दिशाहीन बालिका शिक्षा: एक चुनौती

शशि जोशी

अपनी बात अपनी ही एक कविता से शुरू करना चाहूंगी।
अपनी जिन्दगी को तेज दराँती के साथ काटती हुई
इधर-उधर बिखरे पलों को सूखी लकड़ियों के साथ बाँधती हुई- पहाड़ी औरतें हैं ये….।
जाग जाती हैं ये मुँह अंधेरे
सूरज के जागने से पहले
साफ करती हैं गोठ/लीपती हैं आँगन
जलाती हैं चूल्हा और खुद जलती हैं लकड़ियों के साथ
खौलती हैं केतली में चाय की तरह…..

मुझे अमूमन यही स्थिति, यही तस्वीर पहाड़ों पर रहते हुए पहाड़ी औरत की दिखाई पड़ती है। आखिर ऐसा क्या होता है कि काम-काज, घर-बच्चे और रसोई के बीच घिसते-पिसते इनका अपना अस्तित्व शून्य हो जाता है? एक औरत में तब्दील होने से पहले ये महिलाएँ पहले बच्ची और फिर किशोरी की अवस्था से गुजर चुकी होती हैं।
हालांकि काफी समय से पहाड़ों पर शिक्षा का प्रचार-प्रसार हो चुका है लेकिन फिर भी क्यों हमारी शिक्षा व्यवस्था बेटियों, खासतौर से पहाड़ी बच्चियों, किशोरियों की जड़ें मजबूत नहीं कर पा रही हैं? क्यों इन्हें आत्मनिर्भरता की तरफ नहीं बढ़ा पा रही हैं? क्यों आत्मविश्वासी नहीं बना पा रही हैं? कई विचारणीय प्रश्न हैं। अपनी बात आगे बढ़ाने से पूर्व मैं दो घटनाओं का जिक्र करना चाहूंगी।

1. एक किशोरी ने इण्टर प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण किया था। मैंने उससे पूछा, आगे क्या सोचा है? उसने जवाब दिया, ‘मैडम जीवन तो आप लोगों का है। हमारी किस्मत में तो बस गोबर उठाना ही लिखा है। मैं आगे बी.ए. करना तो चाहती हूँ मगर फीस कौन देगा? ‘हैसियत नहीं।’ सो मैंने उसके कहने पर उसका बी.ए. व्यक्तिगत का फार्म भरवाया और किताबें भी दिलवाईं लेकिन उसने बी.ए. पूरा नहीं किया। परीक्षा नहीं दी। शादी करके दिल्ली चली गई। मिलने पर मैंने पूछा पेपर क्यों नहीं दिए? तो जवाब मिला, ‘जी पति नहीं चाहते थे।’ मेरे पास आगे कहने को कुछ नहीं था।
2. एक बालिका हाईस्कूल में अनुत्तीर्ण हो गई। उसकी माँ टी.सी. कटवाने के लिए मेरे पास आई। मैंने पूछा, पढ़ाई क्यों छुड़वा रहीं हैं? तो उन्होंने कहा, खर्चा नहीं उठा सकते। बच्ची ठीक-ठाक थी सो मैंने उसका दोबारा एडमिशन करवाया। सालभर फीस भरी और वह बालिका अच्छे नम्बरों के साथ पास भी हो गई और उसने इण्टर भी किया। मैं चाहती थी कि वह अपने पैरों पर खड़ी हो जाए। अपनी अत्यन्त कम उम्र में विधवा हो चुकी माँ का सहारा बने। प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करे पर उसे अवसर न मिला। इण्टर करते ही उसकी शादी करवा दी गई। उसकी माँ से मुलाकात होने पर मैंने उसे अवसर न दिए जाने और इतनी जल्दी शादी कर दिए जाने का कारण जानना चाहा तो पता चला कि किशोरी की माँ संयुक्त परिवार में थी। वे भी चाहती थीं कि बेटी कुछ करे मगर उनका साथ देने को घर में कोई और राजी न था। पति थे नहीं, अत: वे अकेली पड़ गईं और परिवार और सम्बन्धियों के निर्णय के आगे झुक गईं।
Directionless girl education: A challenge


