आनन्द के वे क्षण इण्डो न्यूजीलैण्ड रक्त वन अभियान-1979
चन्द्रप्रभा ऐतवाल
यह इण्डिया-न्यूजीलैण्ड का मिला-जुला अभियान था। इसमें भारत तथा न्यूजीलैण्ड के आठ-आठ सदस्य थे। न्यूजीलैण्ड की तीन महिलाएँ व पाँच पुरुष तथा भारतीय दल में मैं और बिजू एवं अन्य सभी पुरुष थे। इस अभियान के लिए 13 अगस्त को दिल्ली में शामिल होना था, किन्तु उसी वर्ष मैंने अर्थशास्त्र से एम.ए. की परीक्षा दी थी, जिसकी मौखिक परीक्षा नहीं हुई थी। जिस कारण से मैं समय पर नहीं पहुँच पायी। किसी तरह कालेज में छुट्टी की अर्जी देकर 15 अगस्त को दिल्ली में शामिल होने का विचार किया।
15 अगस्त की सुबह प्रभात फेरी के बाद मुझे पता चला कि उसी समय नेहरू पर्वतारोहण संस्थान की गाड़ी देहरादून जा रही थी, मैं उसमें बैठ गयी। मेरे पास कपड़े बदलने का भी समय नहीं था। शाम को ट्रेन द्वारा दिल्ली पहुँची। किसी तरह अभियान के साथियों को ढूँढ़ते हुए राष्ट्रपति भवन पहुँची लेकिन मुझे पता ही नहीं था कि वहाँ जाने के लिए पास होना जरूरी है। मैं भी अन्य लोगों के साथ ही हो ली। जब अन्तिम द्वार तक पहुँची तो द्वार पर तैनात सिपाही ने मुझसे पास दिखाने को कहा, परन्तु मेरे पास तो पास था ही नहीं। सिपाही ने तरस खाकर मुझे छोड़ दिया और मैं सही स्थान पर पहुँच गयी।
मुझे अब 18फ ब्लॉक जाना था, जहाँ पास के बिना जा नहीं सकते थे और जहाँ पास बनता है वहाँ अभी खुला नहीं था। एक छोटे से ढाबे में चाय पीने बैठ गयी, क्योंकि भूख भी लग रही थी। इतने में एक, दो बिगड़ैल रवैये के लड़के मेरे नजदीक आकर बैठ गये और मैं जितना खिसकने की कोशिश करूँ वे उतना ही पास आने लगे। खैर, चाय और नाश्ता खत्म करके पास बनाने चली गई। इतने में श्री गुरूदयाल सर (गुरू) मिल गये। मैंने राहत की साँस ली और मैंने उनको अपने वहाँ होने का कारण बताया। उन्होंने मेरा पास भी अपने साथ ही ले लिया, क्योंकि उन्हें भी 18फ ब्लॉक ही जाना था। 18फ ब्लॉक में सभी सदस्य अपने कार्य में व्यस्त थे, परन्तु मैं अभी अभियान में सम्मिलित हूँ या नहीं, कुछ पता नहीं था। अत: लीडर कर्नल सन्धू का इन्तजार करती रही।
शाम 4 बजे लीडर साहब आये। मेरी हालत काफी खराब थी, क्योंकि कल से जो कपड़े पहने थे, वही अभी तक पहने हुए थी और कई जगहों पर दाग-धब्बे पड़ गये थे। मैंने लीडर को अपनी समस्या बताई कि मेरी 26 अगस्त को मौखिक परीक्षा श्रीनगर गढ़वाल में है। इस कारण अभी अभियान में शामिल होना मुश्किल है। लीडर राजी हो गये उनकी अंग्रेजी बहुत अच्छी थी, लग रहा था, जैसे कोई विदेशी बोल रहा हो।
