भारतीय परिवारों में कामकाजी माँ

माया गोला

एक यहूदी कहावत है कि…. ‘खुदा ने पूरा संसार रचा, वह खुद पूरी दुनिया की देखभाल नहीं कर सकता था इसलिए उसने माँ की रचना की।’

अब समय के साथ माँ का दायरा भी घर से लेकर बाहर तक विस्तारित हो गया है। महिलाओं में जहाँ एक ओर जागरूकता बढ़ी है, वहीं परिवार की र्आिथक जरूरतें भी बढ़ गई हैं। शिक्षा, स्वास्थ्य और अन्य चीजों पर खर्च इतना बढ़ गया है कि काम करना महिला की जरूरत बन गया है। दूसरे आज की शिक्षित महिला अपनी पहचान भी चाहती है। समय के साथ-साथ माँ की भूमिकाओं में भी परिवर्तन आया है। अब वह परंपरागत अर्थ वाली माँ से इतर भी समाज में अलग पहचान और खुद का वजूद रखने लगी है। आज एक माँ न सिर्फ परिवार बल्कि समाज राज्य और देश की अर्थव्यवस्था से लेकर उसकी नीतियों में भी सक्रिय तौर पर महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है।1

चाहे वह बर्बर युग की माँ रही हो, मध्यकाल की माँ रही हो, औद्योगिक क्रान्ति के दौर की माँ रही हो या फिर आज की सुपर मॉम। माँ की भावनाओं में रत्तीभर भी कोई परिवर्तन नहीं आया है।2 भारतीय संस्कृति सम्बन्ध बोध की संस्कृति रही है, यहाँ माँ और बच्चे के बीच वात्सल्य से ओत-प्रोत लोरी और लगाव की प्रथा रही है।

घर को सम्भालने-सहेजने के साथ-साथ एक कामकाजी महिला बाहर भी अपने लिए एक दुनिया रच रही है। कुछ भी हो, उसमें जागरूकता का ग्राफ तो उत्तरोत्तर बढ़ा है। ‘‘संविधान का 73वां संशोधन महिलाओं का अपने-अपने अधिकारों के प्रति सचेत होने का परिणाम है। महिलाओं ने पारिवारिक और सामाजिक संबंधों को नए सिरे से परिभाषित किया है।3 शिक्षा ने इस दिशा में बड़ी भूमिका निभाई है’’।  1999 में जहाँ मात्र 39.29 फीसदी महिलाएँ साक्षर थी, वहीं 2011 में महिलाओं की साक्षरता बढ़कर 53.67 फीसदी हो गई है।4 जाहिर है घर के बाहर के संसार में भी भारतीय स्त्री की भूमिका महत्वपूर्ण हो चली है। ‘‘आज के समय विशेषकर महानगरों में 27 फीसदी महिलाएँ अपने घर-परिवार की र्आिथक जिम्मेदारियाँ उठाती हैं। पिछले पाँच दशकों में महिलाओं के हिस्से में आने वाली काम की जिम्मेदारियों में 35 फीसदी से ज्यादा का इजाफा हुआ है।5 आज की स्त्री अपनी काबिलियत और कुशलता के चलते घर और बाहर दोनों मोर्चे फतह कर रही है। बिजनैस वुमैन के रूप में खुद को स्थापित करने वाली नीता अंबानी कहती हैं। ‘‘भारतीय महिलाओं को मल्टीटासकिंग में महारत हासिल है। आप भारत के किसी परिवार में चले जाएँ, वहाँ पत्नी, बहू, माँ और कई दूसरी भूमिकाओं के अलावा कामकाजी महिला की जिम्मेदारी निभाने वाली औरतें मिल जाएंगी।6 परन्तु माँ होने की जिम्मेदारी दुनिया की हर चीज से ज्यादा बड़ी है, इसलिए काम और मातृत्व के बीच तालमेल बिठाकर आज की कामकाजी माँ अपनी इस बेहद महत्वपूर्ण जिम्मेदारी का निर्वहन कर रही है।’’

