स्वाधीनता संग्राम में अल्मोड़ा की महिलाओं का अभ्युदय

Women of Almora in Freedom Struggle
‘सरफरोशी की तमन्ना’ किताब से साभार

प्रो. मालविका पाण्डे

अपनी आर्थिक विकासशीलता और भौगोलिक दूरवर्तिता के बावजूद अल्मोड़ा जिला स्वाधीनता संग्राम में महिलाओं के आगमन व प्रतिभाग की रोचक मिसाल प्रस्तुत करता है। भारत की सामान्य परिस्थितियों के अनुरूप, कुमाऊं में भी नारी सहभागिता के सामाजिक अवरोधों में प्रमुख थी स्त्रियों के पार्थक्य की पर्दा प्रथा, जिसमें निहित स्त्री-पुरुष अलगाव की रीति के परिणामस्वरूप विशेषत: उच्च एवं मध्यम वर्गीय महिलाएं आमतौर पर अपने घरों के अन्दर ही सीमित रहतीं थी। तथापि कुछ ऐसे सहायक कारक भी थे, जिन्होंने इस परिस्थिति का शमन किया। आर्य समाज तथा ईसाई मिशनरियों के पथप्रदर्शक प्रयासों ने 20वीं सदी के प्रारम्भिक दशकों में विशेष तौर पर महिलाओं में साक्षरता एवं सामाजिक जागरूकता का प्रसार किया था। अल्मोड़ा से प्रकाशित राष्ट्रवादी साप्ताहिक पत्र ‘शक्ति’ एवं महात्मा गांधी की पत्रिकाएं ‘यंग इंडिया’ तथा ‘नवजीवन’, जिनका व्यापक प्रसार था, राजनीतिक चेतना के विस्तार के महत्वपूर्ण साधन बने। नैनीताल की एक कर्मठ समाजसेविका स्नेहलता जोशी, जो कालान्तर में हल्द्वानी में बस गईं, ‘शक्ति’ को कुमाऊं का संदेशवाहक कहती थीं।
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जनवरी 1921 में ‘कुली बेगार’ नामक उत्पीड़क व्यवस्था का जनसाधारण द्वारा स्वत:-स्फूर्त परित्याग कुमाऊं में स्वतन्त्रता आन्दोलन की एक बेहद महत्वपूर्ण घटना थी। इस प्रथा के अन्तर्गत इस अंचल में कार्यरत या आगन्तुक ब्रिटिश अधिकारी नाममात्र के पारिश्रमिक के बदले स्थानीय निवासियों से कठिन पहाड़ी क्षेत्रों पर जबरदस्ती अपना सामान पहुँचवाते थे। यदा-कदा इन सामग्रियों में गोमांस, पालतू पशु, आदि ‘निषिद्घ’ वस्तुएं भी होती थीं।  कुली बेगार के विरुद्घ व्यापक असन्तोष था और इसका उन्मूलन एक ज्वलन्त प्रश्न बन गया था। कालान्तर में ‘कुमाऊं  केसरी’ के नाम से विश्रुत बद्री दत्त पाण्डे, तथा हरगोविन्द पन्त, विक्टर मोहन जोशी आदि अग्रणी लोक-नेताओं ने कुली बेगार पर व्याप्त जन-आक्रोश को मूर्तमान करने हेतु प्रमुख तीर्थस्थल बागेश्वर के एक पारम्परिक धार्मिक-सामाजिक आयोजन ‘उत्तरायणी मेला’ को चुना। घोषणा के साथ ही इस प्रथा से संबन्धित सभी आधिकारिक दस्तावेजों व पंजियों को गोमती व सरयू के संगम में बहा दिया गया। वहां एकत्रित भीड़ ने सामूहिक शपथ ली कि वे फिर कभी बेगारी नहीं करेंगे। इस घटना का समूचे क्षेत्र पर गहरा सामाजिक एवं राजनीतिक प्रभाव पड़ा।

1920 के दशक में नायक महिलाओं के ‘उत्थान’ के आन्दोलन ने भी कुमाऊं में हलचल पैदा की। ये महिलाएं पिछड़े वर्ग से आती थीं तथा विकृत परम्पराओं व रूढ़ियों के अधीन विवशतावश वेश्यावृत्ति में संलग्न थीं। नायक महिलाओं को सामाजिक बन्धनों से मुक्त करने के लक्ष्य से गोविन्द बल्लभ पन्त ने संयुक्त प्रान्त विधान परिषद के अपने भाषणों में मजबूती से इस बात को प्रस्तुत किया तथा 1929 में अल्मोड़ा दौरे पर आये गांधी ने भी उनकी बात का पुरजोर समर्थन किया।

