कहानी : मैनीक्वीन 

चन्द्रकला

कल मेरी बेटी का जन्म दिन है। सुबह  जल्दी काम निपटाकर बेटी को लेकर बाजार चली गई। बहुत सामान खरीदना है। हम दोनों शहर की एक बड़ी दुकान के भीतर जाने लगे। बेटी तो सीधे अन्दर चली गई लेकिन मेरे कदम ठहर गए। मैंने देखा कि दुकान का लड़का एक नग्न डमी (मैनीक्वीन) को बड़े करीने से पुराने कपड़े उतार कर नए परिधान पहनाने की तैयारी कर रहा है। उस महिला डमी के उघड़े वक्षों की ओर मेरा ध्यान खिंच गया। मैं सोचने लगी कि रोज इस डमी के कपड़े उतारे व पहनाए जाते हैं। इसको भीतर से कितनी यंत्रणा होती होगी, कितनी अच्छी-बुरी निगाहों का रोज ही सामना करना पड़ता होगा इस जैसी डमियों को, यूँ ही बीत जाती है इनकी पूरी जिन्दगी।

कितने तरीके निकाल लेता है बाजार अपना माल बेचने के लिए। विभिन्न तरह के परिधानों में सजी, शीशे के भीतर दुकानों के बाहर खड़ी, दीवारों पर लटकी, स्त्री व पुरुष दोनों से बराबरी करती, कहीं ढकी तो कहीं आधा शरीर उघाड़ती, विभिन्न मुद्राओं, रंग-रूपों में बाजार में मौजूद  डमी। जीवित इन्सान होने का एहसास दिलाती, ग्राहकों को आकर्षित करती डमी। देखो हमें, हमारे अन्दाज को, हमारे कपड़ों कों, गहनों व तमाम उन चीजों को जो ढाल सके तुमको फैशन व आधुनिकता की दुनिया में, नहीं खरीदोगे तो पिछड़ जाओगे बाजार की दौड़ में। मैं भी जब कभी बाजार से निकलती हूँ तो इनको निहारे बिना नहीं रह पाती। बाजार में इन दिनों इनकी संख्या में तेजी से वृद्घि हुई है। बहुत ही खूबसूरती से गढ़ा व सजाया जाता है इनको। प्रत्येक शहर, कस्बे, छोटी-बड़ी दुकान, बडे शोरूम, शापिंग मॉल कहीं भी सामना हो जाता है इनके साथ मेरा। कभी तो उड़ती-सी नजर डालकर निकल जाती हूँ लेकिन अक्सर ठहरकर निरीक्षण सा करने लगती हूँ इनका और आहत होती हूँ मन ही मन जब बेहूदा तरीके से इनकी नुमाइश की जाती है। लड़के की मेहनत से डमी का पूरा जिस्म साड़ी से लपेटा जा चुका था। वह निर्जीव डमी अब एक खूबसूरत स्त्री जान पड़ती थी।

मैं अपनी सोच में खोई आधुनिक परिधानों में अपनी पसन्द के परिधान ढूंढती बेटी की ओर बढ़ने लगी। तभी मुझे पीछे से आवाज देती हुई वह खूबसूरत डमी बोल पड़ी, ”ऐ स्त्री सुन, तुम हमें देखकर दु:खी होती हो ना कि हम बाजार में खड़ी नुमाइश बनी रहती हैं। लेकिन तुम्हें हमारी नहीं अपनी स्थिति को देखकर दुखी होना चाहिए। क्योंकि हमारी स्थिति तुम जीवित स्त्रियों से लाख गुना बेहतर है। हमें कलाकार ग्राहकों को आकर्षित करने के लिए ही सही, खूबसूरती व सलीके से बाजार में ला खड़ा करता है। हाँ, तुम्हारे समाज की तरह हम भी गरीब-अमीर होती हैं। कुछ को बड़े शो रूमों में शीशे के भीतर ही कैद रखा जाता है। कुछ छोटी दुकान में लटकी सड़क पर खडी होती हैं। लेकिन वह खुली हवा में सांस लेती आजादी का मजा भी ले पाती हैं। हम डमी यदि कुछ नहीं पहनना चाहें तो हमारे साथ जबरदस्ती नहीं की जा सकती, कपड़ा फट जायेगा, वस्तु टूट जायेगी, लेकिन निर्जीव होते हुए भी हमारी इच्छा के विरुद्घ हमारे साथ कुछ भी नहीं किया जा सकता। हम टूट जाती हैं, झुकती नहीं, तनी रहती हैं, हर हाल में अपने वजूद के साथ। लेकिन तुम जीवित स्त्रियों का न तो अपने शरीर पर और न ही अपने जीवन पर कोई अधिकार है। तुम्हारी पूरी उम्र यातना अपमान व उत्पीड़न सहने में ही चली जाती है। एक जगह प्रतिरोध कर भी लो तो दूसरी जगह समझौता कर ही लेती हो तुम। तुम गुलाम हो पुरुष की, बाजार की, जो तुम्हें अपने फायदे के लिए इस्तेमाल करते हैं खरीदते व बेचते हैं।

