरव की बात है। ऐसा ही एक गौरवशाली इतिहास उत्तरकाशी की सुमन रावत ने रचा है। वह उत्तरकाशी जिले की भारतीय प्रशासनिक सेवाओं के लिए चुनी जाने वाली पहली महिला है। जब कोई व्यक्ति किसी भी क्षेत्र में महत्वपूर्ण स्थान पाता है तब स्वाभाविक रूप से उसके, उसके परिवार और परिवेश के बारे में जानने की इच्छा जाग्रत होती है। लेखक की इसी ललक को प्रस्तुत वृतान्त में देखा जा सकता है।

भारतीय प्रशासनिक सेवा के लिए चुनी गई उत्तरकाशी जिले की पहली महिला का गौरव पाने वाली सुमन रावत के गाँव यानी माकुड़ी देखने की मेरी बहुत दिनों से इच्छा थी किन्तु जा नहीं सका था। मोरी विकासखण्ड में किसी जमाने के रवाँई परगने की बंगाण पट्टी जो अब पिंगल, मासमौर व कोठीगाड़ में बँटी है, की पिंगल पट्टी का ही गाँव है माकुड़ी।

मेरी इच्छा को पंख लग जाते हैं जब सुमन के पिता आराकोट तिराहे में टैक्सी से उतरकर प्रकाश राणा प्रेम व उत्साह में लबरेज चाय पीने के बाद मुझे अपने गाँव आने के लिए आमंत्रित करते हैं जिसकी वजह उनके घर पवासी में धाम है। बंगाण में अधिसंख्य लोगों के आराध्य चार भाई महासुओं में से एक हुए पवासी। इन्हें बहरा व क्रोधी स्वभाव का बताते हैं। अपनी पर आ जाएँ तो दुश्मन की खैर नहीं। धाम कोई मनौती पूर्ण होने की खुशी में दी जाती है। उस दिन ईष्ट को पालकी सहित या फिर उनकी निशानी ‘डोरिया’ को घर में लाया जाता है। उसकी पूजार्चना होती है तथा गाँव व इच्छित लोग वहीं भोजन करते हैं। विशुद्ध दाल भात का, यही धाम हुआ। इसे ‘देवार’ भी कहा जाता है। 19 अप्रैल 2012 को अपने साथी राजेन्द्र नेगी को साथ लेकर मैं चल पड़ता हूँ। आराकोट से टिकोची सात किमी. वहाँ वे चिंवा मार्ग पर बढ़कर बरनाली से कच्ची सड़क पर बांयी ओर मुड़ते हैं। तीन किमी. चलने पर सामने होता है डगोली (1650 मीटर) गाँव। यहीं के नौटियाल पंडित पवासी के पुजारी हैं। डगोली से आगे बढ़ते हुए हम सर्पिलाकार कच्ची सड़क पर ऊपर की ओर चढ़ते जाते हैं और बाँयी ओर बढ़ते हुए लगभग छह मोड़ पार करने पर सामने होता है माकुड़ी गाँव, बेहद सुन्दर।

गाँव पहुँचने पर पता चलता है कि पवासी की डोली गाँव के मध्य अवस्थित मन्दिर के प्रांगण में विराज चुकी है। लोग उसे कंधों पर उठाए हुए हैं। आशीर्वाद लेने का सिलसिला जारी है। परम्परागत वाद्य भी बज रहे हैं। हम भी उन्हें प्रणाम कर एक ओर बैठ जाते हैं। डोली को कन्धे पर लिए युवकों के पैरों में जूते देखकर मैं पूछ बैठता हूँ- ”ये क्यों?”

”इस समय ये भ्रमण की स्थिति में हैं, इसलिए चलता है। भीतर जाने पर सब कुछ प्रतिबन्धित हो जाएगा।” वहाँ बैठा युवक मेरे प्रश्न का उत्तर देता है किन्तु प्रश्न वहीं अटका हुआ है। वहीं कुछ महिलाएँ अपनी थालियों में कुछ लेकर खा रही हैं और कुछ थालियां लिए अपने घरों की ओर जा रही हैं। उन्हें देखकर मैंने पूछा तब पता चला कि यह गेहूँ के आटे से तैयार किया गया पकवान ‘बाड़ी’ है और पवासी के आगमन से पहले उनके ‘आगनबाड़ी वीरों’ यानी अगवानी करने वाले वीरों के लिए यह विशेष रूप से तैयार कर चढ़ाया जाता है। ये वीर हैं- बसर, कैलाथ, कैलू व नार्रंसग। उन्हें चढ़ाने के बाद लोग इसे प्रसाद के रूप में ग्रहण करते हैं।

