घरेलू हिंसा
अपर्णा व्यास
”सच है यह
कि सातों दवाजों के ताले तोड़
सातों समुद्रों का अतिक्रमण
कर नापे हैं स्त्री ने सातों आकाश
लेकिन उसके प्रति
और भी घरेलू हिंसा होता जा रहा है
समाज”
उत्तरा, अक्टूबर-दिसम्बर 2011
घरेलू हिंसा वह शारीरिक, यौनिक या मनोवैज्ञानिक दुरुपयोग है जो किसी के पति या पत्नी भागीदार या गृहस्थी के अधीन अन्य पारिवारिक सदस्यों के प्रति निर्दिष्ट है। आज शारीरिक, मानसिक व यौनिक रूप में घरेलू हिंसा एक व्यापक व गम्भीर समस्या के रूप में हम सभी के समक्ष उपस्थित है। अपने हिंसक रूप में यह महिलाओं की स्वतंत्रता का मजाक उड़ाती, दिल दहला देने वाली घटनाओं के रूप में जनमानस को उद्वेलित कर रही है।
विभिन्न आर्थिक व सामाजिक कारणों, बच्चों के प्रति अपने दायित्वों व सामाजिक निंदा का भय इत्यादि कारणों के चलते नारी हर प्रकार की घरेलू हिंसा को सहिष्णुता की प्रतिमूर्ति बन शान्त भाव से सहन करती है और इसे ही अपनी नियति मान बैठती है।
पितृसत्तात्मक समाज, महिलाओं की पुरुषों पर आर्थिक निर्भरता, अशिक्षा, महिलाओं के प्रति विद्वेष भावना, पारिवारिक तनाव, व्यसनों का दुष्प्रभाव, अपराध के प्रति उदासीनता, अहमवादी दृष्टिकोण इत्यादि घरेलू हिंसा के प्रमुख कारकों के रूप में आज उपस्थित है।

इस घरेलू हिंसा के निवारण हेतु की गयी पहल का ही परिणाम है- ‘घरेलू हिंसा से महिला संरक्षण अधिनियम 2005। अन्य फौजदारी कानूनों से अलग इस अधिनियम के अन्तर्गत पति-पत्नी के बीच विवाद होने पर फौजदारी मुकदमा दर्ज नहीं होता। अत: उनके बीच तल्खी नहीं पनपती व मेल मिलाप की संभावनाएँ बनी रहती हैं। इसके अन्तर्गत पीड़िता की ओर से मजिस्ट्रेट को आवेदन करना होता है। यदि मजिस्ट्रेट इस निष्कर्ष पर पहुँचता है कि घरेलू हिंसा हुई है या होने की संभावना है तो वह उसकी सुरक्षा, आर्थिक राहत, बच्चों की देख-रेख व मुआवजे का आदेश दे सकता है। स्वतंत्र भारत का यह पहला कानून है जिसमें लिव इन रिलेशन (सह जीवन) संबंधों को भी मान्यता दी गई है।’
अधिनियम की धारा 19 में मजिस्ट्रेट को यह अधिकार है कि वह महिला के पुरुष रिश्तेदारों को मकान से बाहर रहने या उसके अंतरण करने से रोकने का आदेश दे सकता है। मजिस्ट्रेट पुरुष रिश्तेदारों को महिला के लिए वैकल्पिक आवास की व्यवस्था करने व भुगतान करने के लिए भी निर्देश दे सकता है। इस कानून में मामलों के समयबद्ध निस्तारण पर भी बल दिया गया है। मजिस्ट्रेट से विवादों का साठ दिन में निस्तारण करने की अपेक्षा की गयी है।
किन्तु यहाँ यह प्रश्न इस बात का है कि क्या यह अधिनियम व कानून महिलाओं के प्रति हिंसा को रोकने हेतु स्वयं में पर्याप्त है। इस पक्ष पर विचार किया जाय तो ज्ञात होता है कि दहेज प्रतिरोध अधिनियम 498 ए के दुरुपयोग को रोकने हेतु लाए गए कानून में कुछ कमियाँ भी हैं। सुप्रीम कोट ने धारा 2, 12, 17, 19 की विस्तार से व्याख्या करते हुए स्वयं यह चिन्ता व्यक्त की है कि इस अहम् कानून को बहुत लचर तरीके से तैयार किया गया है। अधिकारों का दायरा इतना बढ़ गया है कि उनके दुरुपयोग की संभावना बढ़ गयी है।
कानून को जोड़-तोड़ कर उसका गलत उपयोग परिवारों का विघटन करने में पूरा-पूरा योगदान देता है। न जाने कितने निर्दोष परिवार और कितने निर्दोष व्यक्ति कानूनी दाँव पेंचों में फँसकर उनकी बलि चढ़ जाते हैं। बालक जो कि परिवार का आधार होते हैं, कर्णधार होते हैं, इस घरेलू हिंसा का सर्वाधिक दुष्प्रभाव उन्हीं पर पड़ता है और यह दुष्प्रभाव तब भी पड़ता है जब वे अदालत परिसर में अपने माता-पिता को, अपने पारिवारिक सदस्यों को एक-दूसरे के विरुद्ध खड़ा पाते हैं।
