कहानी : कंपनी
मनीष कुमार सिंह
हर घर बाहर से बस एक मकान दिखता है। या फिर एक फ्लैट, कोठी, बंगला जो भी कहिए। अन्दर जाने पर और वहाँ के र्बांशदों से मिलने-समझने पर पता लगता है कि यह कोई घर है। हर घर का एक मिजाज और व्यक्तित्व होता है। बहुत कुछ वैसे ही जैसा कि किसी व्यक्ति का होता है। गुरुजी के घर भी कुछ ऐसा ही था। तीन बेटियों और दो बेटों वाले घर में सभी जहीन और समझदार थे। कोई भी जान-पहचान वाला यह कह सकता था कि इंसान को अब इससे ज्यादा क्या चाहिए। लड़कियों की भले घर में शादी कर दी। बेटे लायक निकले। अपनी जिम्मेदारी से परिचित। बुढ़ापा शांति से कटेगा।
अगर पत्नी बीमार न रहती तो बुढ़ापा वास्तव में और सुखी होता। गुरुजी की स्त्री को गठिया की समस्या थी। वह भी गंभीर। बिना किसी सहारे के बिस्तर अथवा कुर्सी से उठने-चलने में असमर्थ। किसी को ऐसी बीमारी न हो। दवाओं के सेवन से कुछ दूसरे प्रकार की कठिनाईयाँ भी उत्पन्न हो गयी। घर में केवल वे ही थे कि अपनी पहले नाती की जाड़े में देखभाल करने में उन्होंने दिन रात एक कर दिया था। अपनी बिल्कुल परवाह नहीं की। घर में केवल वे ही थे। कहते थे कि अपने पहले नाती की जाड़े में देखभाल करने में उन्होंने दिन-रात एक कर दिया था। अपनी बिल्कुल परवाह नहीं की। यह गठिया उसी का परिणाम था। जाहिर था सेवा-सुश्रुषा सब उन्हीं को करना पड़ता था। गाँव से एक नौकर लाए थे। घर का काम-काज कर दिया करता था। बिन गृहणी घर भूतों का डेरा यू्ँ ही नहीं कहा गया है। गृहणी के होते हुए भी उसकी उपस्थिति प्रभावहीन थी। वे घर के काम और नौकर की गतिविधियों पर प्रभावी नियंत्रण रखने में असमर्थ थीं। पुरुष चाहे बाहर जितना भी पराक्रम दिखा दे, घर की व्यवस्था बिना स्त्री के नहीं हो सकती। दोनों बेटों में से कोई भी साथ में नहीं रहता था। बड़ा नौकरीपेशा था। उसकी स्त्री कामकाजी थी। छोटा का अपना धंधा था। लेकिन पत्नी एक गृहणी थी। शुरु में सभी साथ-साथ थे। पर जब बड़े भाई की पत्नी को शाम में लौटकर आराम करते और अपनी स्त्री को घर के काम करते देखता तो जल्दी ही उसने एक निर्णय लिया कि अलग रहने में ही समझदारी है। वरना वह हमेशा खटती रहेगी। बड़े की कामकाजी बीबी भी अक्लमंद थी। नौकरी से आकर गृहस्थी सँभालना जिसमें सास की सेवा-सुश्रा अनिवार्य तौर पर शामिल थी उसे उपने बस की नहीं लगी। वैसे तो गुरुजी अपनी जीवन-शैली किसी पर थोपते नहीं थे लेकिन एक दिन अपने बेटे से माँ का ख्याल रखने तथा बहू को अपनी जिम्मेदारी समझने को कहा था। बेटे ने जब यह बात अपनी पत्नी को बतायी तो वह पति को माँ-बाप के पल्लू से बँधा होने का उलाहना देने लगी। उस दिन से वह भी ससुर के पुराने जमाने में जीने एवं सुबह-शाम के पूजन पर यदा-कदा कोई टिप्पणी कर देती। जल्दी ही उसने अपने पति को अलग रहने को मना लिया।

