महिलाओं पर काम का बोझ

रेनू ठाकुर

महिलाओं द्वारा किए जाने वाले ऐसे काम जिनके लिए न उन्हें वेतन मिलता है और न पहचान, ऐसे कमरतोड़ कामों का बोझ कम करने और परिवार के दूसरे सदस्यों में सभी कामों की जिम्मेदारी के समान बंटवारे को लेकर वीमेन इण्डिया के सहयोग से एक्शन एड द्वारा शोध किया जा रहा है, जिसमें उत्तराखंड के कुछ कार्यक्षेत्र भी शामिल हैं।  जिसमें ‘अर्पण’ संस्था ने स्थानीय स्तर पर सहयोग किया है। यहाँ उस अध्ययन का सार-संक्षेप दिया जा रहा है।

एक्शन एड संस्था ने पिछले कई सालों से महिलाओं के नेतृत्व में विश्वास रखते हुए अपने कार्यक्रमों में उनकी भागीदारी को ज्यादा से ज्यादा प्रभावी बनाने की कोशिश की है जिससे महिला किसान और मजदूरों के विषय में एक समझ बनी है तथा 150 के करीब महिला किसान समूह तैयार किए गये हैं। इसी तरह महिला मछुआरों, घरेलू कामगार, ठेले वाली, और अनौपचारिक कर्मियों के भी कई समूह तैयार हुए हैं। इन सबके साथ काम करने पर व्यापक स्तर पर यह स्पष्ट हुआ है कि महिलाओं पर काम का बोझ दुगना तिगुना बढ़ता गया है, जिससे महिलाओं के काम को पूरी तरह समझने की जरूरत है और इस समझ को एक राजनैतिक रूप देने की जरूरत भी है।

स्त्रीवादी अर्थशास्त्रियों ने कहा है कि महिलाओं का अवैतनिक काम दरअसल पूरी अर्थव्यवस्था को लगातार सब्सिडाइज करता है यानी वे काम जिसका न नाम है न दाम है, महिलाओं के पूरे जीवन पर एक तरह के समय-कर (Time Tex) हैं, जिसे चुकाने की उनकी मजबूरी है। अर्थशास्त्री यह भी कहते हैं कि वैश्वीकरण और उदारीकरण के दौर में आवश्यक सेवाओं के निजीकरण की नीतियों की वजह से यह बोझ बहुत बढ़ा है। यह तो सर्वविदित है कि ऐसी कर-नीति जो सामाजिक क्षेत्र पर किए जाने वाले खर्च में कटौती करती है, जैसे शिक्षा, स्वास्थ्य, बच्चों का पोषण और देख रेख, पीने के पानी की व्यवस्था, बिजली और ईंधन की उपलब्धता, वह निश्चित ही महिलाओं पर अवैतनिक काम का बोझ बढ़ाती है। लेकिन यह बोझ कितना भी बढ़ जाए फिर भी अदृश्य रहता है। घरों में काम का बंटवारा पुरुष और स्त्री के बीच सत्ता के सम्बन्ध के अस्तित्व का परिचायक है। इस तरह से घर-परिवार के अन्दर की निजी व्यवस्था और बाहर की बाजार और राज्य की व्यवस्था इस शोषण के जरिये जुड़ती है।

संयुक्त राष्ट्र में वर्ष 2013 में गरीबी और मानवाधिकार पर रिपोर्ट पेश करने के दौरान महिलाओं द्वारा किए जाने वाले उन कामों को, जिनके लिए न कोई वेतन निर्धारित है न पहचान, उन्हें महिलाओं के प्रति असमानता का व्यवहार कहते हुए मानवाधिकार का प्रमुख मुद्दा बताया गया। यह भी माना गया कि परिवार में काम के बंटवारे को लेकर जो असमानता है और महिलाओं पर जो काम का बोझ है वह गरीब तबके की महिलाओं को स्वास्थ्य, शिक्षा और प्रशिक्षण, सामूहिक भागीदारी, श्रम बाजार, उचित वेतन और सामाजिक सुरक्षा जैसे बुनियादी अधिकारों से दूर रखता है। सितम्बर 2015 में स्वीकृत सतत विकास लक्ष्यों (SDGs) में भी पाँचवें लक्ष्य के तहत राष्ट्रीय स्तर पर लैंगिक समानता एवं महिलाओं एवं लड़कियों के सशक्तीकरण के लिए सार्वजनिक सेवाओं, सामाजिक सुरक्षा नीति और घर एवं परिवारों के कामों के समान बंटवारे को बढ़ावा देने पर जोर दिया गया है।

