कहानी : मनोवृत्ति

प्रेमचंद

एक सुन्दर युवती प्रात:काल गाँधी पार्क में बिल्लौर के बेंच पर गहरी नींद में सोई पाय जाय, यह चौका देने वाली बात है। सुन्दरियाँ पार्कों में हवा खाने आती हैं, हँसती हैं, दौड़ती हैं, फूल-पौधों से घिरती हैं, किसी का इधर ध्यान नहीं जाता, लेकिन कोई युवती रविश के किनारे वाले बेंच पर बेखबर सोये, यह बिल्कुल गैर मामूली बात है, अपनी ओर आर्किषत करने वाली। रविश पर कितने ही आदमी चहल कदमी कर रहे हैं, बूढ़े भी, जवान भी, सभी एक क्षण के लिए यहीं ठिठक जाते हैं, एक नजर वह दृश्य देखते हैं और तब चले जाते हैं। युवक-वृन्द रहस्य-भाव से मुस्काते हुए, वृद्धजन चिन्ताभाव से सिर हिलाते हुए और युवतियाँ लज्जा में आँखें नीची किये हुए।

वसन्त और हाशिम निकर और बनियान पहने नंगे पाँव दौड़ कर रहे हैं। बड़े दिन की छुट्टियों में र्ओंलपियन रेस होने वाले हैं, दोनों उसी की तैयारी कर रहे हैं। दोनों इस स्थल पर पहुँचकर रुक जाते हैं और दबी आँखों से युवती को देखकर आपस में ख्याल दौड़ाने लगते हैं।

वसन्त ने कहा ‘इसे और कहीं सोने की जगह नहीं मिली।’
हाशिम ने जवाब दिया- ‘कोई वेश्या है।’
‘लेकिन वेश्याएँ भी तो इस तरह बेशर्मी नहीं करतीं।’
‘वेश्या अगर बेशर्म न हो तो वह वेश्या नहीं। ‘

‘बहुत-सी ऐसी बातें हैं, जिनमें कुलवधू और वेश्या दोनों एक व्यवहार करती हैं। कोई वेश्या मामूली तौर पर सड़क पर सोना नहीं चाहती।’

‘रूप छवि दिखाने का नया आर्ट है।’
‘आर्ट का सबसे सुन्दर रूप छिपाव है, दिखाव नहीं। वेश्या इस रहस्य को खूब समझती है।
उसका छिपाव केवल आकर्षण बढ़ाने के लिए है।’
‘हो सकता है, मगर केवल यहाँ सो जाना, यह प्रमाणित नहीं करता कि यह वेश्या है। इसकी माँग में सिन्दूर है।’
‘वेश्याएँ अवसर पड़ने पर सौभाग्यवती बन जाती हैं। रात भर प्याले के दौर चले होंगे। काम-क्रीड़ाएँ हुई होंगी। अवसाद के कारण ठंडक पाकर सो गई होगी। ‘
‘मुझे तो कुलवधू-सी लगती है।’
‘कुलवधू पार्क में सोने आयेगी।’
‘हो सकता है, घर से रूठकर आई हो।’
‘चलकर पूछ ही क्यों न लें।’
‘निरे अहमक हो। बगैर परिचय के आप किसी को जगा कैसे सकते हैं।’
‘अजी चलकर परिचय कर लेंगे। उल्टे और एहसास जताएंगे।’
‘और जो कहें झिझक दे।’

‘झिझकने की कोई बात भी हो, उससे सौजन्य और सहृदयता में डूबी हुई बातें करेंगे। कोई युवती ऐसी, गतयौवनाएँ तक तो रस भरी बातें सुनकर फूल उठती हैं। यह तो नवयौवना है। मैंने रूप और यौवन का ऐसा सुन्दर संयोग नहीं देखा था।’