प्रश्न ये है कि क्या है पहाड़ की बालिकाओं का भविष्य? आँखों में सुनहरे ख्वाब और बस्ते में कॉपी-किताब लिए ये बच्चियाँ स्कूल जाती तो हैं लेकिन बहुत हुआ तो इण्टर और बहुत अधिक हुआ तो स्नातक स्तर तक पहुँचती हैं और इस किताबी ज्ञान के साथ ही इनके जीवन का एक अध्याय समाप्त होकर दूसरा आरम्भ हो जाता है। क्या इतना ही भविष्य है इन पर्वतीय बालिकाओं का? यह प्रश्न न जाने कितनी बार मुझे मथ चुका है हालांकि विद्यालयों में बालिका नामांकन दर लगभग 99 प्रतिशत है। फिर भी यह पढ़ाई बेहद उथली है। दिशाविहीन, लक्ष्यविहीन मात्र अक्षर ज्ञान प्राप्त करतीं इन बालिकाओं का भविष्य अपनी माँ की तरह पूर्व निर्धारित होता है। हाईस्कूल या फिर इण्टर पास करते ही शादी हो जाना फिर ससुराल में वही माँ की तरह गाय-भैंस पालना, घास काटना, घर सम्भालना और जरूरत पड़ने पर दिहाड़ी करना। बस इतनी ही नियति निर्धारित है इनकी। मैंने मैदानी क्षेत्रों में विभिन्न प्राइवेट विद्यालयों में लगभग आठ वर्ष तक शिक्षण कार्य किया है। इधर वर्ष 2007 से मैं राजकीय सेवा में दुर्गम पहाड़ी क्षेत्र में कार्यरत हूँ। पहाड़ी और मैदानी क्षेत्रों की बालिकाओं में, उनकी सोच में, उनकी जीवन शैली में मैंने बहुत बड़ा अन्तर पाया है। मैंदानी क्षेत्रों की लगभग अस्सी से नब्बे प्रतिशत बालिकाएँ आत्मनिर्भरता की ओर कदम बढ़ा चुकी हैं और तकनीकी/ व्यावसायिक प्रशिक्षण प्राप्त कर रही हैं। हाईस्कूल से ही यहाँ की बालिकाओं में भविष्य के प्रति जागरूकता दिखाई पड़ती है। प्रतिस्पर्धा की भावना भी दिखाई पड़ती है लेकिन पर्वतीय क्षेत्रों में…..? यहाँ स्थिति ठीक विपरीत है। अभी तक मात्र चार प्रतिशत बालिकाएँ ही आत्मनिर्भरता की ओर बढ़ी हैं। पढ़ क्यों रहे हो? क्या करना है आगे? जैसे प्रश्नों के उत्तर दुर्गम क्षेत्र की किशोरियों के पास नहीं हैं। अभावों के बीच येन-केन प्रकारेण कक्षाएँ उत्तीर्ण करती हुई कुछ बालिकाओं की दशा तो बड़ी दयनीय है। हमारे संस्थान की एक अध्यापिका ने मुझे बताया कि कक्षा 6 में पढ़ने वाली एक बच्ची होमवर्क पूरा करके नहीं ला रही थी, जब कारण पूछा तो जवाब बड़ा मार्मिक था। उस बच्ची ने अपनी दिनचर्या इस प्रकार बताई- ”स्कूल से छुट्टी होने के बाद लगभग बीस-पच्चीस मिनट में घर पहुँचती हूँ। खाना खाकर दस मिनट लेट जाती हूँ फिर बकरियाँ चराने चली जाती हूँ। शाम को लगभग तीन बजे लौटकर आती हूँ, फिर घास काटती हूँ, रात को घर का खाना बनाती हूँ फिर सो जाती हूँ।” सुबह उठकर स्कूल आ जाती हूँ। क्या विडंबना है। बस समय के साथ बढ़ रही हैं बेटियाँ। बेटों के मस्तिष्क में शुरू से यह बात बैठा दी जाती है कि पढ़ाई करके कुछ रोजगार, नौकरी करनी है और इसके लिए उन्हें पर्याप्त अवसर भी दिये जाते हैं। मगर बेटियों को आठ या दस वर्ष की उम्र से ही घर के कामकाज में निपुण बनाया जा रहा है। भविष्य पूर्व निर्धारित है। हाईस्कूल या इंटर पास हो या फेल। स्थिति के अनुसार कोई दो रोटी कमाने वाला लड़का मिल गया तो शादी कर दी जायेगी। इन किशोरियों और बच्चियों को भी अपने पूर्व निर्धारित भविष्य का पता है इसलिए वे भी जैसे-तैसे कक्षाएँ पास करती जाती हैं। जीवन की कोई दिशा नहीं। भविष्य के प्रति कोई ललक भी नहीं। कुछ बनने और करने की लगन भी नहीं। अपवाद स्वरूप कुछ लगनशील बच्चियाँ मिल भी जाती हैं, यदि उन्हें कोई प्रेरित करने वाला, निर्देशित करने वाला, सहारा देने वाला मिल गया तो ठीक अन्यथा उनकी प्रतिभा भी काल कवलित हो जाती है। हमारी शिक्षण व्यवस्था अगर पहाड़ की इन बेटियों को आत्मनिर्भर न भी बना सके तो कम से कम आत्मविश्वासी, अपने अधिकारों के प्रति जागृत तो करा ही सकती है। मगर बच्चियों की उदासीनता उनके अभिभावकों का पक्षपातपूर्ण व्यवहार, इन सबके लिए आखिर दोषी कौन है?

हर रोज वह मासूम लड़की
अपनी चंचल आँखों से चुपचाप
देखती है कई ख्वाब और जिस तरह घर के कोने में
किसी मेज पर गुलदान में
सजा दिये जाते हैं खिलते हुए फूल
वह भी सजा देती है अपने तमाम ख्वाबों को
दिल के किसी कोने में।
वह मासूम लड़की
नहीं होने देती है खबर किसी को भी अपने ख्वाबों की
क्योंकि वह जानती है
उसके ख्वाबों की खबर
लग गई दुनिया को अगर
तो उसके तमाम ख्वाब फूलों की तरह
साख से तोड़ दिये जायेंगे
या फिर कली की तरह मसल दिये जायेंगे
दीवारों में चिनवा दिये जायेंगे
या धूल में मिला दिये जायेंगे
वह लड़की जानती है अपने लड़की होने का मतलब
जानती है अपनी सीमाएँ
जानती है पवित्रता की परिभाषाएँ
जानती है जंजीर का मतलब
जानती है कटे पंखों की विवशताएँ….
इसीलिए वह मासूम लड़की
ख्वाबों को आँखों में बसाये
करती है बातें खुद से कभी-कभी
बहुत मासूम है वह लड़की मगर
बड़ी समझदार भी…..
Directionless girl education: A challenge
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