कविताएं

सविता सिंह

राजा की बेटी

कहाँ भाग सकती थी
घिराव लंबा था
और घिर चुकी थी राजा की बेटी
घर से सुन्दर खूब
जिनमें रहने गयी थी वह
बा़ग थे फल-फूल देते
गाड़ियाँ थीं जो चलें मीलों बेरोक-टोक
घिर चुकी थी लेकिन
सोने-चाँदी से लदी राजा की वह बेटी
मान-मर्यादा के किलों को सौंप दी गयी
शब्दों में सिहरन दौड़ जाती
जब कुछ कहती वह
आँखों में अनायास भर जाता ढेर सारा जल
कलेजे में समा जाती इतनी धड़कन
कि बाहर की कोई दूसरी आवाज उस तक न पहुँचती
घिर चुकी थी
अपने होने के होने में लड़की
नतमस्तक धरती को घूरती
जैसे इसी ने छिपाया हो रहस्य
ब्याह दी जाने वाली लड़कियों के पतन का
जिन्हें जीना होता है हमेशा दूसरों का जीवन

समाप्त होती तितलियाँ

किस ओर से आने लगी हैं
इतनी सारी सुन्दर रंग-बिरंगी
ढेर सारी तितलियाँ
झाड़ती पराग पंखों से
भरती वातावरण को ईश्वर के अपने रंग से
लहराती हल्की हवाओं के संग
फुर्ती से दिशा बदलतीं
किस ओर चली जा रही हैं
इतनी सारी तितलियाँ
बाहर की टह टह धूप का रंग बदलती
उतारती जेठ की गर्मी को दोपहर के कलेजे में
किस मोहजाल की तऱफ बढ़ती जा रही हैं
किस आकाश के नीलेपन में होने शामिल
खोने समय किस खाई में
पराग बरसाने वाली
प्रफुल्ल नाचती इतनी सारी तितलियाँ
इतनी खुशी से कैसे उड़ती जा रही हैं समाप्त होने
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निजी कोना

क्या होता है किसी का कोई निजी कोना
या सिर्फ सपने होते हैं
जिन्हें देखती हैं कई-कई बार मन की आँखें
जो आते हैं नींद की दुनिया में टहलते हुए
खटखटाते दरवाजा़ हमारे जागते भ्रमों के प्रासाद का
चाहते बने उनसे हमारी दुनिया
शायद एक राह भी जाती हुई
असंख्य मर्यादाओं के पार
लेकिन सचमुच
सपनों से बाहर तो कुछ भी नहीं होता
कोई निजी कोना
घर-माँ
पति-पिता
भाई-बहन
राष्ट्र-राज्य
या फिर यह विश्व ही

चित्र में लड़कियाँ

मैंने उस चित्र को उसी तरह समझा
जैसे समझना चाहती थी उसमें बैठी
नंगी पीठ वाली लड़की
कि जहाँ कहीं भी टाँगी जाएगी यह तस्वीर
वहीं बना लेगी वह एक खिड़की
जब बाकी लोग देख रहे होंगे उसकी पीठ
वह देख रही होगी बाहर कोई दृश्य
मैंने उस चित्र को जब दोबारा देखा
उसमें मुझे कई और लड़कियाँ दिखीं
ढँके बाँहों से कभी मुख कभी स्तन
ऐंठ उनके बदन पर थीं लेटी सर्प-सी उनकी नसें
दिखीं वे खुद इतनी बेचैन मानो
अब उठ खड़ी होंगी और निकल जायेंगी
अपनी-अपनी खिड़कियों से बाहर
मिल जायेंगी अपने-अपने दृश्यों में
बाद में और उस चित्र में सि़र्फ खिड़कियाँ ही थीं
लड़कियाँ जा चुकी थीं
नंगी पीठ वाली लड़की भी कहीं नहीं थी
खिड़कियों से लगे लहराते पर्दे थे
नंगापन ढँकने को आतुर
जिसे झाड़ चुकी थी अब देह
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मनोकामनाओं जैसी स्त्रियाँ

ख़याल  है इस बात का
कि अब और आगे बढ़ी तो खाई है
हटी पीछे तो आग
खड़ी रही तो मूच्र्छा है गिराने के लिए
ख़याल है कि जिस जगह टिके हैं पाँव
वह भी खिसकने वाली है
उसमें भी एक अजीब ताप है
जो जलाता है आत्मा को
जगह बदलने की बात हो तो
जगह से जगह बदल लूँ
लेकिन यहाँ तो आसमान में ताकते बीते हैं बरस
देखते हुए अंधकार और प्रकाश के खेल
मेलजोल उनके
और अब एक आदत-सी पड़ गयी है
सितारों की रची-रचायी दुनिया को देखने की
चाहने की वह सीढ़ी जिससे पहुँचूँ उन तक
बसने उन्हीं के बीच
मैं पहचानती हूँ आखिर उनका वह झुरमुट
जिसमें मैंने भी चुना है अपना एक कोना
जहाँ जाकर ठहरती हैं पृथ्वी से लौटी उन्मुक्त हवाएँ
ऋतुएँ जहाँ जाकर सोचती हैं अपना होना
ख़याल है कि पहुँचूँ वहाँ
जहाँ पहले से ही एकत्र हैं
ढेर सारी मनोकामनाओं जैसी
ख़्ाुश और सुन्दर स्त्रियाँ
अपने जैसा जीवन से साभार

सविता सिंह हिन्दी और अंग्रेजी दोनों ही भाषाओं में सामयिक सामाजिक, राजनीतिक परिदृश्य, स्त्री विमर्श आदि पर निरंतर लिख रही हैं। पहला कविता संग्रह होने के बावजूद ‘अपना जैसा जीवन’ की कविताओं में मार्मिक संवेदनाओं की गहरी अभिव्यक्ति है। परम्परा, आधुनिकता, जीवन मूल्य, सपने, आकांक्षाएँ और जिन्दगी की उलझन फिर उसी उलझन में राह तलाशती ये कविताएँ मूर्त और अमूर्त रूप में स्त्री के बाहर भीतर का सारा सच बयान कर देती हैं। उत्तरा के पाठकों के लिए अंक के आवरण और इन पृष्ठों में ये कविताएँ प्रकाशित की जा रही हैं।
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