बेटियों का जहाँ तक प्रश्न था दो दूसरी जगह व्यवस्थि थीं। मझली जरूर इसी शहर के एक कोने में रहती थी। सो कभी-कभार आकर हालचाल ले लेती थी। स्वाभिमानी और अक्खड़ स्वभाव के गुरुजी उसे भी यही ताकीद करते थे कि घर ताला लगाकर न आया करो। जमाना ठीक नहीं है। पत्नी की सेवा, दैनिक दिनचर्या जिसमें सुबह-शाम का नियमित पूजा-पाठ शामिल था, उनके समय का एक बड़ा अंश लेता था। लेकिन इसके बावजूद काफी बड़ा हिस्सा खाली रहता था। या यूँ कहा जाए कि शून्यता बनी रहती। इस हिस्से का वे क्या करें। घूमें-टहलें, पढ़ें, टी.वी. पर न्यूज देखें या पड़ोसियों के घर जांए। यदि जांए तो किसकी बात करें और कितनी देर तक। आखिर वह भी खाली और बातचीत के लिए राजी होना चाहिए। बूढ़ों को लोग ऐसे ही फालतू और सठिआया हुआ नहीं कहते हैं। वे ऐसे परिवेश में पले थे जहाँ खुशी की उमंग बाँटने के लिए रिश्ते-नातों और आत्मीय जनों का मजमा इकट्ठा होता था। कोई परेशानी, गमी हो तो यह मजमा पुन: एकत्रित होकर सांत्वना और मदद करता था। मिलबैठ कर कोई राह निकालता था। भाग्य और समय पर किसी का बस नहीं जैसे मुहावरों और पद गुनगुना कर वे नयी-पुरानी वास्तविक और अज्ञात मुसीबतों से निपटने का विश्वास प्राप्त करते थे। ऐसा अनात्मीय और अपरिचित वातावरण उनके लिए असहज था।
इसी शहर में रहने वाली बेटी के ससुर अपने बेटे-बहू और पोते-पोतियों से मिलने आए थे। वे भी मूलत: गाँव के थे। रहते उधर ही थे। कभी-कभी चले आते। महीने-दो महीने पर गुरुजी अपनी बेटी के यहाँ एकाध घंटे के लिए चले जाते थे। साथ में बच्चों के मतलब की मिठाई-चॉकलेट या खिलौने लेकर। इसी दरम्यान दोनों समधियों की मुलाकात हुई। दुआ सलाम के बीच उन्होंने पाया कि रामेश्वरी जी यानि उनकी बेटी के ससुर पहले से ही काफी दुबले हुए हैं। उधर से भी कुछ ऐसा ही लगा कि गुरुजी के चेहरे की झुर्रियां ज्यादा गहरी और स्पष्ट हुई हैं। चूँकि रामेश्वरजी लड़के वाले थे इसलिए शादी के दस साल बाद भी गुरुजी की जिहवा पर कतिपय चापलूसी युक्त और दीनता के शब्द अनायास आ जाते। सबसे छोटी वाली लड़की के ससुर से उनका झगड़ा और गलतफहमी हुई थी। इसके कारण लड़की को कई तकलीफें भी उठानी पड़ी। वे सतर्क रहते थे।
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”घर में सब कैसे हैं ? वे पूछले लगे।” बस ठीक है” एक फीकी मुस्कान चेहरे पर खींचकर उन्होंने जवाब दिया। गुरुजी का ध्यान आया कि गत वर्ष उनकी पत्नी का स्वर्गवास हो गया था। घर में ब्याह योग्य एक बिटिया थी जिसके लिए वे प्रयासरत थे। रिश्ते की एक बुआ को अपनी अनुपस्थिति में घर बुला रखा था। जवान लड़की को ऐसे कैसे रख सकते हैं।
”बिटिया की शादी की बात का क्या हुआ?” उन्होंने दूसरा सामयिक प्रश्न किया। आत्मीयता से पूछे सवाल पर रामेश्वरीजी थोड़ा नजदीक सरकते हुए बोले, ”साहब हमारे देश में लड़की वाला होना एक अखिल भारतीय समस्या है। मैं भी इसी का शिकार हूँ। कोशिश कर रहा हूँ। कुछेक जगह बात हुई है। इस साल तक फाइनल समझिए।” एक बात वे छिपा गए कि उनकी पहली लड़की दहेज में सब कुछ दिए जाने के बाद भी शादी के बाद ससुराल में खुश नहीं है।