‘मेरे हृदय पर तो यह रूप जीवन पर्यन्त के लिए अंकित हो गया। शायद कभी न भूल सकूँ।’
‘मैं तो फिर भी यही कहता हूँ कि कोई वेश्या है।’
‘रूप की देवी वेश्या भी हो, उपास्य है।’
‘यहीं खड़े-खड़े कवियों की-सी बातें करोगे, जरा वहाँ तक चलते क्यों नहीं। केवल खड़े रहना, पास तो मैं डालूंगा।’
‘कोई कुलवधू है।’
‘कुलवधू पार्क में आकर सोए, तो इसके सिवा कोई अर्थ नहीं कि वह आर्किषत करना चाहती है और यह वेश्या मनोवृत्ति है।’
‘आजकल की युवतियाँ भी तो फारवर्ड होने लगी हैं।’
‘फारवर्ड युवतियाँ युवकों से आँखें नहीं चुरातीं।’
‘हाँ, लेकिन है कुलवधू। कुलवधू से किसी तरह की बातचीत करना मैं बेहूदगी समझता हूँ।’
‘तो चलो, फिर दौड़ लगाएँ।’
‘लेकिन दिल में वह र्मूित दौड़ रही है।’
‘तो आओ बैठें। जब वह उठकर जाने लगे, तो उसके पीछे चलें। मैं कहता हूँ वेश्या है।’
‘और मैं कहता हूँ कुलवधू है।’
‘तो दस-दस की बाजी रही।’
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……

दो वृद्ध पुरुष धीरे-धीरे जमीन की ओर ताकते आ रहे हैं, मानो खोई जवानी ढूँढ रहे हों। एक की कमर झुकी, बाल काले, शरीर स्थूल, दूसरे के बाल पके हुए, पर कमर सीधी, इकहरा शरीर। दोनों के दाँत टूटे, पर नकली लगाए, दोनों की आँखों पर ऐनक। मोटे महाशय वकील हैं, छरहरे महोदय डाक्टर।

वकील- ‘देखा, यह बीसवीं सदी की करामात।’
डाक्टर- ‘जी हाँ, देखा, हिन्दुस्तान दुनिया से अलग तो नही है।’
‘लेकिन आप इसे शिष्टता तो नहीं कह सकते।’
‘शिष्टता की दुहाई देने का अब समय नहीं।’
‘है किसी भले घर की लड़की।’
‘वेश्या है साहब, आप इतना भी नहीं समझते।’
‘वेश्या इतनी फूहड़ नहीं होती।’
‘और भले घर की लड़की फूहड़ होती है।’
‘नई आजादी है, नया नशा है।’
‘हम लोगों की तो बुरी-भली कट गई। जिनके सिर आयेगी, वह झेलेंगे।’
‘जिन्दगी जहन्नुम से बदतर हो जाएगी।’
‘अफसोस, जवानी रुखसत हो गई।’
‘मगर आँखें तो नहीं रुखसत हो गईं, वह दिल तो नहीं रुखसत हो गया।’
‘बस, आँखों से देखा करो, दिल जलाया करो।’

‘मेरा तो फिर से जवान होने को जी चाहता है। सच पूछो तो आजकल के जीवन में ही बहार है। हमारे वक्तों में तो कहीं कोई सूरत ही नजर नहीं आती थी। आज तो जिधर जोओ, हुस्न ही हुस्न के जलवे हैं।’

‘सुना, युवतियों को दुनिया में जिस चीज से सबसे ज्यादा नफरत है, वह बूढ़े मर्द हैं।’

‘मैं इसका कायल नहीं। पुरुष को जौहर उसकी जवानी नहीं, उसका शक्तिसम्पन्न होना है। कितने ही बूढ़े जवानों से ज्यादा अड़ियल होते हैं। मुझे तो आये दिन इसके तजुर्बे होते हैं। मैं ही अपने को किसी जवान से कम नहीं समझता।’

‘यह सब सही है, पर बूढ़ों का दिल कमजोर हो जाता है। अगर यह बात न होती, तो इस रमणी को इस तरह देखकर हम लोग यूँ न चले जाते। मैं तो आँखों भर देख भी न सका। डर लग रहा था कि कहीं उसकी आँखें न खुल जाएँ और वह मुझे ताकते देख ले तो दिल में क्या समझे।’

