महिला संतों ने दी चुनौती

जगमोहन रौतेला

अखाड़ा शब्द सामान्यत: वह स्थान होता है जहाँ पहलवान जोर आजमाइश करते हैं और र्विजश और अभ्यास भी। लेकिन अखाड़ा शब्द सनातन धर्म के वाहक साधु समाज से भी जुड़ा है। वर्तमान में विभिन्न सम्प्रदायों के 13 अखाड़े हैं जो कुम्भ स्नान के समय सर्वाधिक चर्चा में आते हैं जब शाही स्नान की बारी आती है। शेष समय यह संत समाज विभिन्न आश्रमों में अपनी गतिविधियाँ चलाता रहता है। इनमें साध्वियाँ भी हैं जो अब महंत और महामंडलेश्वर की भूमिका भी निभा रही हैं। यद्यपि इन आश्रमों और समाज में इनकी भूमिका पर सवाल उठाये जाते रहे हैं और यह चर्चा का विषय भी हो सकते हैं। लेकिन इस जीवन में आ चुकी साध्वियों ने महिला अखाड़े (परी) की घोषणा कर न केवल पुरुषों के वर्चस्व को चुनौती दी है वरन् सनातन धर्म के उस पारम्परिक सोच पर भी प्रहार किया है जो महिलाओं और पुरुषों में भेदभाव और स्त्रियों को दोयम दर्जे का मानने की वकालत करता है, और इस परम्परा को कायम रखना चाहता है।

महिला संतों, सन्यासियों ने ठीक छ: साल बाद पुरुष प्रधान संत समाज को फिर चुनौती दी है। पिछली बार की तरह इस बार भी महिला संतों की चुनौती को परम्परा के नाम पर खारिज किया जा रहा है। साथ ही महिला संतों की चुनौती को कथित तौर पर शास्त्र विरुद्ध बताया जा रहा है। महिला संतों ने अपने लिये अलग अखाड़ा बनाकर संत समाज को सीधे चुनौती दे डाली है।

माघ मेले के अवसर पर प्रयाग (इलाहाबाद) में वैदिक मंत्रोच्चार के बीच विधिवत रूप से महिला अखाड़े का गठन किया गया। प्रयाग स्थित बैकुंठधाम मुक्तिधाम अखाड़ा (परी) की शंकराचार्य सतगुरु त्रिकाल भवंता के शिविर में गत 13 फरवरी को संन्यासियों की बैठक में अखाड़े का गठन किया गया। पुरुष संतों-महात्माओं के तीखे विरोध के बाद भी सतगुरु त्रिकाल भवंता अपने सैकड़ों शिष्यों के साथ संगम के तट पर पहुँची और पाँच आचार्यों की देखरेख में गंगा स्नान के बाद पूजन व अभिषेक किया। इसके  बाद उनके शिविर में विधिपूर्वक, महिला संतों के लिए अलग अखाड़ा बनाया गया। महिला अखाड़े का नाम ‘सर्वेश्वर महादेव बैकुंठधाम मुक्तिद्वार आखाड़ा (परी) रखा गया है। अखाड़े का गठन क्यों किया गया? इस बारे में बताते हुए त्रिकाल भवंता ने कहा कि महिलाएँ सनातन धर्म की रक्षा के लिए आगे आएँ और उन्हें अपनी रक्षा का बोध हो, इसलिए अखाड़े का गठन किया गया है। उन्होंने कहा कि उनका अभी तक किसी अखाड़े से कोई सम्बन्ध नहीं था, अब उन्होंने अलग अखाड़ा बना लिया है तो वे धर्मरक्षा के लिए महिलाओं को एकजुट करेंगी।’

महिला अखाड़े को बनाने की पहली कोशिस गत वर्ष कुंभ के अवसर पर प्रयाग में ही की गयी थी लेकिन तब भी संतों के तीखे विरोध के चलते इसका गठन नहीं हो पाया था। इस वर्ष बसंत पंचमी के पावन पर्व पर 4 फरवरी 2014 को महिला अखाड़े के गठन पर महिला संतों ने बैठक की। उसके बाद 9 फरवरी 2014 को अखाड़े के नाम और उसके संविधान को अंतिम रूप दिया गया। उसी दिन घोषणा की गयी कि चतुर्दशी के दिन 13 फरवरी 2014 को गंगा स्नान के बाद महिला अखाड़े का विधिवत गठन किया जाएगा। इस बैठक में अलग-अलग सन्यास सम्प्रदाय से जुड़ी अनेकों महिला संतों व महामंडलेश्वरों ने महिला अखाड़े के गठन पर अपनी-अपनी राय रखी।

