असंगठित क्षेत्र में कार्यरत महिलाएँ


ज्योति जोशी, किशोर कुमार

भारतीय समाज मूलत: पुरुष प्रधान  समाज है। प्रत्येक स्तर पर पुरुष महिलाओं पर अपनी श्रेष्ठता का दावा करते रहे हैं। महिलाएं कठिन परिस्थितियों में जीवन-यापन करती रही हैं। वे विभिन्न संसाधनों जैसे आर्थिक, शैक्षणिक, स्वास्थ्य एवं सामाजिक अभावों के साथ जीवन जीने को बाध्य होती रही हैं। अधिकांशत: महिलाएं सम्पत्तिहीनता, निरक्षरता, शिक्षा, कला-कौशल की कमी के चलते सामाजिक-आर्थिक विकास से कोसों दूर हैं। जिसके परिणामस्वरूप महिलाओं को पुरुषों पर निर्भर रहना पड़ता है, जिस कारण वे विकास के दौर में भी खुलकर आगे नहीं आ सकी हैं।

18वीं एवं 19वीं सदी के सामाजिक परिवेश में औद्योगीकरण एवं नगरीकरण की प्रक्रिया ने महिलाओं की प्रस्थिति को परिवर्तित करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। परिणामस्वरूप महिलाओं में आर्थिक आत्मनिर्भरता पनपी है। वे पुरुषों की आर्थिक दासता से मुक्त होकर घर की चहारदीवारी से निकलकर बाह्य जगत से परिचित हुई हैं। महिलाएं स्वयं विभिन्न उद्योगों एवं अन्य व्यवसायों में कार्य करने लगी हैं। वर्तमान समय में महिलाएं सामाजिक-आर्थिक, राजनीतिक सभी क्षेत्रों में पुरुषों के समान कार्य करने लगी हैं।
(Women worker in unrecognized sector)

औद्योगीकरण की प्रक्रिया के फलस्वरूप समाज में श्रमिक वर्ग का जन्म हुआ। जिसमें संगठित एवं असंगठित श्रमिक वर्ग थे। संगठित श्रमिक वे हैं, जो अपने रहन-सहन का स्तर सुधारने हेतु राष्ट्रीय स्तर पर संगठित होकर प्रयास करते रहते हैं जबकि असंगठित श्रमिक, जो अपनी आर्थिक दशा सुधारने हेतु संगठित होकर अपने नियोक्ताओं से अपने अधिकारों की बात नहीं कर पाते हैं। जिससे वह अपने अधिकारों से वंचित रह जाते हैं। असंगठित क्षेत्र में कार्यरत श्रमिक वे श्रमिक हैं जो कारखाना अधिनियम 1948 के प्रमुख प्रावधानों जैसे स्वास्थ्य, सुरक्षा एवं कल्याण सम्बन्धी उपबन्ध आदि की परिधि से बाहर हैं। इस सम्बन्ध में राष्ट्रीय श्रम आयोग ने अपनी रिपोर्ट 2002 में यह उल्लेख किया है कि असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों के लिए 19 या इससे कम संख्या में कर्मकारों को नियोजित करने वाली इकाइयों को असंगठित क्षेत्र एवं इसके विपरीत नियोजित करने वाली इकाइयों को संगठित क्षेत्र माना जाय। इसी प्रकार राष्ट्रीय न्यूनतम साझा कार्यक्रम (NCMP) में उल्लेख किया गया है कि ‘‘सरकार सभी कामगारों, विशेष रूप से असंगठित क्षेत्र के, जो कि हमारे कार्यबल का 93 प्रतिशत है, कल्याण और अच्छी स्थिति को सुसंगठित करने के लिए दृढ़ता से प्रतिबद्घ है।’’