साइमन कमीशन विरोध आन्दोलन के दौरान लाहौर में पुलिस बर्बरता के परिणामस्वरूप लाला लाजपत राय की नवम्बर 1928 में दुखद मुत्यु ने भी जनता के आक्रोश व उसमें देशभक्ति की भावना को और अधिक प्रबल किया। उनके निधन से देश के अन्य भागों की तरह कुमाऊं में भी राष्ट्रवादियों को गहरा सदमा लगा।  अन्तत: 1929 में गांधी की उत्तराखण्ड यात्रा के फलस्वरूप राष्ट्रीय चेतना को मजबूती मिली तथा क्षेत्र में व्यापक जन-आन्दोलन की पृष्ठभूमि तैयार हुई।

जून 1929 में गांधी कुमाऊं दौरे पर गये थे और अपेक्षानुसार ही उन्होंने प्रचलित सामाजिक परिस्थितियों जैसे बेरोजगारी, पलायन, मद्यपान तथा छुआछूत पर सर्वाधिक प्रहार किया। 14 जून 1929 को नैनीताल में अपने भाषण में उन्होंने कहा कि लोगों ने अपने सर्वाधिक जरूरी आजीविका के साधन, जैसे हथकरघा, हस्त-बुनाई त्यागकर विदेशी वस्त्र अपना लिये हैं और इस प्रकार खुद साधनहीन होकर पलायन को विवश हो गये हैं। उन्होंने सभी भाइयों-बहनों से भय व विदेशी वस्त्रों को त्यागने का आग्रह करते हुए कहा कि ‘केवल चरखा ही उनकी भूख मिटाकर स्वराज ला सकता है, क्योंकि यही हजारों स्त्रियों को जीवन प्रदान करेगा। इसलिए उन सबको केवल हस्त-निर्मित मोटे वस्त्र ही पहनने चाहिये। गांधी ने अपने  श्रोताओं से शराबखोरी छोड़ने को भी कहा क्योंकि इससे केवल विनाश होता है, जैसे इसने यादवों का (महाभारत युद्घ के फलस्वरूप) विनाश कर दिया। उन्होंने कहा कि साम्प्रदायिक सद्भावना एवं छुआछूत का उन्मूलन स्वराज की अन्य शर्तें हैं, जिनके बिना हिंदू धर्म मिट जायेगा क्योंकि वह अद्वैतवाद, अर्थात सभी प्राणियों की एकता के सिद्घान्त पर आधारित है।
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गांधी जहां भी जाते राजनीतिक एकता व सहभागिता की आवश्यकता पर विशेष बल देते थे। वे लोगों से कांग्रेस के चार आना सदस्य बनने की अपील करते थे, जिसमें सदस्य बनते ही उन्हें सत्य एवं शान्तिपूर्ण साधनों से स्वराज प्राप्ति का संकल्प लेना होता था। राष्ट्रीय उद्देश्य में महिलाओं को शामिल करने के विशेष प्रयास के तौर पर उन्होंने महिलाओं से स्वैच्छिक आभूषण दान करने को भी कहा।

नये विचारों व दृष्टिकोणों को कुमाऊं और गढ़वाल अंचल के सुदूर इलाकों तक प्रसारित करने में  राष्ट्रवादी गीतों व कविताओं का सशक्त प्रेरणादायक योगदान रहा। सर्वाधिक लोकप्रिय एवं प्रभावशाली रचनाओं के सर्जक ‘गौर्दा’ के नाम से विख्यात कुमाउंनी भाषा के प्रतिष्ठित कवि गौरीदत्त पाण्डे की कविताओं के विषयों में वनाधिकार, चरखा एवं स्वदेशी से लेकर आर्थिक शोषण, छुआछूत एवं अन्य सामाजिक समस्याएं शामिल थीं। एक उदाहरण यहां उद्घृत है-

वन-वृक्ष, बेनाप जमीन, नदी घाट की पनचक्कियां, सब छिन गईं
नदियों में मछली मारने का भी हमें अधिकार नहीं रहा,
जंगल के कानून से पशुधन का ह्रास हो गया
हमें रोने भी तो नहीं देते, जबान पर प्रतिबन्ध है
अब देखते क्या हो कुमाऊं के वासियो ?
फूटा कठौता भी तो नहीं बचा।

गौर्दा के गीतों के माध्यम से चरखा एवं तकली कुमाऊं के दैनिक जीवन का हिस्सा बन गये।