यहीं गणेश चौहान से मुलाकात के बाद वे हमें एक घर में चाय पिलाने ले जाते हैं जहाँ बातों ही बातों में पता चलता है कि भुटाणू गाँव के गणेश चौहान डगोली में अध्यापक हैं और मोरी में हुए एक कार्यक्रम में वे मुझे देख चुके हैं। मनोज रावत के घर पर सोनू नौटियाल, नागेन्द्र, शमशेर रावत से परिचय के बाद माकुड़ी गाँव के बारे में जानकारी मिलती है कि गाँव में लगभग 63 परिवार हैं जिनमें रावत, चौहान, राजपूतों के अलावा 6-7 हरिजन परिवार भी शामिल हैं। अध्यापकी, सेना एवं पुलिस विभाग में यहाँ के काफी लोग अपनी सेवाएँ दे रहे हैं। सुमन रावत के बारे में पूछने पर वे बताते हैं कि गाँव में तो हमने उन्हें बहुत कम देखा लेकिन उनकी सफलता ने गाँव का जो मान बढ़ाया, वह हम सबके लिए गर्व की बात है।

पवासी की डोली मदन सिंह रावत जी के घर के एक कमरे में विराजमान हो गई है। वाद्य अब शान्त हैं। लोगों की कुछ चहल-पहल है। हम उनके घर की ओर बढ़ते हैं तभी वे देखते ही हमारी अगवानी के लिए आगे बढ़ते हैं और सदैव की तरह गर्मजोशी से मिलते हैं। उनकी भांजी चन्द्रकला हमारे जूते-मोजे उतरवाकर ‘कुठार’ के हवाले कर देती है। ताला-चाबी के अलावा उसकी ‘आगल’ अब लोहे की छड़नुमा मुड़ी ‘ताले’ से ही खुलेगी। क्षेत्र में यह सुरक्षा की प्राचीन तकनीक है। रावत जी के साथ उनकी पत्नी भी हमारे स्वागत में खड़ी हैं। हमारे हाथ पैरों की शुद्धि के बाद वे हमें घर में प्रवेश की इजाजत देते हैं। चमड़े की वस्तुएँ व जूते-चप्पल उस घर को नहीं छूते जहाँ ‘धाम’ होती है। हम पवासी जी के बराबर वाले कमरे में ही बैठ जाते हैं जहाँ चायपान के बाद रावत जी से बातचीत की शुरूआत हो जाती है।

बातचीत में वे बताते हैं कि हाईस्कूल उत्तीर्ण करने के बाद खराब र्आिथक स्थिति के कारण घरवालों की उन्हें आगे पढ़ाने की मंशा नहीं थी लेकिन आगे बढ़ने की ललक में वे एक सुबह बिना किसी को बताए घर छोड़कर पुरोला पहुँचे और वहाँ इण्टर में दाखिला लेने के बाद घरवालों को इसकी सूचना दी। सन् 1976 में इनका चयन सहायक आपरेटर (वायरलेस) के लिए हुआ जिसकी ट्र्रेंनग के लिए लखनऊ जाना पड़ा। 1 मार्च 1983 को कलीच गाँव के दलीप सिंह रावत की दूसरी पुत्री सुन्दरी के साथ ये परिणय सूत्र में बँधे। बड़कोट थाने में तैनाती के दौरान 10 मई सन् 1984 को सुमन का जन्म हुआ। बाद में चकराता स्थानान्तरण होने पर 1985-1993 तक वहीं रहे। यहीं के एस.एफ.एफ. आर्मी स्कूल में सुमन की आरंभिक शिक्षा हुई और वह तभी से मेधावी बच्चों में रही।

