उत्तराखण्ड की प्रथम दलित सम्पादिका

प्रीती आर्या

उत्तराखण्ड नि:संदेह प्राकृतिक सौन्दर्य की दृष्टि से समृद्ध क्षेत्र है। किन्तु जीविकोपार्जन के लिए जहाँ पुरुषों ने निष्क्रमण को चुना, वहीं परिवार और सामाजिक दायित्व के भार को महिलाओं ने अपनी नियति बना लिया। रूढ़िवादिता और कुप्रथाओं से ग्रस्त पर्वतीय समाज की महिला को सीमित दायरे से बाहर लाने के प्रयास उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तराद्र्ध में हुए धार्मिक, सामाजिक सुधारों और ईसाई मिशनरियों ने किया। विशेषकर स्त्री और निम्नवर्गों की स्थिति शिक्षा के अभाव के कारण अत्यन्त दयनीय थी। अत: आर्य समाज एवं मिशनरियों ने शिक्षा के लिर्ए लिंगीय एवं जातीय असमानता के विरुद्ध सामाजिक चेतना को जागृत किया।

परिणामस्वरूप बीसवीं सदी के पूर्वाद्र्ध में ही अनेक स्त्रियों ने विभिन्न कार्य क्षेत्रों में पुरुष वर्चस्व को चुनौती देना प्रारम्भ कर दिया था। सम्पादन एवं पत्रकारिता एक ऐसा ही क्षेत्र था जहाँ पुरुषों का एकाधिकार माना जाता था। हिन्दी समाचार पत्रों के इतिहास में जो महिला पत्रकार-सम्पादिकाएँ विशेष गौरव से उल्लेखित की जाती हैं- उनमें लक्ष्मी देवी टम्टा का नाम शीर्षस्थ है। इस हिस्सेदारी में लक्ष्मीदेवी टम्टा जी का नाम पहली सर्वहारा शोषित समाज की पत्रकार और सम्पादिका, साथ ही पर्वतीय अंचल की पहली दलित स्नातिका के रूप में इतिहास में स्मरणीय है।

16 फरवरी 1912 को अल्मोड़ा में जन्मी लक्ष्मी देवी स्व. गुलाब टम्टा और कमला देवी की पुत्री थी। हाई स्कूल तक इनकी शिक्षा स्थानीय सामाजिक संघर्षों के मध्य ‘लन्दन मिशन स्कूल’ (वर्तमान एडम्स गर्ल्स इण्टर कॉलेज) में हुई। 1934 में इन्होंने ‘बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय’ से स्नातिका की उपाधि प्राप्त की। सन् 1936 में इन्होंने डी. टी. प्रशिक्षण कोर्स और सन् 1958 में मनोविज्ञान विषय से स्नातकोत्तर की उपाधि ग्रहण की। उस समय पर्वतीय अंचल में सामाजिक भेद-भाव और जात-पात की कठोर व्यवस्था के विरुद्ध रूढ़िवादी विचारधारा को तोड़कर शोषित वर्ग की एक महिला का उच्च शिक्षा ग्रहण करना एक क्रान्तिकारी कदम था। अपनी इस शैक्षिक चेतना के कारण लक्ष्मी देवी को बहुत से सामाजिक विरोधों को सहन करना पड़ा क्योंकि यह वह समय था जब समाज में दलित वर्ग का शिक्षा प्राप्त करना टेढ़ी खीर था। ऐसे समय में एक स्त्री वह भी दलित, उसके लिए सामाजिक सीमाओं को पार करना अत्यधिक दुष्कर कार्य था। तत्कालीन सन्दर्भों में इतने सामाजिक अन्र्तिवरोधों के बीच इस ऊँचाई को प्राप्त करने की मात्र कल्पना ही की जा सकती थी, किन्तु लगन, उत्साह और कर्मठता से ओत-प्रोत लक्ष्मी देवी रुकी नहीं, अपितु समस्त स्त्री जाति के लिए नये सन्दर्भ और प्रतिमान स्थापित किये।