अल्मोड़ा एवं नैनीताल की अग्रणी राजनीतिक कार्यकत्र्री कुन्ती देवी वर्मा के अनुसार, 1920-22 के असहयोग आन्दोलन के दौर में भी अल्मोड़ा के नन्दा देवी मन्दिर तथा नगर के समीप नारायण तिवारी देवालय में आयोजित सार्वजनिक सभाओं में महिलाएं उत्साह के साथ शामिल होती थीं। होली जैसे त्योहारों तथा अन्य निजी एवं सार्वजनिक समारोहों पर महिलायें परम्परागत लोकगीतों के स्थान पर राष्ट्रीय गीत गाती थीं। पुरुषों एवं स्त्रियों में चरखा चलाना लोकप्रिय हो गया तथा खादी पहनना राष्ट्रीय गौरव का प्रतीक बन गया था।  कुमाऊं  केसरी श्री बद्री दत्त पांडे की पुत्रवधू श्रीमती हेमलता पांडे तथा कुन्ती देवी वर्मा के अनुसार जेल को जाने वाले सत्याग्रहियों को तिलक-अभिषेक एव उन पर पुष्प-वर्षा करना महिलाओं के लिए एक सामान्य दायित्व हुआ करता था।

बिश्नी देवी साह कुमाऊं  की एक अन्य प्रमुख राजनीतिक कार्यकत्र्री थीं। कुन्ती देवी वर्मा की भांति ही वह बहुत छोटी उम्र में विधवा हो गई थीं और उनका एक पुत्र था। वह अधिक शिक्षित नहीं थीं, परन्तु इसका उनकी सामाजिक एवं राजनीतिक गतिविधियों पर कुछ अन्तर नहीं पड़ा। 1930 में बिश्नी देवी, दुर्गा देवी पन्त, तुलसी देवी रावत, भक्ति देवी त्रिवेदी तथा बच्ची देवी पाण्डे ने मिलकर सौ स्वयंसेवकों के साथ एक महिला समूह भी बनाया था।

अप्रैल 1930 में गांधी द्वारा नमक सत्याग्रह के आरम्भ के फलस्वरुप अल्मोड़ा में भी महिलाओं द्वारा प्रथम जुलूस निकाला गया। 25 मई 1930 को वहां के कांग्रेसी नेताओं ने नगरपालिका भवन पर राष्ट्रीय ध्वजारोहण का निर्णय लिया और इसी उद्देश्य से विक्टर मोहन जोशी तथा शान्ति लाल त्रिवेदी के नेतृत्व में कांग्रेस स्वयंसेवकों का जुलूस निकला था, जिसमें  स्त्रियां भी शामिल थीं। उन्हें सशस्त्र गोरखा मिलिट्री पुलिस द्वारा रोका गया एवं अलग-अलग होने को बोला गया। इससे इन्कार करने पर उनके साथ बलपूर्वक हिंसा की गई जिसमें विक्टर मोहन जोशी को घातक घाव लगे तथा शान्तिलाल त्रिवेदी की अनेक हड्डियां टूट गयीं।

इस दुखद घटना से सभी राष्ट्रवादियों का उत्साह और भी तीव्र और दृढ़ हुआ और नगरपालिका भवन पर तिरंगा फहराने के लिये वह अधिक संकल्पित हो उठे। अल्मोड़ा के जौहरी मोहल्ला की कुन्ती देवी वर्मा, मंगला देवी वर्मा, भागीरथी वर्मा, जीवन्ती देवी ठकुरानी तथा रेवती देवी वर्मा नामक पांच महिलाओं के एक शिष्ट मण्डल ने खुद ही राष्ट्रीय ध्वज फहराने का निश्चय किया। उस समय के महत्वपूर्ण नेताओं जैसे बद्रीदत्त पाण्डे, देवी दत्त पन्त आदि ने भी उनको सम्पूर्ण समर्थन दिया था और अन्तत: वह अपने उद्देश्य में सफल भी रहीं।
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कुन्ती देवी वर्मा