ऋषिकेश आने पर ओंकारानन्द सरस्वती निलयम, कैलाशगेट से सुमन ने इण्टरमीडिएट की परीक्षा 2002 में उत्तीर्ण की। वह कॉलेज की कैप्टन रहने के साथ ही बढ़-चढ़ कर वाद-विवाद जैसी गतिविधियों में हिस्सा लेती रही। सिटी मांटेसरी स्कूल लखनऊ  में आयोजित ‘क्वाटम मीट’ में भी उसने हिस्सेदारी की। दिल्ली के दौलतराम कॉलेज एवं हिन्दू कॉलेज से दर्शनशास्त्र में स्नातकोत्तर परीक्षा सर्वोच्च अंकों के साथ उत्तीर्ण की। सुमन की प्रतिभा को देखकर दिल्ली विश्वविद्यालय ने उन्हें अध्यापन हेतु कैलीफोर्निया भेजा। वहाँ पाँच महीने अध्यापन के बाद सुमन भारत लौटी, एम.फिल में दाखिला लिया और साथ ही साथ सिविल सेवा परीक्षा की तैयारी भी करने लगी। वर्ष 2009 में एम.फिल. पूर्ण हुआ और इसी वर्ष भारतीय प्रशासनिक सेवा (आई.ए.एस.) चयनित होकर सुमन ने देशभर में 44वाँ स्थान प्राप्त किया और न केवल बंगाण, अपितु रवांई व सम्पूर्ण जनपद को गौरवान्वित किया। वर्तमान में सुमन रावत महाराष्ट्र के नानदेड़ जिले में एसिस्टेंट कलक्टर के रूप में अपनी सेवाएँ दे रही हैं।

चार बहिनों व दो भाइयों में सबसे बड़ी सुमन रावत की दूसरी बहिन दीप्ति रावत अमेरिकन फाइनेन्स कम्पनी ‘मेटलाइफ’ में कार्यरत है। उससे छोटी चेतना रावत ने सी.डी.एस. क्वालीफाई करने के बाद टी.ए. चेन्नई से अपनी आर्मी ट्र्रेंनग पूरी की और वर्तमान में आर्मी सप्लाई कोर (ए.एस.सी.) में लैफ्टीनेंट पद पर जम्मू कश्मीर में तैनात है। सबसे छोटी र्अिणमा कामर्स विष्ज्ञय से बारहवीं में ऋषिकेश के ही ओकारानन्द सरस्वती निलयम में पढ़ रही हैं। छोटा भाई माघवेंद्र सिंह दिल्ली विश्वविद्यालय से इतिहास में ग्रेजुएशन लेने के बाद सिविल सेवा में आने के लिए तैयारी में जुटा है तो उससे छोटा परीक्षित सिंह करोड़ीमल कालेज दिल्ली से अंग्रेजी में ग्रेजुएशन कर रहा है।

इतने बड़े परिवार की जिम्मेदारी आपने किस तरह निभाई? पूछने पर मदन सिंह रावत जी बताते हैं- सब ईश्वर की कृपा है। निर्व्यवसनी रहा। बुराइयों से बचने की कोशिश करता रहा। बड़ी बेटी सुमन की खास बात यही रही कि उसने घर की आर्थिक स्थिति को समझा। जितने से काम चल पड़ा, उससे अधिक एक पैसे की भी माँग उसने नहीं की। सुमन के बारे में पूछने पर माँ सुन्दरी देवी बताती हैं कि सुमन बचपन से ही बेहद जिद्दी थी लेकिन उसकी जिद सिर्फ अच्छी चीजों के लिए ही होती थी और उन्हें वह पाकर छोड़ती थी। आगे बच्चों के लिए उनका कहना है कि जीवन में जो हम न पा सके, वे पाएँ। बातचीत के बीच उनके सगे सम्बन्धियों व गाँव के लोगों की आवाजाही भी जारी थी। वहाँ मौजूद रावत जी के भांजे बरनाली गाँव के अव्वर्ल ंसह सुमन की सफलता को क्षेत्र का गौरव बताते हैं तो उनके बहनोई गोविन्द सिंह चौहान कहते हैं कि मैं तो बचपन में ही इसके हावभाव देखकर कहता था कि यह लड़की जरूर एक दिन किरण बेदी जैसी बनेगी। सुमन ने वैसा ही कर दिखाया। हमारे लिए यह खुशी की बात है। कलीच गाँव से आए सुमन के मामा दयाल सिंह रावत डेढ़-दो साल की सुमन से जुड़ी स्मृतियों को बांटते हुए बताते हैं कि रावत जी तभी कहते थे कि जरूर यह हमारा नाम रोशन करेगी। नन्हीं सुमन में चीजों को परखने की अद्भुत क्षमता थी। रावत जी की भांजी चन्द्रकला रावत सुमन से जुड़ी स्मृतियों पर चहकती हुई बताती हैं- बेशक दीदी बचपन में हमसे लड़ती-झगड़ती थी पर अपने लक्ष्य के प्रति बेहद गम्भीर थी। दीदी से लोगों को प्रेरणा लेनी चाहिए।