लड़की वाले से उन्हें याद आया कि वे भी तीन बेटियों के पिता है। लेकिन रामेश्वर जी से उन्हें सबसे कम परेशानी हुई। चाहे लेन-देन को लेकर हो या अहम के टकराव को लेकर। सबको अपनी तरह सरल और बेलाग समझने वाले गुरुजी जमाने की शतरंज के घोड़े की तरह ढाई चाल नहीं समझ पाए। इसलिए जिन्दगी में कई जगह धोखा, कष्ट और दर्द झेलना पड़ा। छोटी वाली के ससुर से उनकी मुलाकात और बातचीत केवल दो-तीन बार हुई थी। शादी के समय की कड़वाहट और उन लोगों के अहंकार ने रिश्ते को दूषित कर दिया था। वे अपने बनाए अहम के किले में कैद रहते। रामेश्वर जी की बातों में दंभ और बड़बोलेपन का अभाव था। इससे प्रोत्साहित होकर उन्होंने कहा, ”हमारी जरूरत हो तो नि:संकोच कहिएगा।”
”अरे हजूर सारा प्रबंध ही आपको करना है।” कंधे पर हाथ रखते हुए वे बोले।
ऐसी बातों के बीच चाय-नाश्ता करते हुए एक सहज और दोस्ताना वातावरण बन गया। गुरुजी ने बच्चों को खिलौने और चॉकलेट देते हुए रामेश्वरजी से यह वादा करवा लिया कि वे उनके यहाँ आएँ। साथ ही दोनों के बीच यह भी करार जैसा हो गया कि वे मिलते रहेंगे।
दरअसल गुरुजी का ऐसा कोई ग्रुप नहीं था जिसमें वे नियमित बोलते-बतियाते थे। वैसे तो शहर में कई जान-पहचान वाले थे लेकिन बिखरे हुए। रोजाना मिलना-जुलना नहीं था। बड़े शहरों में खासकर बूढ़ों के गैंग होते हैं जो सुबह-शाम साथ टहलते हैं और बैठकर गप हॉकते हैं।
अगले दिन रामेश्वर बाबू उनके घर पधारे तो उन्हें सुखद आश्चर्य हुआ। इतनी जल्दी अनुरोध मान लिया इसका अर्थ कि वे भी मिलने के लिए व्यग्र थे। ”जनाब क्या हाल है?” वे स्वागत के लिए आगे बढ़कर हँसते हुए बोले।
”बुरा हाल है” रामेश्वर बाबू ने टुकड़ा जोड़ा। ”आपके बिना चैन नहीं है।” गुरुजी गदगद हो उठे। अन्दर बैठकर दोनों वृद्ध सज्जन बातें करने लगे।
”भाभीजी का क्या हाल है?” रामेश्वर बाबू उनकी स्त्री का स्वास्थ्य जानने के लिए बोले।
”उनका हाल हमेशा की तरह ही है।”
”यानि?”
”देखिए उनकी बीमारी कोई ऐसी नहीं कि ठीक हो सके। इसलिए बस चला रहे हैं। ऐसे में सेवा करने वाला भी परेशान और सेवा कराने वाला भी।” कहते-कहते उनके स्वर में मायूसी घुल गयी। रामेश्वर बाबू को महसूस हुआ कि सवाल नहीं करना चाहिए था।
”बेटे लोगों के पास जाकर क्यों नहीं रहते हैं?” उनके अगले प्रश्न में अब तक ऐसा न करने का कारण जानने की उत्सुकता एवं समस्या का समाधान बताने का आग्रह दोनों सम्मिलित थे। एक बार फिर हताश भरी हँसी से युक्त गुरुजी बोले। ”अजी साहब सभी की अपनी-अपनी जिन्दगी है। क्यों हम खामख्वाह किसी को डिस्टर्ब करें। बुढ़ापे के कुछेक साल निकालने हैं। सो किसी तरह निकल जाऐंगे।” इस बात को अपनी परिस्थिति से मिलाते हुए रामेश्वर बाबू चिन्तन करने लगे। कोई जरूरी नहीं कि प्रत्यक्ष दुव्र्यवहार ही मन को चोट पहुँचाता है। अपने में केन्द्रित रहकर या सुनियोजित तरीके से उपेक्षा करके संतान माता-पिता को ज्यादा आहत कर सकती है।
नौकर चाय ला चुका था। ”गाँव और शहर के माहौल में बहुत फर्क है जनाब।” गुरुजी ने चाय का कप उनकी ओर बढ़ाते हुए कहा, ”वहाँ अभी भी परिवार और नाते मौजूद हैं।”