सन् 1939 में लक्ष्मी देवी जी के प्रगतिशील विचारों एवं सामाजिक वैमनस्य के प्रति कठोर विरोध तथा शिक्षा व महिला अधिकारों के प्रति संघर्षरत सक्रियता जैसे गुणों से युक्त प्रभावशाली व्यक्तित्व से प्रभावित होकर तत्कालीन राष्ट्रीय पत्र ‘लीडर’ के सम्पादक-प्रकाशक एवं मुद्रक गुजराती ब्राह्मण स्व. मदन मोहन नागर के सुपुत्र मेहता महिपतिराम नागर ने इनसे विवाह किया। उस समय यह अन्तर्जातीय विवाह स्थानीय रूढ़िवादी समाज पर दूसरा कटु आघात था।

हिन्दी सम्पादकों की पीढ़ी में लक्ष्मी देवी ‘समता’ (1935) के सम्पादन के साथ ही प्रथम शोषित-दलित समाज की सम्पादिका के रूप में गौरवान्वित हैं। पहाड़ के ‘अम्बेडकर’ माने जाने वाले मुंशी हरिप्रसाद टम्टा द्वारा अल्मोड़ा से प्रकाशित होने वाला ‘समता’ महात्मा गाँधी के ‘हिन्दी हरिजन’ के बाद अधिक समय तक प्रकाशित होने वाला दूसरा पत्र माना जाता है। 1934 से प्रकाशित इस पत्र का रजत जयन्ती विशेषांक 1935 में लक्ष्मी देवी जी के ही सम्पादन कौशल का परिणाम था, जिसे आज भी याद किया जाता है।

अपने सम्पादन काल में उन्होंने स्त्री शिक्षा, स्वास्थ्य, कला की उन्नति एवं सर्वहारा वर्ग की समस्याओं और उनके समाधानों से जुड़े अनेक ज्वलन्त लेख लिखे। समता का रजत जयन्ती अंक सम्पादिका कु. लक्ष्मी देवी टम्टा बी.ए. ने 6 मई 1935, वर्ष 1, संख्या- 44 के रूप में निकाला। इस समय सम्पूर्ण भारत में सम्राट जार्ज पंचम के शासन के 25 वर्ष पूर्ण होने पर जगह-जगह जलसे एवं समारोहों का आयोजन हो रहा था। किन्तु मुख्य उद्देश्य सरकार का ध्यान दलितों-शोषितों की समस्या की ओर दिलाकर उसका निराकरण करना था।
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कु. लक्ष्मी देवी टम्टा ने रजत जयन्ती अंक के पृष्ठ 78 में सम्पादकीय में ब्रिटिश सुधारों द्वारा दलितों को होने वाले लाभों का उल्लेख किया। अपने सम्पादकीय में ‘नवीन सुधारों की योजना’ शीर्षक के अन्तर्गत वे लिखती हैं- ” मांटेग्यू चेम्सफोर्ड सुधारों के बाद अब ब्रिटिश पार्लियामेंट और ज्यादा सुधारों के साथ भारत के लिये नया विधान बनाने में लगी हुई है। इस समय देश में जैसा वातावरण है, उससे तो यही जान पड़ता है कि देश का यह काम निश्चय ही सुधारों में बाधक बनेगा। मेरा कहने का तात्पर्य यह है कि नये विधान को कार्यरूप में सफल बनाने में ही देश की भलाई है….. । मेरा यह कहना है कि ब्रिटिश पार्लियामेंट आज ही देश में केन्द्रीय उत्तरदायित्व पूर्ण शासन सौंप दे तो कम से कम यह कहना असत्य नहीं होगा कि भारत के लोग अधिकारों के लिए अपना सिर फोड़ लेंगे। उस दशा में भारतवर्ष बीसवीं सदी का सुरक्षित देश न होकर तीन सदी पहले का देश होगा। “