यह एक स्वीकार्य तथ्य है कि अधिकांश महिलाओं के साथ घरेलू हिंसा होती है किन्तु कितनी ऐसी महिलाएँ हैं जो उत्पीड़न के विरुद्ध खड़े होने का साहस जुटा पाती हैं? किसी को समाज की जकड़न तो किसी को कथित इज्जत की चिंताएं खाए जाती है। जब शिक्षित महिलाएँ ही जागरूक नहीं तो कानून क्या कर सकता है? जहाँ तक अशिक्षित महिलाओं का सम्बन्ध है तो उनमें भी अधिकांश अपने भाग्य को अपने ‘पति परमेश्वर’ के साथ जोड़ देती हैं। अपने अधिकारों को नगण्य मानकर आश्रित जीवन जीती हैं। उनसे कानून के महत्व को समझने की अपेक्षा कैसे की जा सकती है? यही नहीं अगर किसी ने आगे आकर विरोध करने का प्रयत्न किया तो उसकी आवाज दबा दी जाती है।
वस्तुत: जब कोई बुराई समाज में घर कर लेती है तब उसे दूर करने के दो उपाय होते हैं, कानून का बनाना और समाज सुधार करना। किन्तु कानून निर्माण का एक सामान्य प्रक्रिया की भाँति प्रयोग किया जा रहा है। उस कानून का क्रियान्वयन किस प्रकार हो रहा है, यह देखने का समय किसके पास है? ऐसी स्थिति में हर नियम कानून भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाता है। घटनाएँ दर्ज न करने की पुलिस की आदत के चलते महिलाओं को क्या पुरुषों तक को पुलिस स्टेशन जाने में असुरक्षा का बोध होता है। अदालत परिसर के बाहर निर्णयों का क्रय-विक्रय होता है और अपराधी सरलता से बच निकलते हैं। एक रिपोर्ट के अनुसार महिलाओं पर अत्याचार के मामलों में केवल दो प्रतिशत लोगों को ही सजा हो पाती है।
वास्तविकता तो यह है कि कोई भी नियम कानून स्वयं में पर्याप्त नहीं होता है। आवश्यकता उचित क्रियान्वयन व सामाजिक सुधारों की होती है।
इसका यह अर्थ निकालना कि सभी नियम कानून व्यर्थ हैं, कदापि उचित नहीं है। वरन उनको प्रभावी बनाने में योगदान देना अपेक्षित है क्योंकि जब किसी सामाजिक बुराई की जड़ें गहराई तक फैली हो तो उसको समूल उखाड़ने में केवल अधिनियम का निर्माण व्यावहारिक कदम नहीं कहा जाएगा। वृक्ष की जड़ों में ही विष हो तो शाखाओं को काटने से कोई लाभ नहीं होगा।
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तात्पर्य यह है कि सुधार मूल स्तर पर होने चाहिए। परिवार में पुत्र व पुत्री में भेदभाव की प्रवृत्ति बन्द होनी चाहिए। प्रारम्भ से ही बालक व बालिकाओं को दूसरों के अधिकारों का सम्मान व स्वयं के कर्तव्यों का भान विकसित किया जाना चाहिए। महिला शिक्षा विशेषकर व्यावसायिक शिक्षा की व्यवस्था अपेक्षित है। योजना आयोग की पूर्व अध्यक्षा मीरा सेठ का यह कथन सटीक है-
”जब तक देश की आधी आबादी अशिक्षित रहेगी, तब तक महिलाओं के अधिकार मात्र शोपीस बने रहेंगे और वे अधिकारों का प्रयोग नहीं कर सकेंगी।” आवश्यकता है कि महिलाएँ आर्थिक रूप से स्वतंत्र हों, शिक्षित हों, आत्मनिर्भर हों। महिलाओं के प्रति दृष्टिकोण में परिवर्तन आवश्यक है। आवश्यकता है कि उन्हें वस्तु या उत्पाद नहीं, मानव के रूप में देखा जाए। महिला संगठनों का गठन व उनकी सक्रियता भी इस दिशा में अपेक्षित है। सरकार को भी कानून के व्यापक प्रचार-प्रसार की मुहिम चलानी होगी ताकि अगर कोई पीड़ित महिला अपनी शिकायत लेकर पहुँचे तो उस पर त्वरित कार्यवाही हो।
किन्तु सर्वप्रथम दायित्व स्वयं महिलाओं के कंधों पर है। महिलाएँ आज प्रगतिशील है किन्तु फिर भी आवश्यकता है माता, बहन, पुत्री, पत्नी के रूप में अपने कर्तव्य के अतिरिक्त एक और दायित्व उठाने की। नारी जाति के प्रति अपने कर्तव्य के भाव को, अपने अस्तित्व के प्रति अपने कर्तव्य के ज्ञान की। तभी बंद दरवाजों के पीछे की हिंसा समाप्त होने की अपेक्षा की जा सकती है। नारी के हित की अपेक्षा की जा सकती है। समाज व देश के कल्याण की अपेक्षा की जा सकती और सर्वोत्तम रूप में वसुधैव कुटुम्बकम की उक्ति चरितार्थ की जा सकती है।
रेखा चमोली जी की पंक्तियों का यह संदेश कितना स्पष्ट प्रतीत होता है-
”दुनियाभर की स्त्रियों
तुम जरूर करना प्रेम
पर ऐसा नहीं कि
जिससे प्रेम करना उसी में
ढूढने लगना
आकाश, मिट्टी, हवा, पानी, ताप
….
अपने मनुष्य होने की संभावनाओं को
बचाए रखना
बचाए रखना खुद को
दुनिया के सौन्दर्य व शक्ति में
वृद्धि के लिए
दुनिया के अस्तित्व को
बचाए रखने के लिए”
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