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”हर जगह एक ही हालात है।” रामेश्वर बाबू बोले। अपनी बात कटने के बावजूद गुरुजी के मन को न जाने क्यों एक ढाढ़स मिला। शायद यह जानकर कि पीड़ित केवल वही नहीं है। उन्होंने गाँव के विषय में कुछ नहीं पूछा। उधर से भी बताया नहीं गया। बस परस्पर सहानुभूति के वातावरण में दोनों बैठे रहे।
दो घंटे कैसे बीते यह दोनों सज्जनों को पता ही नहीं लगा। ”आपका ठिकाना पास में ही तो है। सुबह-सुबह साथ टहलने निकलते हैं।” गुरुजी बतरस का और आनन्द लेने और साहचर्य की गरज से बाल-सुलभ ललक से बोले। संभवत: वे यह भी विस्मृत कर चुके थे कि सामने वाला उनका समधी है। दोनों के बीच घोर औपचारिक और एक सामाजिक व्यवस्था द्वारा थोपा गया असमान रिश्ता है। जिस तरीके से बदले में रामेश्वर बाबू ने उनके आग्रह से किए गए प्रस्ताव को स्वीकारा वह भी उल्लेखनीय था। मैं वैसे तो साढ़े छह बजे तक तैयार हो जाता हूँ। कहेंगे तो पाँच बजे ही हाजिर हो जाऊंगा।
मुझे पता है कि आप पूजा-पाठ करने बड़े सवेरे उठते हैं। ऐसा लगा कि वे आशंकित थे कि कहीं देर होने से गुरुजी यह क्रम एकाध दिन में ही भंग न कर दें।
”अरे नहीं साहब आप साढ़े छह तक तैयार रहिए। इतनी जल्दी उठके भी क्या करना।” दोनों एक-दूसरे के प्रति मानो एहसानमंद थे। एक को खुशी थी कि ऐसा प्रस्ताव मिला। दूसरा अनांदित था कि उसके प्रस्ताव को ऐसी मनोकूल प्रतिक्रिया मिली। लेकिन शायद सच्चाई यह थी कि दोनों साहचर्य चाहते थे।
सुबह-सुबह टहलते दोनों सज्जन परिवार और बच्चों की हदों से बाहर निकलकर राजनीति, समाज, धर्म और अपने गत अनुभवों के बारे में भी विस्तृत बातें करने लगे। उन्हें महसूस हो रहा था कि बचपन और यौवन की बातें उन्मुक्ततापूर्वक घर में नहीं की जा सकती। यहाँ तक कि कतिपय विषय तो पत्नी से भी नहीं।
गुरुजी की बेटी दोनों की गाढ़ी मित्रता देखकर कहने लगी कि ये तो लंगोटिया यार लगते हैं। सच्ची मित्रता बस मन देखती है और उसके अन्दर निहित भाव। सांसारिक व्यवस्थाओं के कई निहितार्थ हो सकते हैं लेकिन वे प्राय: मन के नातों और आत्मीयता में बाधक तत्व सिद्ध होते हैं। सामान्यत: यह माना जाता है कि गाढ़ी दोस्ती बस बचपन के मित्रों या ज्यादा से ज्यादा स्कूल-कॉलेज तक सीमित होती है। बाद के जीवन में विभिन्न प्रयोजन और दिखावे सम्बन्धों को महज एक औपचारिकता और प्रदर्शन में परिर्वितत कर देते हैं। लेकिन शायद दो अकेले मन जीवन के उत्तराद्र्ध में ही किसी साथी की तलाश में रहता है। यह प्रकृति का नियम है जिसे किसी सामाजिक बंधन, कानूनी धाराओं और फोकट के स्टेट्स और प्रोटोकॉल से बाँधा नहीं जा सकता। सामने वाला यदि योग्य पात्र है तो उसे सब कुछ बता देने को बरसों का रुका बाँध टूट सकता है। प्रतिदान के रूप में उसे भी बस यही सब चाहिए।
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साथ टहलते-घूमते दोनों ने पाया कि वे शारीरिक दृष्टि से उतने कमजोर भी नहीं जितना वे स्वयं को समझते थे।