16 तथा 17 अगस्त को मैंने अपने पूरे समूह के साथ कार्य किया। 17 अगस्त को अभियान के सदस्यों को रेलवे स्टेशन छोड़ने गयी। उसके बाद उस दिन मुझे दिल्ली ही रुकना पड़ा, क्योंकि पहाड़ की बसें छूट चुकी थी। आज की रात भयंकर रात थी। बस स्टेशन से PBG मैस जहाँ हम पहले ठहरे थे, वहाँ गयी परन्तु वह बन्द हो चुका था। इस कारण काफी परेशानी उठानी पड़ी।
उसके बाद मैं अपनी परीक्षा खत्म करके 29 अगस्त को आधार शिविर फूलों की घाटी पहुँची। मेरे वहाँ पहुँचने तक अन्तिम शिविर भी स्थापित हो चुका था और सभी भारतीय सदस्य पहाड़ में थे। केवल न्यूजीलैण्ड के तीन सदस्य आधार शिविर में प्रथम शिविर से वापस आकर बैठे थे। न्यूजीलैण्ड के सदस्य मुझे आगे जाने की अनुमति नहीं दे रहे थे। इस कारण 30 अगस्त को आधार शिविर में रही। 31 अगस्त को किसी तरह उनको राजी करके प्रथम शिविर तक सामान पहुँचाने गयी, फिर वापस बेस ही आयी। आज मुझे अच्छा लग रहा था।
प्रथम शिविर चट्टान के किनारे सुरक्षित जगह पर था और पानी भी पास ही था। आधार शिविर आते ही वे पूछने लगे कि क्या सिर दर्द हो रहा है? मैने कहा नहीं तो। वे एक दूसरे का मुँह देखने लगे। अब वे लोग मुझे रोक नहीं पाये। उनको कुछ-कुछ शक भी हो रहा था कि कहीं यह झूठ तो नहीं बोल रही है। पहली सितम्बर को मैं अपना पूरा सामान लेकर प्रथम शिविर में रहने के लिये गयी। प्रथम शिविर में लीडर और जॉन द्वितीय शिविर जाने की तैयारी कर रहे थे। प्रथम शिविर में बिजू और डोडियाल थे। बिजू भी अभी तक प्रथम शिविर में ही थी। 2 सितम्बर को तीनों ही प्रथम शिविर से द्वितीय शिविर के लिये सामान पहुँचाने गये। जैसे ही द्वितीय शिविर पहुँचने वाले थे, बर्फ पड़नी शुरू हो गयी। सभी सदस्य अपने-अपने टेन्ट में थे। हम लोग किसी तरह लीडर के टेन्ट तक पहुँचे।
हमारे समूह के एक सदस्य लखा सिंह को मैने पहली बार देखा था। लखा सिंह ने उठकर कुकर में हमारे लिये चाय तैयार की। सेना में रैंक वाली बात मुझे बिल्कुल पसन्द नहीं है और खासकर जो पहाड़ों पर भी होता है। जबकि वहाँ सभी बराबर होने चाहिए, परन्तु ऐसा नहीं होता। चाय पीकर 2-3 घण्टे तक वहाँ रहे और न्यूजीलैण्ड के अन्य सदस्यों से भी भेंट की।
Those moments of joy Indo New Zealand Blood Forest Campaign-1979
लीडर ने कहा कि कल रहने को यहीं आ जाओ और यहाँ से कच्चा माँस ले जाकर कल पकाकर लाना। इस प्रकार खुश होकर हम वापस सही समय पर प्रथम शिविर पहुँचे। उस दिन आधार शिविर वाले न्यूजीलैण्ड के तीनों सदस्य प्रथम शिविर आ गये थे। रात खाना खाकर आराम किया। सुबह जल्दी उठकर मीट पकाया, नाश्ता तैयार किया और नाश्ता करने के बाद सभी ने अपना-अपना सामान पैक किया। पके मीट को एक पॉलीथीन में डाला और दूसरे पॉलीथीन में खिचड़ी डाली। इस प्रकार सभी सदस्यों को आज द्वितीय शिविर जाना था।