डमी की चुभती बातें सुनकर मेरे तन-बदन में आग-सी लग गई। निर्जीव डमी के गुरूर को देखकर मैं चुप कैसे रह सकती थी ? बेटी के पास जाने के बजाय मैं डमी के और निकट आ गई और उपेक्षा से मैंने जवाब दिया, ”मैं तुम्हारे मुँह नहीं लगना चाहती, तुम मेरी बराबरी कैसे कर सकती हो ? मैं एक जीवित व स्वतंत्र इन्सान हूँ, जो चाहे कर सकती हूँ। मैं आज हर क्षेत्र में पुरुष से बराबरी कर रही हूँ। तुम मुझे गुलाम कैसे कह सकती हो ? और मैं उस डमी को घूरते हुए आगे बढ़ गई।
story maniqueen

आवेश में मैंने डमी को जबाव तो दे दिया था लेकिन मन के भीतर कुछ टूट-सा गया। वास्तव में उस निर्जीव बुत ने एक कडु़वा सच मेरे सामने ला दिया था। मेरी आँखों के सामने फिल्मों व विज्ञापनों में नाचती-गाती अर्धनग्न महिलाओं के साथ-साथ सीरियलों में गहनों से लदी, सर को पल्लू से ढकती, औरत को औरत के विरुद्घ खड़ी करती, पिछड़े मूल्यों को परोसती महिलाओं की छवि आने-जाने लगी। मैं अपने आस-पास के माहौल के विषय में सोचे बिना नहीं रह पाई। सच ही तो है, आज हम स्वयं को कितना भी स्वतंत्र कह लें लेकिन हम अपनी इच्छानुसार कुछ भी नहीं कर पाती हैं। कभी हमारा पितृसत्तात्मक समाज आडे़ आता है, कभी खाप पंचायतें, तो कहीं अपना ही परिवार अपनी स्वतंत्रता के लिए लड़ने वाली की हत्या कर देता है, तो कही तथाकथित आधुनिकता के नाम पर औरत का मानसिक व शारीरिक शोषण होता है। नौकरीपेशा जागरूक महिलाओं को भी तो समाज व परिवार के अनुसार ही ढलना होता है फिर चाहे इसे कर्तव्य का नाम दें या मजबूरी।

मेरे उद्वेलित मन को बेटी की आवाज ने सहारा दिया। मम्मी, यहाँ मेरी पसन्द की कोई भी ड्रेस नहीं है, दूसरी दुकान में चलो। मैं बिना किसी प्रतिवाद के बेटी के पीछे-पीछे बाहर निकल आई। मेरा सर दर्द से फटा जा रहा था। बेटी मेरी स्थिति से अनभिज्ञ थोड़ा-सा आगे जाकर एक बड़े शो रूम में घुस गई। मैं इधर-उधर झांकती जब तक कपड़ों वाले काउण्टर तक पहुँची, बेटी ने खुशी से मुझसे लिपटते हुए कहा, ”मम्मी, मुझे वह सामने कैटरीना वाली ड्रेस खरीदनी हैं। मैंने सामने शीशे के भीतर देखा कि मोहक अदा में टॉप व शाट्र्स में एक खूबसूरत डमी खड़ी थी। मैं अपनी किशोरवय बेटी को यह ड्रेस नहीं दिलवाना चाहती थी। उसके पापा इस तरह के कपड़ों को देखकर अक्सर मुझे ताने देते रहते हैं कि मैं लड़की को बिगाड़ रही हूँ। लेकिन मैं बेटी की जिद के सामने कुछ नहीं कह पाती थी।

आज की जन्मदिन पार्टी में डिफरेन्ट दिखने के लिए उसने यही ड्रेस खरीदने का फैसला कर लिया था। मैं चाह कर भी उसको मना नहीं कर पा रही थी। तभी पास में खड़ी डमी ने फुसफुसाकर मेरे कान में कहा, ”आधुनिक बनना है तो कम्प्रोमाइज तो करना ही पडेगा।” उसने मेरे मन की बात जान ली थी। अब मैं स्वयं को उत्तर देने योग्य नहीं समझ पा रही थी। मैं बेटी की ड्रेस पैक करवाने लगी तो वह दूसरी रैक से फेस क्र्रीम का पैकेट हाथ में लेकर मुझे दिखाते हुए बोलने लगी, ”माँ, मुझे कुछ कर दिखाना है फेयर एण्ड लवली लगाऊंगी तो ऊँचाइयां छू लूंगी”। वह रैक से तरह-तरह के साधन-प्रसाधन शापिंग बैंग में डालती जाती और अपने जेहन में बैठे तमाम विज्ञापनों को जायज ठहराती जाती। मैं बिना किसी प्र्रतिक्र्रिया के बेटी को देख रही थी। उसको इस बात से कोई मतलब नहीं था कि सामान की उपयोगिता क्या है? और इतना अधिक सामान खरीदने के लिए मेरे पास पैसे हैं भी या नहीं। बेटी ने जब पूरा सामान खरीद लिया तो मैं धीरे-धीरे कैश काउण्टर की ओर बढ़ी। मेरे कदम उठ ही नहीं पा रहे थे। ठीक सामने शीशे के भीतर से झांकती डमी मेरी ओर देखकर मन्द-मन्द मुस्कुरा रही थी।
story maniqueen

उत्तरा के फेसबुक पेज को लाइक करें : Uttara Mahila Patrika
पत्रिका की आर्थिक सहायता के लिये : यहाँ क्लिक करें