अभिलेखों व संवादों से ज्ञात होता है कि 1930 तथा 1932 के दौरान अल्मोड़ा जिले की महिला कार्यकर्ता जुलूसों में भाग लेती थीं और कभी-कभी उनका नेतृत्व भी करती थीं। विदेशी वस्त्रों एवं शराब की दुकानों पर धरना भी देती थीं। जनवरी 1932 से पुलिस ने ऐसी गतिविधियों का निष्ठुरता से दमन शुरू कर दिया और गिरफ्तारियां एवं सजाएं भी हुईं। बिश्नी देवी को दो महीने का कठोर कारावास एवं 10 रुपए का जुर्माना लगाया गया, जिसे न देने के कारण उनके कारावास की अवधि एक महीने बढ़ाई गई। जीवन्ती देवी तथा भागीरथी वर्मा को भी वैसा ही दण्ड दिया गया, जबकि हरिप्रिया देवी को एक वर्ष का कठोर करावास मिला। कारावास की सम्भावना उनमें से किसी को विचलित न कर सकी। बिश्नी देवी अक्सर गाया करती थीं-

जेल न समझो बिरादर, जेल जाने के लिये
यह कृष्ण मंदिर है, प्रसाद पाने के लिये।

कुन्ती देवी वर्मा तो और अधिक साहसी थी। 1932 में वह राजनीतिक कार्यकर्ताओं के एक समूह के साथ हल्द्वानी पहुंची और विदेशी वस्त्रों की दुकानों पर धरना देने की जिम्मेदारी अपने हाथों में ले ली। वहां इस समूह में पद्मा देवी जोशी, भागीरथी देवी तथा पाणी देवी जोशी भी जुड़ गईं। इन सभी सत्याग्रहियों को गिरफ्तार करके अलग-अलग अवधियों का कारावास दिया गया।
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मई 1932 में जेल से बाहर आने के तुरन्त बाद से ही बिश्नी देवी ने सम्पूर्ण समर्पण एवं उत्साह से खादी प्रसार का कार्य अपने हाथों में ले लिया। अल्मोड़ा के किसी दुकान में खादी नहीं बिकती थी, जबकि चरखा दस रुपए में बिकता था। बिश्नी देवी ने चरखे का मूल्य घटाकर केवल पांच रुपए करवाया और साथ ही चरखा बेचने तथा उसे चलाने का प्रशिक्षण देने घर-घर  भी गईं। इसी क्रम में वह महिलाओं को घरों से बाहर निकलने एवं सार्वजनिक कार्यों में भाग लेने को प्रोत्साहित भी करती थीं। 7 जुलाई 1933 को उन्हें दोबारा गिरफ्तार करके नौ महीने का कारावास एवं 200 रुपए जुर्माना लगाकर फतेहगढ़ जेल भेज दिया गया। जुर्माना अदा न करने के कारण कारावास अवधि कुछ महीने बढ़ाई गई थी।

ब्रिटिश हुकूमत के भारतीय अधिकारी राष्ट्रीय आंदोलन के प्रति प्रत्यक्ष सहानुभूति भले ही नहीं रखते थे, किंतु उनकी पत्नियां इसका खुलकर समर्थन करती थीं। 1920 एवं 1930 के दशक में अल्मोड़ा के सिविल सर्जन एवं जेल निरीक्षक की पत्नी गंगा देवी जोशी उसमें से एक थी। वह हमेशा खादी पहनती थी, चरखा चलाती थी, राजनीतिक कैदियों के परिवारों की सहायता करती थीं और भारत छोड़ो आंदोलन के समय, जब वह नैनीताल में थी, निरपेक्ष भाव से भूमिगत कार्यकर्ताओं को, जिनमें श्याम लाल वर्मा एवं शान्ति लाल त्रिवेदी शामिल थे, आश्रय भी देती थीं। ब्रिटिश प्रशासन में एक वरिष्ठ अधिकारी की पत्नी होने के कारण पुलिस उन पर सन्देह नहीं करती थी। कम-उम्र की विधवाओं एवं जरूरतमन्द बच्चों की स्वैच्छिक सहायता के कारण भी गंगा देवी को याद किया जाता है। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात उन्होंने नैनीताल के 90 अंत:वासियों की क्षमता के महिला आश्रम का प्रभार भी संभाला।