भारतीय समाज में, औद्योगीकरण की प्रक्रिया द्वारा महिलाओं में संगठित एवं असंगठित दोनों ही क्षेत्रों में एक उद्यमी श्रमिक के रूप में घर से बाहर कार्य करने की प्रवृति विकसित हुई है। यद्यपि उद्यम करने वाली महिलाओं का एक बड़ा भाग असंगठित क्षेत्रों में एक उद्यमी के रूप में संलग्न है। भारत की कुल श्रमशक्ति में महिला श्रमिकों का महत्वपूर्ण भाग है। भारत में लगभग 40 करोड़ लोग (काम करने वाले लोगों का 85 प्रतिशत से ज्यादा) असंगठित क्षेत्र में कार्य करते हैं। जिसमें लगभग 12 करोड़ महिलाएं कार्यरत हैं, जो असंगठित क्षेत्रों में कार्य करने वाले पुरुषों का लगभग दो चौथाई हैं।

सामाजिक सुरक्षा अधिनियम 2008 के अनुसार असंगठित क्षेत्र के श्रमिक वे श्रमिक हैं, जो घरेलू कार्य, स्वरोजगार एवं वेतन पर कार्य कर रहे हैं त़था जिनको अधिनियम की अनुसूची-कक में शामिल नहीं किया गया है। जबकि व्यक्तिगत या स्वरोजगार के स्वामित्व वाले व्यवसाय जो उत्पादन, वस्तुओं की बिक्री या सेवाएं उपलब्ध कराने के कामों में संलग्न हैं और जहां श्रमिकों की संख्या दस से कम हो, असंगठित क्षेत्र कहलाता है। इसके अतिरिक्त असंगठित क्षेत्रों में वे श्रमिक हैं जो गाँव अथवा शहरों में मजदूरी पर अस्थायी रूप से काम करते हैं। चूँकि यह श्रमिक वर्ग मुख्यतया बिखरा हुआ होता है अत: इनका परस्पर संगठन नहीं हो पाता है।
(Women worker in unrecognized sector)

भारतीय श्रमशक्ति के आधार पर महिलाओं का अधिकांश भाग असगंठित क्षेत्र में कार्य करता है। परन्तु रोजगार के स्तर एवं गुणवत्ता की दृष्टि से वे पीछे रह जाती हैं। भारत की जनगणना (2011) के अनुसार महिला श्रमिकों की संख्या 25.60 % है। अर्थात देश में महिलाओं की कुल संख्या 49 करोड़ 60 लाख में से 12 करोड़ 72 लाख 20 हजार महिलाएं श्रमिक के रूप में कार्यरत हैं। अधिकांशत: असंगठित क्षेत्रों में कार्यरत महिलाएं ग्रामीण क्षेत्रों से हैं। जिसमें 87 % खेतीहर मजदूर हंै। जबकि शहरी क्षेत्रो में 80 % श्रमिक महिलाएं घरेलू उद्योगों, छोटे-मोटे व्यवसायों और नौकरी तथा भवन-निर्माण जैसे असंगठित क्षेत्रों में काम कर रही हैं। भारत की जनगणना 2011 के अनुसार, भारत में कुल जनसंख्या का लगभग 48.46 %  महिलाएं हैं तथा जिनमें लगभग 25.67 % महिलाएं श्रमिक के रूप में कार्यरत हैं।

असंगठित क्षेत्र में कार्यरत महिलाएं अज्ञान, परम्परागत दृष्टिकोण, निरक्षरता, रोजगार की सामयिक प्रकृति, विभिन्न प्रकार के शारीरिक शोषण, नौकरी का अस्थायी स्वरूप, कानूनी ज्ञान की कमी इत्यादि के कारण संगठित क्षेत्र में कार्यरत महिलाओं से प्रतिस्पर्धा नहीं कर पाती हैं । इस संदर्भ में जे़ भगवती तथा टी़ एऩ श्रीनिवास (1993) ने स्पष्ट किया है कि विशेष रूप से असंगठित क्षेत्र में कार्यरत महिलाओं की संख्या अधिक है और उन्हें संगठित क्षेत्रों में कार्यरत महिलाओं की भांति रोजगार, वेतन इत्यादि की सुरक्षा नहीं मिल पाती है। अत: वे संगठित क्षेत्रों में कार्यरत महिलाओं की भांति विकास का लाभ नहीं ले पाती हैं, इसलिए वे पिछड़ने को बाध्य होती हैं।

