अपनी जगह तलाशती/बनाती स्त्री

निर्मला ढैला

एक स्त्री कभी नहीं बनाती बारूद बंदूक
कभी नहीं रंगना चाहती
अपने हथेलियाँ खून से
एक स्त्री जो उपजती है जातिविहीन

युवा कवयित्री रेखा चमोली की कविता ‘उड़ान’ स्त्री के सम्पूर्ण सच को व्यक्त कर देती है जो स्त्री का ही नहीं सम्पूर्ण सृष्टि का सच है। यही स्त्री है जो सामाजिक विधि विधानों और पितृसत्तात्मक व्यवस्था में निरंतर अपनी जगह तलाश रही है और नये-नये आकाश खोज रही है। उसके विविध रूपों में कहीं न कहीं स्त्री अपने इस रूप में छिपी होती है। होती हुई भी न दिखाई देती हुई। प्रस्तुत संकलन की कविताओं में स्त्री का यही चरित्र अपनी स्थिति, आशाओं और आकांक्षाओं के साथ व्यक्त हुआ है।

स्त्री मन की उलझन, कशमकश (पुरुष का स्त्री को कमतर ऑकने, उसे प्रताड़ित करने के बावजूद, अपने जीवन में बनाए रखने के लिए जताए जाने वाले प्रेम के बंधन में बँधने, मुक्त होने की कशमकश) और इस उलझन, इस कशमकश के चलते उसका पेड़ बनकर पुरुष के दंभ को तृप्ति देने के साथ-साथ उसे छाँव, दृढ़ता और बसेरा देना। रेखा चमोली की कविताएँ ‘पेड़ बनी स्त्री’ नारी की नजरअंदाज कर दी गई वह ताकत, वह ऊर्जा है जो पुरुष को संबल तो देती ही है पर कभी अपनी नजरअंदाजी से खीज कर तीखे तेवर भी अपनाती है। कभी वह कहती है ‘उसकी सूरत के बिना दुनिया नहीं चलती’ तो फिर दूसरे ही पल विद्रोही अंदाज में कहती है ‘हर बार मैं ही क्यूँ बदल डालूँ खुद को तुम्हारे लिए, हर बार मैं ही क्यूँ…?’ वह स्त्री का सम्मान चाहती है लेकिन स्त्री को पूज्य बनाकर उसे छला जाय यह उसे कतई स्वीकार नहीं ‘मैं कभी गंगा नहीं बनूंगी, चाहे कोई मुझे कभी न पूजे।’

रेखा चमोली की कविताओं की स्त्री आकाश में घुमड़ते बादलों से बरसती जलधार की तरह कभी तो पुरुष की परती पड़ी धरती को अपने प्यार से सींचती है। ”एक स्त्री जो करना जानती है तो प्रेम, देना जानती है तो अपनापन, बोना जानती है तो जीवन, भरना जानती है तो सूनापन तो कभी क्रान्ति की वाहक बन जाती है।” हमारे हाथों में थमाओ कलमें, पकड़ाओ मशालें हम बनेंगी क्रान्ति की वाहक। स्त्री पुरुष सम्बन्ध से इतर इन कविताओं में एक संवेदनशील कर्मठ व साहसी माँ भी है जो हर पल अपने बच्चों के भविष्य के के लिए चिंतित है। इन कविताओं में कहीं आदमी के अपनी जमीन से उखड़ने का दर्द है ‘तेज बारिश हुई तो निकल आये केंचुए…. क्या जरूरत थी अपनी जमीन छोड़ने की’ तो कहीं अनदेखी खूबसूरती की बेबाक पहचान हैं ‘ये नन्हे नन्हे फूल जब बदल जाएंगे छोटी-छोटी हरी दानियों में तो खुद ही बता देंगे अपना महत्व।’ कहीं-कहीं पर्यावरण के प्रति गहर्री ंचता है।

रेखा जब कहती हैं कि ‘पूरे दिन घिरे रहने के बावजूद बादलों ने कपड़े धोकर झटके भर हैं’ या जब वह गर्भस्थ स्त्री शिशु के साथ एक अदृश्य शिकायत पेटी का जिक्र करती है तो उनकी कल्पना की थाह पाना मुश्किल हो जाता है। रेखा की कविताएँ स्त्री-पुरुष सम्बन्ध की उलझन में भटकती नहीं रहती है उसमें एक समग्रता और बेहतर दुनिया के लिये स्त्री का संघर्ष मुखर होता है। स्त्री का पारम्परिक रूप जो बंधन और शोषण का पोषक है वह कवयित्री को मान्य नहीं है। प्रस्तुत कविता संग्रह लेखनी के माध्यम से बदलाव की दिशा में स्त्री के बढ़ते कदमों का प्रतीक है। पेशे से अध्यापक रेखा चमोली की कविताएँ इससे पूर्व विभिन्न साहित्यिक पत्रिकाओं- वागर्थ, नया ज्ञानोदय, कथन, कृति की ओर, समकालीन सूत्र, उत्तरा महिला पत्रिका, लोकगंगा में छपती रही है। यद्यपि यह रेखा चमोली का पहला कविता संकलन है लेकिन इनकी कविताओं में संवेदना की गहराई परिपक्वता की निशानी है।

पेड़ बनी स्त्री/ रेखा चमोली/ बिनसर पब्र्लिंशग कं., देहरादून, उत्तराखण्ड, 2012, पृष्ठ 108, मूल्य 100 रुपये
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