‘खुश होती कि बूढ़े पर भी उसका जादू चल गया।’
‘अजी रहने भी दो।’
‘आप कुछ दिनों आकोसा का सेवन कीजिये।’
‘चन्द्रोदय खाकर देख चुका। सब लूटने की बाते हैं।’
‘मंकीग्लैण्ड लगवा लीजिए न।’
‘आप इस युवती से मेरी बात पक्की करा दें। मैं तैयार हूँ।’
‘हाँ, यह मेरा जिम्मा, मगर हमारा भी हिस्सा रहेगा।’
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अर्थात्

‘अर्थात यह कि कभी-कभी मैं भी आपके घर आकर अपनी आँखें ठंडी कर लिया करूंगा।’
‘अगर आप इस इरादे से आये, तो मैं आपका दुश्मन हो जाऊंगा।’
‘ओ हो, आप तो मंकी ग्लैंड का नाम सुनते ही जवान हो गये।’
‘मैं तो समझता हूँ, यह भी डॉक्टरों ने लूटने का एक लटका निकाला है। सच।’

‘अरे साहब, इस रमणी के स्पर्श में जवानी है, आप हैं किस फेर में। उसके एक-एक अंग में, एक-एक मुस्कान है, एक-एक विलास में जवानी भरी हुई। न सौ मंकी ग्लैंड, न एक रमणी का बाहुपाश।’

‘अच्छा कदम बढ़ाइए, मुवक्किल आकर बैठे होंगे।’
‘यह सूरत याद रहेगी।’
‘फिर आपने याद दिला दी।’

‘वह इस तरह सोयी है इसलिए कि लोग उसके रूप को, उसके अंग-विन्यास को, उसके बिखरे हुए केशों को, उसकी खुली हुई गर्दन को देखें और छाती पीटें। इस तरह चले जाना उसके साथ अन्याय है। वह बुला रही हैं और आप भागे जा रहे हैं।’

‘हम जिस तरह दिल से प्रेम कर सकते हैं, जवान कभी कर सकता है।’

‘बिलकुल ठीक। मुझे तो ऐसी औरतों से साबिका पड़ चुका है, जो रसिक बूढ़ों को खोजा करती हैं। जवान तो छिछोरे, उच्छृंखल, अस्थिर और गर्वीले होते हैं। वे प्रेम के बदले कुछ चाहते हैं। यहाँ नि:स्वार्थ भाव से आत्म-समर्पण करते हैं।’

‘आपकी बातों से दिल में गुदगुदी हो गयी।’
‘मगर एक बात याद रखिए, कहीं कहीं उसका कोई जवान प्रेमी मिल गया, तो?’
‘तो मिला करे, यहाँ ऐसों से नहीं डरते।’
‘आपकी शादी की कुछ बातचीत थी तो।’

‘हाँ, थी, मगर जब अपने लड़के दुश्मनी पर कमर बाँधे तो क्या हो, मेरा लड़का यशवंत तो बन्दूक दिखाने लगा। यह जमाने की खूबी हैं’

‘अक्टूबर की तेज धूप हो चली थी। दोनों मित्र निकल गये।’
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……

दो देवियाँ- एक वृद्धा, दूसरी नवयौवना पार्क के फाटक पर मोटर से उतरीं और पार्क में हवा खाने आयीं। उनकी निगाह भी उस नींद की मारी युवती पर पड़ी।
वृद्धा ने कहा- बड़ी बेशर्म है।
नवयौवना ने तिरस्कार भाव से उसकी ओर देखकर कहा- ठाठ तो भले घर की देवियों के हैं।
‘बस, ठाठ ही देख लो।’ इसी से मर्द कहते हैं, स्त्रियों को आजादी न मिलनी चाहिए। मुझे तो वेश्या मालूम होती हैं।
वेश्या ही सही, पर उसे इतनी बेशर्मी करके स्त्री समाज को लज्जित करने का क्या अधिकार है।
‘कैसे मजे से सो रही हैं, मानो अपने घर में हैं।’

‘बेहयाई है। मैं परदा नहीं चाहती, पुरुषों की गुलामी नहीं चाहती, लेकिन औरतों में जो गौरवशीलता और सलज्जता है, उसे नहीं छोड़ती। मैं किसी युवती को सड़क पर सिगरेट पीते देखती हूँ तो मेरे बदन में आग लग जाती है। उसी तरह आधी का जम्फर भी मुझे नहीं सोहाता। क्या अपने धर्म की लाज छोड़ देने ही से साबित होगा कि हम बहुत फारवर्ड हैं, पुरुष अपनी छाती या पीठ खोले तो नहीं घूमते।’