इस अंतर्राष्ट्रीय पहल के माहौल में पनपे सोच को भारत के विभिन्न संदर्भों में देखे जाने की जरूरत है, विशेष रूप से अनौपचारिक, अदृश्य, जोखिम भरे और कठिन श्रम वाले क्षेत्र। वैतनिक कामों में भी दस में से नौ महिलाएं सबसे अनिश्चित और अनौपचारिक रोजगार में संलग्न हैं।
(Workload on Women)
महिलाओं के अवैतिनक कामों की परिभाषा

कार्य को एक उद्देश्यपूर्ण गतिविधि के रूप में परिभाषित किया गया है, जो किसी महत्वपूर्ण वस्तु या सेवा के उत्पादन से संबंधित हो और सैद्धांतिक रूप से किसी अन्य व्यक्ति को सौंपा गया हो। पारंपरिक समष्टि अर्थशास्त्र (Macro Economics) में कुछ अवैतनिक काम शामिल किए जाते हैं और कुछ नहीं। शामिल किए गए कामों को सकल राष्ट्रीय उत्पाद GDP और उन्हें करने वालों को औपचारिक कर्मिकों की संख्या में शामिल किया जाता है। आर्थिक सिद्घांतों के आधार पर आर्थिक गतिविधियों के संकलन को मंजूरी देने वाले यूएन सिस्टम ऑफ नेशनल अकाउंट (SNA, 1993) ने बगैर वेतन के कामों को अवैतनिक कार्यों (Unpaid work) की संज्ञा दी है। समाज के अस्तित्व में बेहद महत्वपूर्ण भूमिका के बावजूद अवैतनिक कार्यों को एसएनए कार्यों के तहत नहीं पहचाना जाता है। बिना वेतन काम और बिना वेतन काम करने वाली, विशेष रूप से महिलाएँ, इस तरह से आधिकारिक सांख्यिकी प्रणाली से गायब हो जाती हैं और परिणामस्वरूप उनका काम और उनकी जी-तोड़ मेहनत राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय विकास नीति में आज तक नजरअंदाज होती रही हैं।
अवैतनिक कार्यों के लैंगिक आयाम

स्त्रीवादी अर्थशास्त्रियों का तर्क है कि अवैतनिक काम एवं देखभाल से उत्पादित वस्तु एवं सेवाओं के अन्तर्गत अतीत, वर्तमान और भविष्य में परिवार के दूसरे सदस्यों की देखभाल और भरण-पोषण होता आया है और वर्तमान में भी बिना वेतन और काम की पहचान के बगैर काम करने वाली महिला सदस्यों के कारण ही परिवार के कमाऊ  सदस्य हर सुबह काम पर जा सकते हैं। घरेलू क्षेत्र और बिना वेतन घर के सारे काम करने वाली महिलाओं के योगदान से ही अन्य आर्थिक क्षेत्रों के लिए अपने कर्मचारियों को जरूरत से बहुत कम वेतन का भुगतान और कम वेतन वाली बाजार व्यवस्था का प्रबंधन संभव हो पाता है। इसी तरह, महिलाओं द्वारा ऐसी बहुत सी सेवाएं जो सरकार की तरफ से नागरिकों के लिए उपलब्ध कराई जानी चाहिए, जैसे बच्चों की देखभाल, बीमार और बृद्ध सदस्यों की देखभाल, पीने के पानी की व्यवस्था, ईंधन और बहुत सी सेवाओं के माध्यम से घरेलू क्षेत्र एवं महिलाएं सरकार और राज्य का बोझ कम करती हैं। ऐसे सभी काम जिनके लिए न वेतन मिलता है न पहचान, उनका सारा बोझ महिलाओं के कंधे पर डाला जाता है, जिसकी वजह से जनसंख्या का आधा हिस्सा वैतनिक श्रम बाजार से दूर होता है और संभावित कार्मिकों की संख्या बेहद कम हो जाती है। जगजाहिर बात है कि वेतन पाने वाली महिलाओं के श्रम-योगदान की उच्च दर के कारण गरीबी कम होती है और आर्थिक विकास को बढ़ावा मिलता है, महिलाओं को श्रम बाजार से अलग रखने के कारण अर्थव्यवस्था को होने वाला नुकसान विचार करने योग्य मुद्दा है।