न्यूजीलैण्ड वाले हमसे पहले ही चल दिये हम तीनों एक साथ ही चल रहे थे। मैं आगे तथा बिजू सबसे पीछे चल रही थी। अभी प्रथम शिविर से लगभग दो-तीन किमी- ही चले थे कि काली बर्फ गिरनी शुरू हो गयी। उसमें अचानक बिजू गिर गयी। पूरा क्षेत्र काली बर्फ का होने के कारण लगभग 50 फीट तक नीचे जाकर रुकी। हम दोनों ने अपने रूक्सेक को फेंका और बिजू की ओर भागे। हमने सोच लिया था कि वह खत्म हो गयी होगी, क्योंकि पूरी तेज गति से गोल-मटोल होकर गिरी थी और पैर में क्रेम्पौन भी पहने थी और हाथ में आईस एक्स भी था। जैसे ही उसके पास पहुँचे उसके कान से खून बह रहा था और उसे कुछ होश नहीं था। हमने सोचा कि उसका ब्रेन हेमरेज हो गया है उसे उठाकर रूक्सेक के ऊपर लिटाया। हमने बिजू के हाथ पाँव देखे तो सब ठीक था, किन्तु कोलर बौन के ऊपर आईस एक्स से काफी गहरा चोट लगा था। हमने उसे मुँह से साँस दी और बिजू-बिजू कहने पर केवल हूँ-हूँ ही बोलती थी।
हम दोनो की ही हालत एक जैसी थी कि कोई बिजू को अपनी पीठ पर उठाकर उस चढ़ाई को पार नहीं कर सकते थे। अत: दोनों ने यह तय किया कि जितनी जल्दी हो सके, उसे प्रथम शिविर तक पहुँचाएँ, क्योंकि अभी गर्म-गर्म घाव है, उसे पकड़-पकड़ कर ले जा सकते हैं। मैने उसका रूक्सेक उठाया, फिर उसकी दोनों बाँह पकड़कर धीरे-धीरे चलाकर लाये।
जहाँ वह गिरी थी, उसके बीच में क्रेवास भी था और एक जगह तो क्रेबास के ऊपर पानी भी था, जिसको पार करके आगे निकल गयी थी, किन्तु उसका आईस एक्स उस पानी में तैर रहा था। हमने उसे निकालने की कोशिश नहीं की, बल्कि उसे किसी तरह प्रथम शिविर तक पहुँचाने की सोचते हुए आगे बढ़ते गये। चढ़ाई खत्म होने के बाद अब तिर्छा लाना था। जहाँ से वह गिरी थी, उस स्थान पर हमारे हाथ-पैर भी काँपने लग गये थे, फिर भी किसी तरह से उस स्थान को पार किया, फिर डोडियाल उसे धीरे-धीरे प्रथम शिविर की ओर ले जा रहा था। मैने तीनों रूक्सेक को बारी-बारी से उठाकर प्रथम शिविर तक पहुँचाया, फिर उसे लेने वापस आयी। चढ़ाई में मेरी हालत काफी खराब हो रही थी, क्योंकि बहुत तेज दौड़कर गयी थी। इस कारण साँस फूल रहा था और मैं हाँफ रही थी।
बिजू के रूक्सेक को खोलकर प्रथम शिविर के टेन्ट में बिस्तर तैयार किया और उसे आराम से लिटा दिया। फिर उसके घाव के आस-पास के खून को साफ करके उसे ए.पी.सी. की गोली खिलाई। घाव में दवा लगाकर उसे सुला दिया। अब बिजू नींद में बहुत बड़बड़ाने लगती थी। कभी कहती थी कि ‘‘क्या मैं गिरी ?’’, कभी कहती थी ”चलो-चलो, चलते हैं अब।”