विकास की वर्तमान श्रमशक्ति में महिलाओं की सामाजिक एवं आर्थिक समस्याओं के मूलभूत पक्षों का विश्लेषण एवं निदान अति आवश्यक है। इन्हीं तथ्यों को दृष्टिगत रखते हुए असंगठित क्षेत्र में मुख्यत: भारतीय महिलाएं कई वर्षों से खेतों, लघु एवं कुटीर उद्योगों में काम करती आई हैं परन्तु औद्योगीकरण के प्रसार द्वारा उन्हें कारखानों, खानों, कार्यालयों, औद्योगिक प्रतिष्ठानों अथवा दुकानों तथा कई प्रकार की सेवाओं में रोजगार के प्रचुर अवसर प्राप्त हुए हैं। परन्तु भारतीय सामाजिक परिवेश में महिलाओं को घर एवं कार्यक्षेत्र में अभी भी अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ता है।
कम मजदूरी की समस्या

अधिकांशत: महिलाओं को कुछ चुने हुए कार्यों में ही रोजगार के अवसर मिलते हैं, जैसे शिक्षा, खेती, हस्तशिल्प तथा अन्य कार्य, जो उनकी शारीरिक क्षमता या शिक्षा से सम्बन्धित होते हैंै। इन सीमित व्यवसायों में रोजगार की इच्छुक महिलाओं की संख्या अधिक होती है। कई नियोजक प्रसूति की स्थिति में अवकाश तथा प्रसूति-हितलाभ, शिशुगृह की स्थापना की अनिवार्यता तथा महिलाओं के रात्रि में कार्य करने तथा खतरनाक कामों पर कानूनी प्रतिबंधों के कारण महिलाओं को नियोजित नही करना चाहते। इन कारणों से महिलाओं को पुरुषों की तुलना में कम मजदूरी मिलती है। राष्ट्रीय सार्वजनिक वित्त एवं नीति संस्थान के अध्ययन में ज्ञात हुआ कि पुरुषों की औसत मजदूरी शहरी क्षेत्रों में 80 प्रतिशत तथा ग्रामीण क्षेत्रों में 60 प्रतिशत रही है। निम्न मजदूरी को दृष्टिगत रखते हुए चेतन, कृष्णा बी़ (2006) ने अपने अध्ययन में यह पाया कि लघुवित्तीय कार्यक्रमों की महिलाएं परिवार में एक उत्पादक इकाई की भांति कार्य करती हैं तथा उनकी अधिकांश आय परिवार के भोजन व बच्चों के पालन-पोषण में खर्च हो जाती है, जिससे महिलाओं के कार्य करने से परिवार का कल्याण होता है और उनके पारिवारिक सम्बन्धों में भी घनिष्ठता आती है।
(Women worker in unrecognized sector)
कार्य की कठिन दशा

असंगठित क्षेत्रों में कार्यरत श्रमिकों को कई घंटों तक कार्य करना पड़ता है, जिसके परिणामस्वरूप उन्हें कार्यस्थल पर तनाव का सामना करना पड़ता है। कई कारखानों में उन्हें खतरनाक मशीनों या प्रक्रियाओं में नियोजित किया जाता है। कार्यस्थल पर उन्हें विश्राम के अभाव, अपर्याप्त प्रकाश, असुरक्षा, रोग इत्यादि समस्याओं का सामना करना पड़ता है।
सामाजिक सुरक्षा

सामाजिक सुरक्षा से समाज द्वारा आधुनिक जीवन की उन आकस्मिकताओं, जैसे- बीमारी, बेरोजगारी, वार्धक्य-पराश्रितता, औद्योगिक दुर्घटनाओं तथा अशक्तता के विरुद्ध सुरक्षा के कार्यक्रम का बोध होता है, जिनके लिए व्यक्ति द्वारा अपने स्वयं के सामथ्र्य या दूरदर्शिता से अपनी या अपने परिवार की रक्षा की आशा नहीं की जा सकती है। असंगठित क्षेत्रों में कार्यरत अधिकांश महिला कार्मिकों को कार्यस्थल पर अपने कार्यसम्बन्धी सामाजिक सुरक्षा जैसे स्वास्थ्य, कर्मचारी क्षतिपूर्ति कानून, बेरोजगारी-बीमा आदि नहीं मिल पाती है। महिलाओं की सामाजिक सुरक्षा सम्बन्धित समस्याओं के लिए LLO की रिपोर्ट में स्पष्ट है कि कर्मकार क्षतिपूर्ति (व्यावसायिक रोग) अभिसमय, संख्या 18, 1925 तथा संशोधित अभिसमय, संख्या 42, 1934 के अनुसार कुछ विशेष प्रकार के नियोजनों में हो सकने वाले रोगों की क्षतिपूर्ति की व्यवस्था करना जरूरी है। इन अभिसमयों के उपबन्धों को कर्मकार क्षतिपूर्ति अधिनियम, 1923 तथा कर्मचारी राज्य बीमा अधिनियम 1948 में शामिल किया गया है।
प्रसूति से उत्पन्न समस्याएँ