रात्रि को पवासी महाराज की पूजार्चना हुई। हमने भी दर्शन किए फिर धाम का भोजन-हलवा, पूड़ी, सब्जी, दाल, भात ग्रहण किया। पवासी अपने कमरे में विश्राम कर रहे थे तो रावत जी से विदा लेकर हमने भी मनोज रावत के घर सोने के लिए शरण ली। रात्रि को गणेश चौहान के साथ बहुत देर तक बातें चलती रही।

सुबह तरोताजा होकर रावत के घर पहुँचकर पवासी के दर्शन किए फिर थोड़ी बातचीत। बच्चों की सफलता से र्हिषत रावत जी अपने जीवन का चिट्ठा स्वयं ही खोलकर रख देते हैं। पिता इंद्र सिंह रावत सेठ गूजरमल मोदी के साथ रहते थे, जिनका अधिकांशत: कराची, मुम्बई, मद्रास, कलकत्ता आना-जाना होता था। उनके साथ रहते हुए उन्हें अच्छा खाना व महंगी शराब पीने को मिल जाती थी। घर लौटे तो शराब पीने का शौक भी साथ ही चला आया। उन्हें जब गाँव में शराब नहीं मिली तो घर पर ही बनाकर पीने लगे। एक दिन इकलौते बेटे मदन सिंह को पास बिठाकर बोले कि वह जीवन में कभी शराब पीना न सीखे। पिता की इस सीख पर रावत जी आज भी अडिग हैं। आध्यात्म व अपनी संस्कृति के प्रति उनमें गहरा रुझान है। आह्वान आराकोट से जुड़े नरेंद्र रावत के शब्दों में- मदन सिंह रावत बच्चों के भविष्य को सँवारने के लिए कैसी भी मुसीबतें झेलते रहे पर उन्होंने गाँव से नाता नहीं तोड़ा।

माँ की बच्चों के भविष्य को सँवारने में महत्वपूर्ण भूमिका होती है, इस बात को सुमन रावत के साथ ही उनके पिता भी स्वीकारते हुए अपनी माँ हंसा देवी ‘माखरी’ को याद करते हुए कहते हैं कि इकलौता बेटा होने के कारण मुझ पर उनका लाड़-प्यार ज्यादा ही था। पहली बार माँ मुझे स्कूल छोड़ने गई थी तब उनके साथ के लिए मैं बहुत रोया था। गुरुजी मुझे घसीटते हुए स्कूल के भीतर ले गए थे लेकिन माँ मेरे रोने की परवाह किए बगैर वहाँ से चली आई थी। यही उनका त्याग था। जीवन में उनकी दी गई दो सीखें मुझे अब भी याद हैं, पहली कि भले (इंसान) का भला (संतान) होना चाहिए या निबट ही जाना अच्छा। दूसरे माँ मरने दे सकती है लेकिन विद्या किसी को मरने नहीं देती। वर्तमान में श्री मदन सिंह रावत जिला पुलिस नियंत्रण कक्ष हरिद्वार (उत्तराखण्ड) में रेडियो स्टेशन ऑफीसर (आर.एस.ओ.) के पद पर सेवारत हैं।

रावत दंपति, पुत्री र्अिणमा व उपस्थित लोगों से विदा लेकर हम आगे बढ़े। प्रदीप रावत के घर पर चाय पी। रात्रि में ठहरे मनोज रावत के घर पर पोश्त भरी मीठी रोटी खायी। वहीं पता चला कि उनकी पत्नी मनीषा मेरे पुराने मित्र मक्खन सिंह नेगी नेगी की बेटी हैं। माकुड़ी से चलते हुए नवनिर्मित उबड़ खाबड़ सड़क पर हम आगे बढ़ रहे थे और पहाड़ियों की ओट में दुबका सूरज बाहर निकलने की जुगत लगा रहा था।
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