एक सर्वे जिसमें दुनिया के 65 देशों की युवा जनसंख्या जिनमें नौकरीपेशा, बेरोजगार और 15 साल या उससे अधिक की आयु वाले महिला एवं पुरुष शामिल हैं, के विश्लेषण से यह खुलासा हुआ है कि 28 विकासशील देशों में महिलाएं औसतन दिन के 2.79 घंटे  वेतन के लिए और 4.30 घंटे बिना वेतन के कामों के लिए खर्च करती हैं, जिसका कुल 7.09 घंटे है, वहीं तुलनात्मक रूप से पुरुष 4.96 घंटे वेतन के कामों के लिए और 1.20 घंटे बिना वेतन के कामों में बिताते हैं।
राष्ट्रीय स्तर पर कानूनों की समीक्षा, नीति एवं योजनाएं

भारत में महिलाओं द्वारा किए जाने वाले बिना वेतन के काम और इससे मिलते जुलते मुद्दों जैसे अधिक काम का तनाव और खुद के लिए समय का अभाव आदि के लिए विशेष क्षेत्रीय या आर्थिक नीति तो दूर, लोक नीति में इन मुद्दों का जिक्र भी नहीं है, जो महिलाओं के अवैतनिक कामों के लिए प्रभावी सिद्घ हो सके। गरीबी उन्मूलन, समावेशीकरण, लैंगिक समानता के लिए सामाजिक आर्थिक नीति में भी बिना वेतन काम के मुद्दे पर ध्यान नहीं दिया गया है।
(Workload on Women)

यहाँ चार मान्यताएँ ध्यान देने योग्य हैं, जो महिलाओं के कामों की उपेक्षा के लिए जिम्मेदार हैं :

  1. हर घर में किए जाने वाले प्रतिदिन के आवश्यक अवैतनिक कार्य निजी और पारिवारिक माने जाते हैं।
  2. महिलाओं द्वारा पारिवारिक जमीन एवं खेतों और पारिवारिक उद्योगों में बिना वेतन किए जाने वाले कामों को घर के कामों का दर्जा दिया जाता है।
  3. पुरुषों को परिवार का जीविकोपार्जक माना जाता है, जबकि महिलाओं के कामों को नजरअंदाज कर उन्हें पुरुष सदस्यों की आय पर निर्भर समझा जाता है।
  4. घर के भीतर की लैंगिक समानता राज्य के दायित्व से परे है।
    उत्तराखण्ड में अवैतनिक कार्यों की स्थिति

उत्तराखंड वन संपदा से पूर्ण क्षेत्र होते हुए भी यहाँ पर्यावरण में लगातार गिरावट देखी गई है। उत्तराखंड का दो तिहाई से भी ज्यादा इलाका वनों से ढका है, लेकिन साथ ही साथ उत्तराखंड उन इलाकों में से है, जहां बीते कुछ सालों में जंगल और हरियाली तेजी से कम हुए हैं। पर्यावरणीय रूप से नाजुक और भूकंप संभावित उत्तराखंड में वनों की कटाई एवं भौगोलिक अस्थिरता के कारण भूस्खलन, बाढ़ और अन्य प्राकृतिक आपदाओं की घटनाओं में वृद्धि हुई है, जिनका असर महिलाओं के कामों पर पड़ा है। राज्य में 55 प्रतिशत से ज्यादा आजीविका कृषि कार्य पर निर्भर है। कृषि अर्थव्यवस्था में वेतन एवं बिना वेतन के काम करने वाली ज्यादातर महिलाएं हैं।

इलाके में कुल 393 परिवारों का सर्वेक्षण/अध्ययन किया गया, जिनमें से 66 परिवारों की मुखिया महिलाएं हैं। महिलाओं की औसतन मासिक आय 900 रु. (10800 रु. वार्षिक) है, वहीं पुरुषों की मासिक आय 3000 रु. (36000 रु. वार्षिक) है। अध्ययन में शामिल किए गए 393 परिवारों (औसतन पांच सदस्य) में से 323 परिवारों के पास खुद की जमीन है। 58 प्रतिशत पुरुषों के पास जमीन का स्वामित्व है, जबकि मात्र 19 प्रतिशत महिलाओं के पास ही जमीन का मालिकाना हक है।

कृषि कार्यों में लगने वाला समय

खरपतवार एवं निराई – 7 से 56 घंटे
खाद ढोना, गोबर आदि- 35 से 63 घंटे
फसलों की कटाई एवं भूसा अलग करना – 7 से 63 घंटे
पशुपालन