आजकल महिलाएँ एक ओर माँ की भूमिका निभाती है और दूसरी ओर ऑफिस सम्भालती है। वस्तुत: माँ का कामकाजी होना कहीं न कहीं बच्चे की परवरिश में मददगाद ही साबित होता है। जेएनयू में समाजशास्त्र के प्रोफेसर सुरेश एस. जोधक कहते हैं, ‘’महिलाओं के कामकाजी होने का ज्यादा फायदा बच्चों और परिवार को ही मिलता है, दरअसल अधिकांश मामलों में वे उनके लिए ही तो काम करती हैं।7 ’’अगर हम कुछ अपवादों को छोड़ दें तो घर अमूमन हर महिला की प्राथमिकता में होता है। ‘‘एक सरकारी सर्वेक्षण में ये बात उभरकर आई है कि बहुराष्ट्रीय कंपनियों से लेकर प्राइवेट फर्म तक में काम करने वाली 99.5 प्रतिशत महिलाएँ ऑफिस की जिम्मेदारियों का निर्वाह कर घर के लिए तत्पर रहती हैं।8 ’’बाहर की जानकारियों का उपयोग वह घर की बेहतरी के लिए करती हैं, ‘‘कामकाजी महिला को दुनिया के बारे में ज्यादा पता होता है जब वह बाहर निकलती है तो इसका मतलब वह घर में कुछ ज्ञान और जानकारी लेकर आएगी, जो परिवार के लिए उपयोगी साबित हो सकती है। कामकाजी माँओं के बच्चे आत्मनिर्भर होना सीखते हैं क्योंकि माँ हर समय उनकी छोटी-मोटी चीजों के लिए उनके पास नहीं होती।9 ’’आजकल के प्रतिस्पर्धा के युग में कामकाजी माँ शिक्षा का महत्व अच्छी तरह से समझती है। संभवतया इसलिए ‘‘कामकाजी महिलाओं के बच्चे अपेक्षाकृत आत्मनिर्भर और शिक्षित होते हैं…. वह बचपन से ही अपने छोटे-छोटे काम खुद ही करना सीख जाते हैं। जो आगे चलकर उनकी काफी हद तक सहायता करते हैं। उन्हें यह ज्ञात हो जाता है कि अपने पैरों पर खड़े होने और समाज में प्रतिष्ठापूर्वक जीने के लिए शिक्षित होना बहुत जरूरी है। इतना ही नहीं महिलाओं का बाहर जाकर काम करना बच्चे और उनके बीच भावनात्मक नजदीकी को और अधिक बढ़ा देता है।10 ’’ परन्तु इस तस्वीर का दूसरा पहलू भी है। बात जब परिवार और बच्चों के प्रति जिम्मेदारी की आती है तो पुरुष खुद को इन सबसे काफी ऊपर समझने लगते हैं। भारतीय समाज में महिलाओं से सदैव ही बहुत सी अपेक्षाएँ रही हैं, घर और परिवार को सम्भालने की जिम्मेदारी भी मुख्य रूप से महिला की ही होती है, यह सोच कामकाजी महिला पर दबाव बनाती है, ‘स्त्री-पुरुष : एक पुर्निवचार’ में राजकिशोर कहते हैं, ‘‘भारतीय समाज में स्त्री के आगे-पीछे जितने मिथक खड़े किए गए हैं, उनका उद्देश्य स्त्री को एक खास तरह का प्राणी बना देना है, ताकि कोई स्त्री इस घेरेबन्दी से बाहर निकलना चाहे तो खुद अपनी निगाह में अजूबा बन जाए।11’’ संतान भी माँ को उसी परंपरागत रूप में देखना चाहती है तो पति भी पत्नी को छुईमुई संस्कारशील एवं सुशील स्त्री के रूप में देखना चाहता है जबकि कामकाजी माँ की दुविधा यह है कि उसे घर और बाहर दोनों मोर्चे संभालने हैं। इस दोहरे-तिहरे बोझ के कारण आज की कामकाजी महिला व्यथित है। ‘‘नगरीय समाज में संयुक्त परिवार में रहने वाली कामकाजी महिला के लिए घर और बाहर दोनों के बीच तालमेल बिठाना बड़ा मुश्किल काम है। नौकरीपेशा स्त्री से सास यह अपेक्षा करती है कि वह कामकाजी महिला होते हुए भी गैर कामकाजी महिला की तरह काम करे।12’’

एक कामकाजी माँ घर और ऑफिस को व्यवस्थित रखने के लिए चक्करघिन्नी की तरह घूमती रहती है। ‘‘एकल परिवारों में जहाँ पारिवारिक सहयोग की कोई गुंजाइश नहीं होती है, वहाँ तो स्थिति यहाँ तक आ जाती है कि उन्हें अपने बच्चे या कॅरियर में से किसी एक का चुनाव करना पड़ता है और जाहिर है क्योंकि हमारे समाज में बच्चों की परवरिश की जिम्मेदारी माँ की होती है तो चाहे माँ कितने ही अच्छे पद पर क्यों न हो…. समझौता उसे ही करना होता है।13’’ नि:सन्देह कामकाजी माँ बनना कठिन कार्य है, कठिनाई तब और बढ़ जाती है जब परिस्थितियाँ उसके अनुकूल नहीं होतीं। ‘‘हकीकत में कोई भी कामकाजी लड़की चाहती है कि वो अपना काम करती रहे, लेकिन परिस्थितियाँ हमेशा उसके पक्ष में नहीं होती हैं क्योंकि शहर में घर और ऑफिस की दूरी एवं एकल परिवार उन्हें ये सुविधा नहीं देते कि वे अपने बच्चे को छोड़कर काम करने जा सके।14’’
(working mother in indian families)