महिला अखाड़े के गठन की घोषणा होते ही संत समाज में इसका तीखा विरोध शुरू हो गया है। अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद् के अध्यक्ष महंत ज्ञानदास ने कहा, ‘‘किसी को गुमराह होने की आवश्यकता नहीं है। सन्यासियों, बैरागियों, उदासियों और निर्मलों के 13 अखाड़े हैं। इनमें महिला वाड़े अलग से मौजूद हैं।” महामंडलेश्वर संतोषी माता बोली, ‘‘जगद्गुरु शंकराचार्य द्वारा स्थापित परम्पराओं को बदला नहीं जा सकता। महिला संतों के लिए अलग से अखाड़ा बनाना परम्परा के विरुद्ध है।” माँ ज्ञानमयी ने कहा, ‘‘जो संत बन गया उसके लिए क्या पुरुष? क्या स्त्री’’ इसके विपरीत महिला अखाड़े के गठन में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करने वाली साध्वी मीरा, साध्वी सावित्री और साध्वी गीता कहती है, ‘‘मौजूदा अखाड़ों में उन्हें विशेष पहचान नहीं मिल पाती है। उन्हें पुरुष संतों से अधिक काम करना पड़ता है। महिला अखाड़े में दीक्षित संत की अब एक अलग पहचान होगी। उसे साधना के लिए सुरक्षित वातावरण देना, नए अखाड़े की पहली प्राथमिकता होगी।”
Women saints challenged

अखाड़ों में महिला संतों की एक तरह की उपेक्षा के आरोपों को अखाड़ा परिषद् के प्रवक्ता बाबा हठयोगी दिगम्बर नकारते हुए कहते हैं, ‘‘देश का संत समाज महाशक्तियों का उपासक रहा है। कुंभ की शाही सवारियों के समय महिला संत रथों पर सवार होकर चलती है। पुरुष संत उनके पीछे पैदल चलते हैं। तब महिला संतों के साथ भेदभाव की बात कहाँ से आती है?’’ अखाड़ों के विरोध के बाद भी भले ही महिला संतों के लिए अलग से अखाड़ा बना लिया गया हो, लेकिन इसकी मान्यता को लेकर सवाल भी उठ रहे हैं। आने वाले कुंभ में बिना अखाड़ों की मान्यता के वे शाही स्नान कैसे कर पाएंगी?  इस पर अभी कोई कुछ नहीं कह पा रहा है। अखाड़ों का महत्व कुम्भ के शाही स्नानों से जुड़ा हुआ है। स्त्री अखाड़ों के लिए कुम्भ के दौरान अलग-अलग समय स्नान के लिए निर्धारित रहता है। यह समय अखाड़ा परिषद के साथ विचार के बाद कुंभ प्रशासन तय करता है। कुम्भ के दौरान अखाड़ों के पेशवाइयों से लेकर उनकी वापसी और अखाड़ों के शाही स्नान के लिए जाने के दृश्यों से ही कुम्भ का वास्तविक वातावरण तैयार होता है।

एक-दूसरे के साथ पारम्परिक रूप से जुड़े होने के बाद भी कोई अखाड़ा दूसरे अखाड़े के साथ शाही स्नान नहीं कर सकता है। संत समाज में इस समय विभिन्न सम्प्रदायों के 13 अखाड़े हैं। इनमें से भी सिर्फ 9 अखाड़े ही कुम्भ में शाही स्नान के लिए अधिकृत हैं। इनमें निरंजनी अखाड़ा, महानिर्वाणी अखाड़ा, जूना अखाड़ा, दिगम्बर अणि अखाड़ा, निवार्णी अणि अखाड़ा, निर्मोही अणि अखाड़ा, बड़ा उदासी अखाड़ा, नया उदासीन अखाड़ा और निर्मल अखाड़ा शामिल हैं। इसके अलावा आनन्द अखाड़ा को निरंजनी अखाड़ा के साथ, अटल अखाड़ा को महानिर्वाणी अखाड़ा के साथ, अग्नि और आह्वान अखाड़ा के जूना अखाड़ा के साथ स्नान करना होता है। नए महिला अखाड़ा की असली परीक्षा अगले ‘कुंभ में होगी’ तब तक उसे अलग से शाही स्नान की अनुमति मिलती है या नहीं? या फिर अखाड़ा परिषद् उसे मान्यता देकर किसी और अखाड़े के साथ स्नान की अनुमति देता है या नहीं? यदि अनुमति नहीं मिली तो सन्यास परम्परा में नया अखाड़ा महिला संतों का एक आश्रम मात्र बनकर रह जाएगा।

