उत्तरा का कहना है

वर्षा ऋतु की शुरूआत के साथ ही नदियों के बढ़ते जल स्तर और बादल फटने की घटनाओं के चलते हए समय उत्तराखण्ड बुरी तरह प्रभावित है। उत्तरकाशी व चमोली जिले के एक बड़े भाग में लोग प्रकृति के इस प्रकोप से त्राहि-त्राहि कर उठे हैं। ऐसे समय में हमारे मंत्री लंदन में ओलम्पिक खेल देखने को प्राथमिकता दे रहे हैं कि जब उन्हें अपने क्षेत्र के लोगों के बीच होना चाहिए था। मुख्यमंत्री हवाई सर्वेक्षण करने के बाद आपदाग्रस्त लोगों को भजन-कीर्तन गाकर संकट से बचने की सलाह दे रहे हैं। बकौल मुख्यमंत्री, सरकार जो कर सकती है वह तो वह कर ही रही है और करती रहेगी।
सरकार का पूरा ध्यान केन्द्र से मिलने वाली सहायता राशि पर है और वह बड़ी राशि प्राप्त करने के लिये पुरजोर कोशिश कर रही है। आपदा पीड़ितों को राहत पहुँचाने से बड़ी चिन्ता अफसरों और सरकार को इस बात की है। सरकार का दृष्टिकोण व मानसिकता तो इस बात से उजागर होती ही है किन्तु चिन्ता की बात यह है कि सरकार और राजनेता अब भी इस बात पर ध्यान देने को तैयार नहीं हैं कि यह मात्र दैवी आपदा है या इसके पीछे कुछ और प्रमुख कारण हैं। मनुष्य को नहीं वरन पूँजी को ही प्रधान शक्ति मानने वाली दुनिया की बड़ी पूँजीवादी ताकतों ने पूँजी के विकास को और इसके जरिये साधनों व सुविधाओं के विकास को ही सर्वोपरि मानकर आज की दुनिया में पूँजी को प्रमुख व मनुष्य को गौण बना दिया है। पैसे की चाहत में पूँजीवादी ताकतों ने सरकारों व राजनेताओं को भी विकास के नाम पर पैसों की चकाचौंध से भरमा दिया है। इनके पास ज्यादा से ज्यादा पैंसे पहुँचे और वह भी जल्दी-जल्दी पहुँचें, इस कोशिश में इन्होंने प्राकृतिक सम्पदाओं-संसाधनों और उत्पादन पर अपना कब्जा व हिस्सेदारी को बढ़ाने की साजिश रची है। बड़ी-बड़ी परियोजनाओं के जरिए ही तेजी से विकास हो सकता है, ऐसा सोच इसी साजिश का अंग है। इसी के तहत उत्तराखण्ड में बड़ी परियोजनाओं से ही पहाड़ का विकास हो सकेगा और इन बड़ी परियोजनाओं के जरिए आम लोगों को रोजगार के अवसर सुलभ हो सकेंगे, यह विचार बढ़ाने का काम भी तेजी पर है। श्रीनगर परियोजना शुरू कराने के नाम पर जो हाल में देखने को मिला वह इसी का परिणाम है। सच्चाई तो यह है कि टिहरी विद्युत परियोजना ने स्थानीय लोगों को रोजगार तो नहीं, हाँ विस्थापन का दर्द अवश्य दिया है। आज भी बड़ी जल विद्युत परियोजनाओं (प्रस्तावित व जिन में काम चल रहा है) से उत्तराखण्ड की 20/22 लाख की जनसंख्या व हजारों गाँव बुरी तरह प्रभावित होंगे। इतना ही नहीं, दैवी आपदाओं का लगातार बढ़ते जाना जो आज हम देख रहे हैं यह सब इसी सोच के तहत लिए जा रहे सरकारी निर्णयों व इस कथित विकास के नाम पर किये जा रहे विनाशकारी कामों का ही नतीजा है। दैवी आपदा के बढ़ते क्षेत्र पर यदि हम एक नजर डालें तो यह स्पष्ट हो जायेगा कि उत्तराखण्ड में यह क्षेत्र मुख्यत: वही है जहाँ सड़कों या अन्य विकास कार्यों के नाम पर यहाँ के शिशु अवस्था वाले संवेदनशील पहाड़ों पर बड़ी-बड़ी परियोजनाओं को लाया गया। सड़कों, सुरंगों, बाँधों के लिए ब्लास्टिंग की गयी और जगह-जगह पर खुदान का कार्य अनियंत्रित तरीके से किया गया। यहाँ के जल-स्रोतों व जंगलों से छेड़छाड़ की गई। भूगर्भिक हलचल, बाढ़, भूस्खलन से सम्बन्धित तमाम अध्ययनों व पुराने अनुभवों पर ध्यान दिये बिना जिस तरह से हिमालयी राज्यों में बाँधों का निर्माण विद्युत उत्पादन के लिये किया जा रहा है उसी का परिणाम है कि-
बाँध परियोजनाओं के चलते गाँव के जलस्रोत सूख रहे हैं।
स्थानीय लोगों को घास, लकड़ी, पानी उपलब्ध कराने वाले पंचायत वनों पर भी परियोजना चलाने वाली कम्पनियों का कब्जा
ता जा रहा है।
कृषि व चारागाहों की भूमि अधिग्रहीत की जा रही है।
बाँध प्रभावित लोग अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ने को मजबूर हैं।
इस तरह की परियोजनाओं से स्थानीय जलवायु में परिवर्तन आ रहा है।