मुझे उसकी बड़बड़ाहट देखकर बहुत ज्यादा घबराहट होने लगी कि पता नहीं अब क्या होता है? शाम को तीनों न्यूजीलैण्ड वाले द्वितीय शिविर गये थे, वापस आये और उन लोगों ने एकदम ए.पी.सी. की तीन गोली एक साथ ही खिला दी। मुझे लगा कि हम लोग मेडिकल में उनसे कितने पीछे हैं। उन लोगों ने एकदम टोनी और डोडियाल को आधार शिविर भेज दिया। वहाँ दूसरे दिन कुली को लेकर आने के लिये कहा और दोनों उसी समय लीडर व डॉक्टर को खबर करने द्वितीय शिविर चले गये। क्योंकि डॉक्टर व लीडर दोनों ही द्वितीय शिविर में थे। उसी दिन लीडर के हाथ में पत्थर लगने से हाथ फैक्चर हो गया था।
दूसरे दिन सुबह टोनी कुलियों को लेकर आया परन्तु अधिक दौड़-धूप के कारण डोडियाल की तबियत खराब हो गयी थी। अत: आधार शिविर से वापस नहीं आया। लीडर और डॉक्टर भी सुबह द्वितीय शिविर से प्रथम शिविर पहुँच गये थे। वहाँ पर सभी के लिये नाश्ता तैयार कर रखा था। अत: सभी ने ठीक से नाश्ता किया, परन्तु लीडर व डॉक्टर दोनों ही कुछ उखड़े से लग रहे थे। लीडर का हाथ पट्टियों से बँधा था, लेकिन उन लोगों ने आकर मरीज से बातें भी नहीं की। मुझे उन लोगों का व्यवहार अजीब सा लग रहा था। रात बिजू सो गयी थी पर जैसे ही दर्द होता था चिल्लाने लगती थी। उसकी चीख सुनकर हमें भी बहुत दु:ख होता था, पर क्या करें ? उसकी कुछ भी मदद नहीं कर पाते थे।
लीडर और डॉक्टर के पहुँचने से पहले ही उसके कन्धे को बैण्डेड लगा दिया था और उसे किसी प्रकार नीचे कुली के ऊपर जाने को राजी कर लिया था। पहले तो कुली के ऊपर जाने को तैयार ही नहीं थी। मैं भी उसी के साथ वापस आने को तैयार थी, परन्तु बिजू मुझे वापस आने नहीं दे रही थी। कहने लगी कि न्यूजीलैण्ड वाले समझेंगे कि भारतीय लड़कियाँ कमजोर होती हैं और अपनी कसम दिलाने लगी कि यदि तुम चढ़ाई करने नहीं जाओगी तो मैं प्रथम शिविर से नीचे उतरती ही नहीं हूँ। तुम्हें किसी भी प्रकार से वापस आधार शिविर नहीं जाना है, फिर उसको समझाकर उसे राजी किया कि मैं द्वितीय शिविर जाऊंगी। तब जाकर वह कुली की पीठ पर आधार शिविर जाने को राजी हुई।
Those moments of joy Indo New Zealand Blood Forest Campaign-1979
इस प्रकार सारा दिन उसकी तैयारी कराने में लगी रही और उनको किसी प्रकार आधार शिविर भेज पायी। साथ में डॉक्टर व लीडर भी आधार शिविर गये। अब मैं द्वितीय शिविर की तैयारी करने लगी। पर मन में एक प्रकार का डर था कि उस जगह को कैसे पार किया जाय? मैंने टोनी से कहा कृपया मुझे उस जगह तक पार करा देना, तो कहने लगा ठीक है मैं भी तुम्हारे साथ ही द्वितीय शिविर चलूँगा। मैं निडर होकर चल पड़ी, क्योंकि टोनी को पीछे से आना था। मेरे मन से डर दूर हो गया था और मैं चलती चली गयी और बेझिझक उस स्थान को भी पार कर गई। क्योंकि मनोवैज्ञानिक शक्ति मिल गयी थी। टोनी का कहीं अता-पता नहीं था, पर मैं आगे बढ़ती चली गयी, क्योंकि टोनी ने कहा मैं भी आ रहा हूँ, इतना कहने से मेरे मन का सारा डर दूर भाग गया था।