वे आगे कहती हैं- “गोलमेज कांफ्रेंसों के अवसर पर देश के प्रतिनिधियों ने एक मत न होकर संसार को यह दिखा दिया है कि भारतीय आजादी का प्रश्न गौण है बल्कि उससे भी ज्वलंत समस्याओं का समाधान पहले जरूरी है……।”

अंक के पृष्ठ 19 में ‘ब्रिटिश शासन का अध्ययन’ शीर्षक में भी शिल्पकारों (दलितों) की प्राचीन एवं वर्तमान स्थिति को रेखांकित करने के साथ ही ब्रिटिश शासन से पूर्व भारत की राजनैतिक, धार्मिक और सामाजिक स्थिति से अवगत कराने का प्रयास किया गया है- “जिस समय भारत की भूमि पर अंग्रेजों ने पदार्पण किया था, उस समय की अवस्था और आज की अवस्था में जमीन-आसमान का अन्तर है। इतिहास के पन्ने पलटने से भली प्रकार मालूम हो सकता है कि अंग्रेजों का नियमपूर्वक शासन होने से पूर्व भारत में इतनी घरेलू लड़ाइयाँ हो रही थीं कि कोई भी शान्ति की इच्छा रखने वाला व्यक्ति निश्चिन्ततापूर्वक जीवन नहीं बिता सकता था। देश के प्राय: सभी भागों में साम्राज्य पिपासा को शान्त करने के लिए छोटे-बड़े राजा-महाराजा दिन-रात लड़ाइयों में लगे थे। कहने का तात्पर्य यह है कि भारत की उस समय की ऊबड़-खाबड़ दशा ने देश के भविष्य को नष्टप्राय: कर डाला था….. ।

सच तो यह है कि अंग्रेजी राज्य की नींव जमने से पूर्व भारत की राजनीति का दीवाला निकल चुका था और यदि अंग्रेज उस समय इस देश में न आते तो सम्भवत: अब तक भी देश  घरेलू झगड़ों (सिविलवार) में ही पड़ा रहता। भारत में आज शिक्षा, राजनीति इत्यादि की जो भी श्री वृद्धि है उसका श्रेय अंग्रेजों को देना ही होगा…।”

इस प्रकार ‘समता’ के ‘रजत जयन्ती’ अंक में सम्पादिका के रूप में उन्होंने न केवल शोषित समाज के सामाजिक, र्आिथक एवं सांस्कृतिक पक्षों को उभारते हुए, उन्हें नई दिशा की ओर प्रेरित करते हुए, उनमें चेतना का प्रसार किया बल्कि सरकार से इनके समाधान की दिशा में कारगर कदम उठाने की उम्मीद भी की है। इतना ही नहीं, इसमें सम्राट जार्ज पंचम के सिंहासनारोहण के पत्र भी छापे गये। सामाजिक समस्याओं के ऊपर ही अपने पत्र को केन्द्रित नहीं किया, बल्कि इसमें कोर्ट के नोटिस, कविताएँ, विज्ञापन, बाल-साहित्य आदि भी प्रकाशित किये।

दलित पत्रकारिता के क्षेत्र में अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज करने वाली, कुशाग्र बुद्धि एवं अत्यन्त मेधावी लक्ष्मी देवी जी ने यह सम्मान उस समय प्राप्त किया जबकि न केवल महिला अपितु दलित शिक्षा के क्षेत्र में भी उत्तराखण्ड नितान्त पिछड़ा था। शिल्पकार समाज में प्रकाश स्तम्भ के रूप में स्थापित यह ज्योति फरवरी 1982 को 70 वर्ष की आयु में अनन्त प्रकाश पुंज में समाहित हो गई। परन्तु वे आज भी समाचार पत्रों के सुनहरे इतिहास में चिर स्मरणीय हैं।

(स्रोत: समता, रजत जयन्ती अंक, 6 मई 1935 एवं डॉ. विनोद कुमार आर्य का अ. शो. प्रबन्ध)
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