यह पहला अवसर नहीं है जब महिला संतों ने पुरुष संतों को चुनौती दी हो। इससे पहले 12 जनवरी को हरिद्वार में संत समाज के विरोध के बाद भी अमेरिका में रहने वाली माँ योग शक्ति ने शंकराचार्य के समानान्तर महिला संतों के लिए पार्वत्याचार्य के पद की घोषणा के बाद उस पर माँ ज्योतिषानन्द का अभिषेक कर दिया था। माँ योग शक्ति निरंजनी से जुड़ी थी और महामंडलेश्वर थी। ज्योतिषानन्द को पार्वत्याचार्य बनाने के बाद निरंजनी अखाड़े ने उनसे महामंडलेश्वर की पदवी छीन ली थी। तीखे विरोध को देखते हुए दोनों महिला संत हरिद्वार से चली गयी थी। विरोध कर रहे संतों का कहना था कि शंकराचार्य पद के समानान्तर किसी दूसरे पद का सृजन किसी भी स्थिति में नहीं किया जा सकता है। ऐसा कोई भी प्रयास शास्त्र परम्परा दोनों के लिहाज से गलत है।

तब यह सवाल उठाया गया था कि भोलेनाथ शंकर के नाम पर यदि आचार्य की पदवी दी जा सकती है तो माँ पार्वती के नाम पर किसी पद का विरोध क्यों? ज्योतिषानन्द को पार्वत्याचार्य बनाया गया तो उन्हें शंकराचार्य पद के अनुरूप ही रजत दंड, कमंडल और छत्र प्रदान किया गया था। जो लोग इस पद को आद्य शंकराचार्य की परम्परा के खिलाफ बता रहे थे उनसे यह सवाल किया जा रहा था कि उस परम्परा को तो स्वयं संतों ने ही एक बार नहीं, अपितु कई बार तोड़ा है। केरल में 8वीं सदी में जन्मे अद्वैत वेदान्त के प्रवर्तक आद्य शंकराचार्य ने उत्तर में ज्योतिषमठ (बदरीकाश्रम) दक्षिण में श्रृंगेरी, पूर्व में जगन्नाथपुरी और पश्चिम में द्वारिका में ज्योतिपीठ, श्रृंगेरी पीठ, गोवद्र्धनपीठ और शमन्दापीठ की स्थापना की लेकिन आज पूरे देश में इन चार पीठों के चार शंकराचार्यों के अलावा और भी कई स्वयंभू शंकराचार्य हैं जिनकी संख्या इस समय 84 के लगभग है। इन स्वयंभू शंकराचार्यों को विरोध करने की बजाय संत समाज उन्हें पूरा मान-सम्मान देता है। ज्योतिषपीठ के तो तीन-तीन लोग शंकराचार्य होने का दावा करते हैं और संत समाज तीनों को शंकराचार्य के रूप में मान्यता देता है तो फिर पार्वत्याचार्य जैसे पद का विरोध क्यों?

क्या यह पुरुष प्रधान संत समाज का महिला संतों के प्रति भेदभाव नहीं दिखता? क्या वे महिला संतों को खुद से कमतर नहीं ऑकते हैं? माँ योग शक्ति का कहना था कि आदि शंकराचार्य ने जो भी परम्पराएँ बनाई वे तात्कालिक समाज के अनुरूप थी। तब तो शंकराचार्य के पास कोई धन-सम्पत्ति नहीं थी। आज के शंकराचार्यों के पास तो लाखों की सम्पत्ति है। तो शंकराचार्य की परम्परा को किसने तोड़ा? पार्वत्याचार्य व नए महिला अखाड़े की स्थिति संत समाज में जो भी हो, अखाड़ा परिषद् उन्हें मान्यता दे या नहीं, यह अलग सवाल है लेकिन महिला संतों ने पुरुष प्रधान समाज को चुनौती दे दी है।
Women saints challenged
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