”आपका जन्मदिन कब है गुरुजी?” रामेश्वर बाबू ने पूछा। वे हँसने लगे। ”छोड़िए! हमें खुद ही ध्यान नहीं।”
”नहीं बताना तो पड़ेगा ही। मैं भी आपको अपना बताऊंगा।”
”पौष मास में ही किसी दिन पड़ता है। सही तारीख मालूम नहीं।…”
”तो फिर भाभीजी से पूछ लीजिए।”
”रामेश्वर बाबू आपकी भाभीजी मेरी घरवाली हैं माता नहीं। मेरा जन्मदिन बेचारी को क्या पता होगा।” इस पर दोनों हँसने लगे। रामेश्वर बाबू ने उनके घर पर पड़ी पुरानी जन्म कुण्डली से यह ज्ञात कर लिया कि जन्मदिन की तिथि क्या है। इस शोध कार्य में आधा दिन लगा।
बेटी अपने पतिदेव और बच्चों के साथ आयी। बाकायदा केक सजाया गया। गुरुजी संकोचग्रस्त थे। ऐसा पहली बार हो रहा था कि बच्चों की तरह उनका जन्मदिन केक काटकर मनाया जा रहा था। बल्कि हकीकत यह थी कि पहले कभी यह सब हुआ ही नहीं था। केक लाने रामेश्वर बाबू अपने बहू-बेटे के साथ मार्केट गए थे। बच्चों ने बर्थ डे का गाना गाया और तालियाँ बजायी। कुर्सी पर बैठी धर्मपत्नी स्मित मुस्कान के साथ यह नजारा देख रही थीं। केक का टुकड़ा गुरुजी के मुख में उनके हाल में बने मित्र के कर कमलों द्वारा डाला गया। प्राचीन परम्पराओं के हिमायती गुरुजी किसी और ढंग से किसी आयोजन को मनाए जाने का पुरजोर विरोध करते थे। इस अवस्था में दोनों व्यक्ति उत्तर आधुनिक बन जाऐंगे ऐसी आशा परिजनों को नहीं थी। पर एक ने केक का टुकड़ा बढ़ाया और दूसरे ने उसे उदरस्थ कर लिया।
अंत में उन्होंने भी कुछ चुकाने की गरज से पूछा, ”आपका जन्मदिन कब पड़ेगा?”
”मैं बच गया। आषाढ़ में पैदा हुआ था।” केक की क्रीम का स्वाद लेकर खाते रामेश्वर बाबू बोले। ”कोई बात नहीं आषाढ़ आने पर आपके गाँव पहुँचकर बर्थ डे मनवाऊंगा।”
बेटे-बहू के यहाँ महीना भर गुजारने के बाद रामेश्वर बाबू के गाँव लौटने की बेला आयी। ”अरे इतनी जल्दी क्या है?” गुरुजी अकुलाए। ”थोड़ा और रुकते। बच्चों का आपकी वजह से मन लगा रहता है।” रामेश्वर बाबू ने उनकी शक्ल और स्वर को देख-सुन कर भाँप लिया कि बच्चों के बहाने गुरुजी अपने मन की बात बता रहे हैं। वे बस फीकी मुस्कान से कहने लगे, ”मैं भी वही चाहता हूँ जो आप की मर्जी है लेकिन गाँव में मेरा स्थायी निवास है। आपको बुलाऊंगा। अब तो आता जाता रहूंगा।”
स्टेशन पर रामेश्वर बाबू के बेटे ने उन्हें छोड़ा। ट्रेन में बिठाया। साथ में गुरुजी भी गए। अपने मित्र को विदा करने। टे्रन का सिगनल हो गया। दोनों मित्र रोने लगे। वहाँ आए लोग थोड़ा हैरान थे। बूढ़ों को ऐसे बच्चों की तरह रोते देखने के आदि नहीं थे। दोनों को चुप कराने का प्रयास उसने किया जो कि उनका बेटा और दामाद था। पर उसे लग रहा था कि ये लोग थोड़ा रो ले तो अच्छा रहेगा। जी हल्का हो जाएगा। कौन कहता है कि जीवन के उत्तराद्र्ध में मित्रता स्थापित करने का समय और ऊर्जा नहीं होती है। शायद घरवालों से यह सब मिलता तो दोनों एक समधी के रूप में मिलते दोस्ते नहीं बनते।
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