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यही कारण है कि बड़ी परियोजनाओं वाले क्षेत्रों में बादल फटने की घटनाएँ बढ़ रही है। लगातार भीषण वर्षा से भूस्खलन की घटनाएँ व प्राकृतिक आपदाएँ बढ़ रही हैं। यदि हम बड़ी प्रमुख परियोजनाओं पर नजर डालें तो हम देखते हैं कि- विष्णु प्रयाग जल विद्युत परियोजना (420 मेगावाट) के चलते चाई गाँव तो धराशाई हुआ ही, आस-पास के लगभग 30-32 गाँव भी उससे प्रभावित हैं, जिनका विस्थापना होना है। मनेरी भाली परियोजना फेज-1 (90 मेगावाट) फेज-2 (30 मेगावाट) के पास बसे तीन दर्जन गाँव बिना विस्थापन के आज भी संकट में पडे़ हैं। गाँव के प्राय: सभी जल-स्रोत सूख गये हैं या सूखते जा रहे हैं। भागीरथी भिलंगना, अलखनन्दा व सरयू आदि नदियों पर निर्माणाधीन लोहारीनागपाला (600 मेगावाट) पाला मनेरी (480 मेगावाट) भिलंगना तृतीय (24 मेगावाट) श्रीनगर जल विद्युत परियोजना (320 मेगावाट) आदि जल विद्युत परियोजनाओं के सुरंग निर्माण के लिए किये गये विस्फोटों से सैकड़ों घरों में दरारें आ गयी हैं। गाँव में जल-स्रोत सूख गये हैं। गाँव में भूस्खलन व भू संरक्षण की समस्या पैदा हो गयी है। यहाँ के जंगल भी निर्माणाधीन कम्पनियों के अधीन हो गये हैं। चारागाहों व अन्य भूमि पर कम्पनियों की आवासीय कालोनियाँ बना दी गयी हैं। परियोजना से पहले पर्यावरण व सामाजिक प्रभाव के आकलन हेतु जन सुनवाइयाँ भी नहीं हुई हैं। बाँध से प्रभावित हजारों लोगों का यह अनुभव रहा है कि बाँध निर्माण की प्रक्रिया खेत, चारागाह, जल-स्रोतों व आवासों को बुरी तरह क्षतिग्रस्त करती है। उनकी तरह-तरह की समस्याएँ हैं जिन पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता है। सुरंग के निर्माण से अनेक स्थानों पर नदी का अस्तित्व खतरे में है। यदि भूकम्प आ जाये तो नुकसान कई गुना बढ़ेगा और लोग बुरी तरह से प्रभावित होंगे। जितनी तेजी से इन बड़ी-बड़ी जल विद्युत परियोजनाओं को बढ़ावा दिया जाता है उसका दुष्परिणाम पूरे पर्वतीय भू-भाग गंगोत्री से लेकर केदारनाथ, बद्रीनाथ घाटी तक जनता झेल रही है। सोचने की बात है कि जब पहाड़ में जन ही नहीं रहेगा तो फिर इन परियोजनाओं से व ऐसे विकास से हमें क्या मिलेगा। इन बड़ी परियोजनाओं के जरिए विकास के नाम पर पहाड़ को जो जल-विहीन, वन-विहीन व जन-विहीन करने की साजिश चल रही है, उससे अब जनता को सावधान होना ही होगा। क्योंकि यदि विकास के लिए ऐसी बड़ी परियोजनाएँ लायेंगे तो यह सब होना ही है क्योंकि बड़े पूँजीपति व बड़ी कम्पनियों के मालिक व बड़े ठेकेदार कोई आम लोगों के हितों के लिए प्रतिबद्ध समाज-सेवी तो है नहीं। वे तो प्रत्येक कार्य पैसों के लिए ही करते हैं। सरकारों का दृष्टिकोण भी समाज या मानव हित नहीं, वरन अधिक से अधिक पैसा कमाना ही रह गया है। (इसलिए वह शराब के व्यसन से लोगों को दूर करने के लिए नहीं वरन शराब की बिक्री को ज्यादा से ज्यादा बढ़ाने के लिए ही कार्य करती है।)
जो कार्य लोगों द्वारा सरकार के तकनीकी व आर्थिक सहयोग से स्वयं किया जाये, वही उनकी कार्यक्षमता व योग्यता का विकास करता है और ऐसे छोटे-छोटे कार्य व छोटी परियोजनाओं के जरिए ही वह स्वावलम्बी बनता है व आर्थिक विकास के पथ पर भी आगे बढ़ता है। बड़ी-बड़ी परियोजनाओं के जरिए पूँजीवादी सोच के साथ जो विकास होता है उसकी सबसे बुरी मार महिलाओं को भुगतनी पड़ती है। शराब खोरी, नशाखोरी, देह व्यापार, व्यभिचार, अय्याशी ऐसे पूँजीवादी विकास की अनिवार्य देन हैं। इसलिए हमारा मानना है कि उत्तराखण्ड की जनता को विशेषकर महिला शक्ति को इस बारे में न केवल गम्भीरता से विचार करना चाहिए वरन सरकारों को बाध्य भी करना चाहिए कि वह बड़ी परियोजनाओं की जगह छोटी-छोटी परियोजनाओं को ही यहाँ पर लगाये व विकसित करें जो स्थानीय जनता के स्वामित्व में चलें, जिससे यहाँ के गाँवों व वहाँ रहने वाले लोगों का जीवन व उनके जंगल, पानी, जमीन सुरक्षित रह सकें व उनकी आर्थिक समृद्धि भी हो।
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