पशुधन- सप्ताह में कम से कम 16 घंटे
पशुओं को चराना- औसतन 11.6 घंटे (2 से 35 घंटे)
पशुओं को नहलाना, पानी पिलाना- 11 घंटे (2 से 42 घंटे)
पशुघर की साफ-सफाई – 7 घंटे (2 से 35 घंटे)
81 प्रतिशत महिलाएं पशुओं की सुरक्षा एवं देख-रेख का काम करती हैं।
जंगल से सामग्री एकत्र करना- सप्ताह में औसतन 28 घंटे (3.5 से 42 घंटे)
मछली पकड़ने का जाल बनाना – औसतन 35 घंटे (14 से 56 घंटे)
75 प्रतिशत परिवारों में खाना पकाने और तापने के लिए लकड़ियों पर निर्भरता है तथा 56 प्रतिशत परिवारों में बिजली की उपलब्धता है।

ईंधन एवं जलावन के लिए लकड़ियाँ इकट्ठा करने का काम मुख्य रूप से महिलाएं करती हैं। आश्चर्य की बात नहीं है कि इस वजह से 70 प्रतिशत महिलाएँ ज्यादातर समय लकड़ी इकट्ठा करने के काम में संलग्न पाई जाती हैं। इसके अलावा पालतू पशुओं का गोबर ईंधन के काम में लाया जाता है, जिससे जुड़े काम जैसे गोबर इकट्ठा कर उपले बनाने-सुखाने और जमा करने का काम महिलाओं के जिम्मे है।
पानी की व्यवस्था

अध्ययन के प्राथमिक आंकड़ों के अनुसार 42 प्रतिशत परिवार सार्वजनिक नल का पानी प्रयोग में लाते हैं, जबकि 33 प्रतिशत परिवारों के घरों में नल की व्यवस्था है। पानी के लिए सार्वजनिक और निजी नल की व्यवस्था के बावजूद भौगोलिक चुनौतियों के कारण ज्यादातर समय परिवारों को पानी की व्यवस्था के लिए प्राकृतिक स्रोतों पर निर्भर रहना पड़ता है। गर्मी के मौसम में पीने के पानी की समस्या रहती है, क्योंकि नलों में पानी आना बंद हो जाता है। परिवार के लिए पानी की व्यवस्था का काम मुख्य रूप से महिलाओं पर है। प्राय: महिलाएँ एक साथ कई काम करती हैं, जैसे पशुओं को जंगल में चराने ले जाना और उसी दौरान जंगल से ईंधन के लिए लकड़ियां जमा करना।
मनरेगा योजना में महिलाओं की भागीदारी

पिथौरागढ़ में मनरेगा से संबंधित प्रावधानों को लेकर पर्याप्त जागरूकता है, लेकिन योजना के लाभान्वितों की संख्या अपेक्षाकृत कम है। संभावित कारण महिलाओं पर अवैतनिक कामों का बोझ हो सकता है। सर्वे किए गए परिवारों में से लगभग 80 प्रतिशत महिलाएं जानती हैं कि मनरेगा के काम के लिए आवेदन जरूरी है, लेकिन 17 प्रतिशत महिलाएं और बमुश्किल 11 प्रतिशत पुरुष मनरेगा से लाभान्वित हैं।
निष्कर्ष

हमारा अनुभव यह रहा है कि केवल मनरेगा ही नहीं, इसी तरह जीवन में कई मौकों और संभावनाओं को महिलाएं और लड़कियां खो देती हैं, जिससे उनके जीवन में, उनके परिवार के स्तर में, बहुत बदलाव आ सकता था। सरकारी योजनाएं हों या गैर सरकारी संस्थाएं महिला सशक्तीकरण पर बहुत ध्यान दिया जा रहा है और यह कारगर भी सिद्घ हो रहा है।

चाहे आर्थिक सशक्तीकरण हो या ग्राम पंचायत को मजबूत करना हो, पिछले दो दशकों से महिला विकास ही मूल मंत्र रहा है। तब भी हम काम के बोझ को बहस और राजनीति का मुद्दा नहीं बना पाए, पर शायद हम सब ने पूरी कोशिश भी नहीं की और शायद इसीलिए युवा महिलाएं जिन पर गृहस्थी का सबसे ज्यादा बोझ होता है, हमारी कोशिशों से परे रह जाती हैं। यदि हम यह जल्दी नहीं पहचानते तो केवल आधी जनसंख्या ही नहीं, पूरे देश के विकास की गति और दिशा दोनों अवरुद्घ रहेंगी।
(Workload on Women)

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