वस्तुत: जैसे-जैसे महिलाएँ कामकाजी होती गईं, उनके सामने नई-नई समस्याएँ आना शुरू हो गईं। इनमें सबसे महत्वपूर्ण सवाल बच्चे को जन्म देने वाली महिलाओं के सामने उठा। बच्चे के स्कूल जाने तक उसे माँ की देखभाल और वात्सल्य की बहुत आवश्यकता रहती है, यह अवधि चार-पाँच साल की होती है। ‘‘नौकरी में इतनी लंबी छुट्टी लेना संभव नहीं, इस दौरान महिलाओं के सामने बच्चे की देखभाल या नौकरी? ममता या पैसा? जैसे सवाल उठते हैं। मजबूरी में महिलाओं को दोनों में से किसी एक को छोड़ना पड़ता है।15’’ यदि महिला नौकरी छोड़कर बच्चे की देखभाल करती है तो उसके सामने र्आिथक संकट, सम्मान तथा बराबरी का हक छीनने का खतरा पैदा हो जाता है, दूसरी ओर अगर वह नौकरी पर ध्यान देती है तो मासूम बच्चे को असंतुलित विकास का खतरा बना रहता है। ‘‘पिछले कुछ वर्षों से बच्चे को क्रैच में छोड़ने की परंपरा चली है, लेकिन विशेषज्ञों के अनुसार क्रैच या बालगृहों में बच्चों को छोड़ना, उनके मानसिक तथा शारीरिक विकास के लिए ठीक नहीं। बच्चे को माँ की ममता व दुलार की बहुत आवश्यता होती है।16’’ सुधा गुप्ता का कहना है, ‘‘भारत में महिलाओं को उनके कार्य क्षेत्र में कुछ रियायतें दिया जाना और भी जरूरी है क्योंकि यहाँ का सामाजिक ढाँचा इस तरह का है कि घरेलू मामलों में पुरुष ज्यादा जिम्मेदारी लेने को तैयार नहीं होते। ऐसे में बच्चे की बीमारी या उसके स्कूल आदि की तमाम जिम्मेदारियाँ माँ को निभानी पड़ती हैं और माँ यदि कामकाजी हो तो उसकी परेशानी का अंदाजा लगाया जा सकता है।17’’

आज भले ही महिलाओं को काम करने की आजादी हो लेकिन इतने भर से उनकी स्थिति संतोषजनक नहीं कही जा सकती है, क्योंकि आज भी समाज ये मानता है कि कामकाजी महिलाएँ अपना अधिकांश समय बच्चों से दूर ऑफिस में बिताती हैं, इसलिए वह कभी अच्छी माँ नहीं बन सकतीं।18 कामकाजी महिलाओं के विषय में ऐसा मानना कि वे केवल स्वार्थी व आत्मकेन्द्रित होकर परिवार और बच्चों की अनदेखी करती हैं, किसी भी रूप में सही नहीं कहा जा सकता। आज की महिलाएँ शिक्षित और अपने कॅरियर को लेकर जागरूक हैं और उनकी यह जागरूकता किसी भी नजरिये से गलत नहीं कही जा सकती किन्तु यही वह बिन्दु है जहाँ कामकाजी माँ की दोनों भूमिकाओं के बीच खींचातानी भी शुरू हो जाती है क्योंकि…. मध्यवर्ग में जहाँ स्त्री शिक्षित है, पुरुष के साथ बाहर काम करती है, अपने पैरों पर खड़ी है फिर भी उसकी सामाजिक स्थिति में सुधार नहीं हो रहा है बल्कि यह देखने में आ रहा है कि पति-पत्नी दोनों काम करते हैं, लेकिन पति केवल बाहर काम करता है और पत्नी को बाहर के काम के साथ-साथ घर का भी सारा काम करना पड़ता है।

एक कामकाजी माँ के रूप में एक स्त्री दोहरी-तिहरी जिम्मेदारियों को निभाती है। माना कि उसमें ये सब करने की सामथ्र्य है लेकिन यह भी कहाँ उचित है कि घर और बाहर दोनों जिम्मेदारियों के निर्वहन में अधिकांश ऊर्जा की खपत स्त्री की ही हो। कामकाजी माँ होने से पहले वह एक स्त्री है और एक स्त्री होने से भी पहले वह एक मनुष्य है। अत: उसे भी मनुष्य होने की वो सहूलियतें मिलनी चाहिए जो कदाचित पुरुष के जैसी न भी हों लेकिन उसकी अपनी सहूलियत के अनुरूप तो हों ही।

1. www.Wordnow.in 2. वही 3. डॉ. निरंकार सिंह एवं डॉ. शान्ति स्वरूप, स्मारिका: वैश्वीकरण एवं शिक्षा, पृष्ठ 49 4.  www.Sarita.in  5. www.Wordnow.in 6.  www.Sarita.in 7. aajtak.intoday.in 8. www.Wordnow.in 9. sarashish.tumblr.com 10. socialissues.jagranjunction.com 11. राजकिशोर, स्त्री-पुरुष : कुछ पुर्निवचार, संस्करण 1992, पृष्ठ 80 12. डॉ. प्रमिला कपूर, भारत में विवाह एवं कामकाजी महिलाएँ, पृष्ठ 294-295 13. Hindi.webtunja.com14. वही 15.www.ezinemart.com 16. वही 17. Socialissues.jagranjunction.com 18
(working mother in indian families)

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