महिला कार्मिकों को प्रसूति की अवधि में अवकाश, वेतन या प्रसूति-हितलाभ की आवश्यकता होती है। जबकि  अधिकांश नियोजक प्रसूति की अवस्था में महिला श्रमिकों को काम से हटा देते हैं और उन्हें इस अवधि में मजदूरी भी नहीं देते हैं। कई प्रकार के व्यवसायों में उन्हें गर्भावस्था में किसी प्रकार की चिकित्सा-सुविधा भी नहीं मिल पाती है।
आवास और यातायात

असंगठित क्षेत्रों में कार्यरत महिलाओं को अपने घर से काफी दूर स्थित कार्यस्थल पर जाना पड़ता है। साथ ही महिला कार्मिकों को अन्य क्षेत्रों में आवास की समस्या का भी सामना करना पड़ता है जिसके परिणामस्वरूप उन्हें मानसिक व स्वास्थ्य सम्बन्धी तनाव का सामना करना पड़ता है।
मनोरंजन

इन महिलाओं को कार्यस्थल पर कई घंटों तक कार्य करना पड़ता है। कार्यस्थल पर मनोरंजन का अभाव होता है और वे घर व बाहर के कामों के बोझ से दबी रहती है। अत्यधिक काम और मनोरंजन के अभाव का उनके स्वास्थ्य व स्वभाव पर बुरा प्रभाव पड़ता है।
(Women worker in unrecognized sector)
नियोक्ता सम्बन्धी समस्या

सामान्यत: यह समझा जाता है कि नियोक्ता अपने श्रमिकों के लिए ऐसी दशाओं का निर्माण करेंगे, जिससे उन्हें अधिक से अधिक उत्पादन करने के अवसर एवं काम में अभिरुचि बनी रहे। इस कारण कई नियोजक स्वयं श्रमिकों की मजदूरी, कार्य के घंटों, विश्राम-अंतराल, सुरक्षा, स्वास्थ्य की रक्षा, कार्यस्थल पर सुख-सुविधाओं, मजदूरी-भुगतान आदि पर जोर देते रहते हैं। परन्तु नियोजकों का अपने श्रमिकों के प्रति दृष्टिकोण सही नहीं होता। मुख्यतया श्रमिकों को अपने नियोक्ता सम्बन्धित समस्याओं का भी सामना करना पड़ता है।
लैंगिक असमानता एवं भेदभाव

भारतीय समाज में पुरुषों की तुलना में महिलाओं को कम वेतन तथा पारिश्रमिक दिया जाता रहा है। चाहे वह कृषि का क्षेत्र हो, उद्योग-धन्धे हों या कोई अन्य क्षेत्र हो। इसके अतिरिक्त महिलाओं की एक समस्या महिला-पुरुष की भूमिका में विभेद करने की है। यद्यपि भारतीय संविधान में महिला-पुरुषों के बीच अधिकारों की समानता पर जोर दिया गया है, फिर भी कुछ क्षेत्रों में उनकी सेवाएं नहीं ली जाती हैं। जिससे महिलाओं को आर्थिक रूप से पुरुषों पर निर्भर रहना पड़ता है।
कार्य की सामयिक प्रकृति

असंगठित क्षेत्र में कार्यरत महिला श्रमिकों की प्रमुख समस्या उनके कार्य की सामयिक प्रकृति का होना है। इस प्रकृति के कारण महिला श्रमिकों को यह भय बना रहता है कि कभी भी उनको यह व्यवसाय छोड़ना पड़ सकता है।
श्रम कानून की चेतना का अभाव