‘इसी बात पर बाईजी, जब मैं आपको आड़े हाथों लेती हूँ, तो आप बिगड़ने लगती हैं। पुरुष स्वाधीन हैं। वह दिल में समझता है कि मैं स्वाधीन हूँ। वह स्वाधीनता का स्वांग नहीं भरता। स्त्री अपने दिल में समझती रहती है कि वह स्वाधीन नहीं हैं इसलिए वह अपनी स्वाधीनता का ढोंग करती है। जो बलवान हैं, वे अकड़ते नहीं। जो दुर्बल हैं, वही अकड़ करती हैं। क्या आप उन्हें अपने आँसू पोंछने के लिए इतना अधिकार भी नहीं देना चाहतीं।’

‘मैं तो कहती हूँ, स्त्री अपने को छिपाकर पुरुष को जितना नचा सकती है, अपने को खोलकर नहीं नचा सकती।’
‘स्त्री ही पुरुष के आकर्षण की फिक्र क्यों करें, पुरुष क्यों स्त्री से पर्दा प्रथा करता।’
‘अब मुँह न खुलवाओ मीनू। इस छोकरी को जगाकर कह दो- जाकर घर में सोये। इतने आदमी आ-जा रहे हैं और यह निर्लज्जा टाँग फैलाये पड़ी है, यहाँ नींद कैसे आ गयी।’
‘रात कितनी गर्मी थी बाईजी। ठंडक पाकर बेचारी की आँखें लग गयी हैं।’
‘रात-भर यहीं रही हैं, कुछ-कुछ बदली हैं।’

मीनू युवती के पास जाकर उसका हाथ पकड़कर हिलाती हैं- यहाँ क्यों सो रही हो देवीजी, इतना दिन चढ़ आया, उठकर घर जाओ।

युवती आँखें खोल देती है- ओ हो, इतना दिन चढ़ आया, क्या मैं सो गयी थी, मेरे सिर में चक्कर आ जाया करता है। मैंने समझा शायद हवा से कुछ लाभ हो। यहाँ आयी, पर ऐसा चक्कर आया कि मैं इस बेंच पर बैठ गयी, फिर मुझे होश न रहा। अब भी मैं खड़ी नहीं हो सकती। मालूम होता है मैं गिर पडूंगी। बहुत दवा की, पर कोई फायदा नहीं होता। आप डाक्टर श्यामनाथ को जानती होंगी, वह मेरे ससुर हैं।

युवती ने आश्चर्य से कहा- अच्छा! यह तो अभी इधर ही से गये हैं।
‘सच! लेकिन मुझे पहचान कैसे सकते हैं, अभी मेरा गौना नहीं हुआ है।’
‘तो क्या आप उसके लड़के बसंतलाल की धर्मपत्नी हैं।’
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युवती ने शर्म से सिर झुकाकर स्वीकार किया। मीनू ने हँसकर कहा-‘ बसन्तलाल तो अभी इधर से गये हैं, मेरा उनसे यूनिर्विसटी का परिचय है।’

‘अच्छा! लेकिन मुझे उन्होंने देखा कहाँ।’
‘तो मैं दौड़कर डाक्टर को खबर दे दूँ।’
‘जी नहीं, किसी को न बुलाइएगा।’
‘बसन्तलाल भी वहीं खड़ा है, उसे बुला दूँ।’
‘तो चलो, अपनी मोटर पर तुम्हें तुम्हारे घर पहुँचा दूँ।’
‘आपकी बड़ी कृपा होगी।’
‘किस मुहल्ले में।’
‘बेगमगंज, मि. जयराम के घर।’
‘मैं आज ही मि. बसन्तलाल से कहूँगी।’
‘मैं क्या जानती थी कि वह इस पार्क में आते हैं।’
‘मगर कोई आदमी साथ ले लिया होता।’
‘किसलिए, कोई जरूरत न थी।’
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