खैर किसी प्रकार अकेले ही द्वितीय शिविर की ओर बढ़ती चली गयी। रास्ते में खूब बर्फ गिरनी शुरू हो गयी और रास्ते का कहीं पता ही नहीं चल रहा था, पर रुकने का कहीं नाम नहीं लिया, बस चलती चली गयी। काफी दूर चलने के बाद एक जगह मुझे रुकना ही पड़ गया, क्योंकि मैं बिल्कुल आईस फाल में पहुँच गयी थी और वहाँ से आगे बढ़ पाना मुश्किल था, जिस कारण मैं काफी देर तक खड़ी रही। ऊपर से बर्फ पड़ रही थी और चारों ओर कोहरा छाया था। घण्टे भर में मेरी हालत काफी खराब हो रही थी और अब मैं आवाज लगाने लगी। कोहरा भी कुछ छटने लगा था। मेरी आवाज सुनकर टोनी कहने लगा राइट की ओर आओ। क्योंकि टोनी लोग उस क्षेत्र में दो-तीन बार चल चुके थे और मैं इससे पहले केवल एक ही बार गयी थी। इस कारण रास्ता व द्वितीय शिविर की सही दिशा का ज्ञान नहीं कर पायी। ऊपर से लगातार बर्फ पड़ रही थी।
किसी तरह भटकते-भटकते द्वितीय शिविर पहुँची। वहाँ गे्रम, जोजो, मेंगी व जोन थे, पर सभी अपने-अपने टेन्ट में थे। आज लखा सिंह और रे चोटी फतह के लिये गये थे। कोई भी भारतीय सदस्य इस द्वितीय शिविर में नहीं। मैं भी एक टेन्ट में गयी और गीले कपड़े बदलने के बाद सो गयी। रात का खाना खाने के बाद सभी अपने-अपने टेन्ट में चले गये थे। रात लगभग 11 बजे रे और लखा चोटी फतह करके वापस आये। उनको कॉफी पिलाई और उनके सारे पर्वतारोहण के सामान निकालने के बाद टेन्ट में आये। उस समय मौसम साफ था। लखा को ठण्ड बहुत लग रही थी, पर वह बता नहीं पा रहा था। अत: रात उसी तरह काट दी।
सुबह उठकर कॉफी बनाने गयी लेकिन जब उसे कॉफी देने लगी तो उसके हाथ की अंगुलियां नीली हो गयी थी। मुझे लगने लगा कि उसके हाथ काफी खराब हो जायेंगे। मैं उसे गर्म पानी में नमक डालकर देती गई और उसे उसमें हाथ डालकर सेंकने को कहती गयी। काश उसने अपने हाथ की हालत रात को ही बता दी होती तो उसकी दशा इतनी खराब नहीं होती। यही हाल उसके पैर की अंगुलियों का भी था।
लखा सिंह को मैने केवल एक बार ही पहले देखा था। इसलिये बेचारा न मुझे जानता था और न मैं उसे जानती थी। जिस कारण वह खुल कर अपनी समस्या को बता नहीं पाया और अन्दर ही अन्दर घुटकर रह गया। गर्म पानी से सेंकने के बाद मैं उसके हाथ-पैर पर बोरोलीन लगाने लगी तो उसमें भी झिझक रहा था। लर्खा ंसह बहुत ही तगड़ा पर्वतारोही था किन्तु जिद्दी बहुत था। सुबह मैने उसे सीधे आधार शिविर जाने को कहा, क्योंकि लीडर व डॉक्टर आधार शिविर में ही थे। पर वह माना ही नहीं और उस दिन वहीं रहा। जौन ने भी उसे बहुत समझाया तब जाकर थोड़ा बहुत उसकी समझ में आया और बड़ी मुश्किल से आधार शिविर जाने को राजी हुआ।
क्रमश:
Those moments of joy Indo New Zealand Blood Forest Campaign-1979
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