श्रम कानून एवं अधिनियम मुख्यत: श्रम समस्या को नियंत्रित करने के लिए पारित किये जाते हैं। जब किसी देश में कम मजदूरी, लम्बी कार्यावधि, महिला तथा बाल श्रमिकों का शोषण जैसी समस्याएं उत्पन्न होने लगें तो उन समस्याओं को दूर करने के लिए जो कानून एवं अधिनियम पारित किये जाते हैं, उसे ही श्रम कानून कहा जाता है। लेकिन असंगठित क्षेत्र में कार्यरत महिलाएं श्रम कानूनों की चेतना के अभाव में उनका लाभ नहीं ले पातीं।
(Women worker in unrecognized sector)
दोहरी भूमिका एवं संघर्ष की समस्या

समाज में व्यक्ति को दो भिन्न परिस्थितियों की भूमिका एक साथ निभानी पड़ती है। यदि उनमें विरोधाभास हो तो उसे हम भूमिका संघर्ष कहते हैं। भूमिका संघर्ष के लिये समाज के सांस्कृतिक मूल्य भी उत्तरदायी हैं। आधुनिक एवं परिवर्तनशील समाज में भूमिका संघर्ष अधिक पाया जाता है क्योंकि यहां नवीन एवं पुराने मूल्य साथ-साथ पाये जाते हैं। समाज में मनुष्य विभिन्न भूमिकाओं का निर्वाह करता है। एक व्यक्ति जिस प्रकार से एक परिस्थिति से सम्बन्धित विशेषाधिकारों एवं सुविधाओं का उपभोग करता है, उसे ही भूमिका संघर्ष कहते हैं। लुण्डबर्ग, (1954:262) के अनुसार विभिन्न भूमिकाओं का एक साथ निभाना आसान नहीं होता है। अत: व्यक्ति भूमिका संघर्ष की स्थिति में प्रभावी भूमिका का चयन कर एक या दो भूमिका छोड़ देता है।

असंगठित क्षेत्र में कार्यरत महिलाओं से सम्बन्धित विभिन्न अध्ययनों से ज्ञात होता है कि इन क्षेत्रों में कार्यरत महिलाएं सामाजिक एवं आर्थिक समस्याओं से जूझ रही हैं। रोजगार में प्रतिस्पर्धा के कारण इन क्षेत्रों में कार्यरत महिलाओं को उनकी मजदूरी या वेतन से वंचित होना पड़ता है। सरकार द्वारा चलाई जा रही नीतियों के फलस्वरूप भी इन क्षेत्रों में कार्यरत महिलाओं को समान वेतन, रोजगार, सुरक्षा, स्वास्थ्य आदि लाभ नहीं मिल पाते हैं। अत: श्रम कानूनों में किए जा रहे संशोधनों में असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों, विशेषकर महिला श्रमिकों के हितों पर भी ध्यान दिया जाना जरूरी है। यह सही है कि इतने व्यापक असंगठित क्षेत्र को नियंत्रित करना सरकार के लिए सरल नहीं है। इसलिए सरकार द्वारा इन महिला श्रमिकों के लिए स्वास्थ, शिक्षा, बीमा जैसी योजनाएं तथा उद्योगों में महिला श्रमिकों को समान वेतन देने तथा उनके लिए अतिरिक्त सुविधाएं देने की ओर ध्यान दिया जाना चाहिए। असंगठित क्षेत्र में कार्यरत महिलाओं के साथ भेदभाव और अन्याय पर नजर रखने के लिए सरकारी तथा गैर-सरकारी संस्थाओं के प्रतिनिधियों की समितियां गठित की जा सकती हैं, जिनमें विभिन्न क्षेत्रों की प्रतिष्ठित महिलाएं भी शामिल हों। आशा की जानी चाहिए कि सरकार इस दिशा में आवश्यक कदम उठाएगी ताकि असंगठित क्षेत्र की महिला श्रमिक अपनी क्षमताओं का उपयोग करते हुए अपने परिवार की खुशहाली के साथ देश के विकास में सक्रिय भूमिका निभा सकेंगी।
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