1940 तथा 1941 में सम्पन्न व्यक्तिगत सत्याग्रह आन्दोलन में भी महिलाएं सबसे आगे थीं। चूंकि प्रचार-प्रसार इस अभियान का मूलभूत तत्व था, कुन्ती देवी वर्मा महिला स्वयसेवकों के एक दल के साथ हल्द्वानी, कालाढूंगी एवं कोटाबाग के दौरे पर गईं। कोटा पाटकोट में उनके साथ चन्द्रा देवी वर्मा, भवानी देवी जोशी, सरस्वती देवी एवं अन्य महिलाएं जुड़ गईं और यह समूह पैदल ही सत्याग्रह के सन्देश को दोन-परेवार, ओखल डूंगा, तल्ली सेटी, बेतालघाट, सिमलखा तथा मघेरा तक लेकर गया। कुन्ती देवी याद करते हुए बताती हैं कि वे लोग जहां भी गये, प्राय: आम लोगों ने उत्साहजनक प्रतिक्रिया दिखाई और जैसे-जैसे वे आगे बढ़े, बहुत लोग जुड़ते गये। नैनीताल पहुंचने पर यह सभी युद्घ-विरोधी भाषण देते हुए छोटे समूहों में आगे बढ़े परन्तु गिरफ्तार नहीं किये गये। अंतत: सब सचिवालय तथा गवर्नर निवास में जबरदस्ती प्रवेश करने के आरोप में गिरफ्तार कर लिये गये।  कुछ को साधारण सजाएं हुईं, परन्तु कुन्ती देवी वर्मा तथा पाटकोट की चंद्रा देवी वर्मा को जुर्माने के साथ छह महीने का कठोर कारावास हुआ।
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व्यक्तिगत सत्याग्रह आन्दोलन में बिश्नी देवी को गिरफ्तार कर कारावास दिया गया। बागेश्वर के राजपूत परिवार की हरुली देवी को भी जेल भेजा गया। इससे पूर्व उन्होंने सामाजिक परिपाटी को भंग करते हुए क्षेत्र में दौरे पर आये गांधी की डोली को रोककर उनकी आरती उतारने की इच्छा प्रकट की थी।

सालम क्षेत्र में प्रचण्ड ग्रामीण सहभागिता के एक अन्य उदाहरण का यहां उल्लेख किया जा सकता है। प्रसिद्घ स्वतन्त्रता सेनानी राम सिंह आजाद जब व्यक्तिगत सत्याग्रह आंदोलन हेतु स्वयंसेवकों की भर्ती के लिए गांव-गांव जाते थे तब मल्ला सालम में प्रताप सिंह के घर भी रुके थे। वहां प्रताप की माता दुर्गा देवी ने अपने छोटे पुत्र पूरन सिंह का हाथ आजाद के हाथों में रखते हुए कहा था-‘‘अब मैं राष्ट्र सेवा के लिए इसे तुम्हें सौंप रही हूं। तुम इसे राष्ट्र के लिए जेल भेजो या फांसी पर चढ़ा दो।’’ इन्हीं शब्दों के साथ उन्होंने अपने पुत्र को तिलक लगाकर 24 मार्च 1941 को राम सिंह आजाद के साथ विदा कर दिया। इन्हीं दुर्गा देवी ने अपने दो स्वर्णिम कर्णफूलों में से एक गांधी स्मारक निधि में दान कर दिया था और यह कहते हुए दूसरा रोका कि वह उनके अन्तिम संस्कार में काम आयेगा। यह आभूषण भी उन्होंने 1962 में भारत पर चीनी आक्रमण के समय राष्ट्रीय सुरक्षा निधि में दानस्वरूप दे दिया।

भारत छोड़ो आन्दोलन में भी अल्मोड़ा जिले की महिलाओं ने नृशंस सरकारी दमन के बावजूद सक्रिय भाग लिया था। सामान्यत: वह प्रतिबन्धित साहित्य का वितरण और भूमिगत राजनीतिक कार्यकर्ताओं की सहायता का कार्य करती थीं। 8 मार्च 1943 को रानीखेत तहसील में गोला गांव की राधा देवी को छह महीने के कठोर कारावास की सजा हुई और उन्हें संयुक्त प्रान्त से बाहर भेजकर पंजाब के हिसार जेल में रखा गया था। रानीखेत की ही मालती देवी भट्ट को कठोर सजा मिली, उनको 8 मई 1943 को लाहौर जेल भेज दिया गया।

भारत छोड़ो आन्दोलन में बहुत लोगों की जान गई, क्योंकि निहत्थी भीड़ें राष्ट्रवादी उमंग में पुलिस को चुनौती देती थीं। भूमिगत कार्यकर्ताओं की संपत्ति की जब्ती तथा उसके बाद नीलामी भी लोगों के उत्साह को डिगा न सकी। इन सभी गतिविधियों में महिलाओं की सम्पूर्ण व समग्र भागीदारी रही। बहुतों ने अपने आभूषण बेच दिये थे, जबकि अन्य अपने बच्चों के भोजन से बचत करके लगातार महीनों तक भूमिगत रहने वाले कार्यकर्ताओं को भोजन भेजती थीं। ऐसी भी घटनाएं हुई जब धमकी देने, डराने या फरार व्यक्ति के बारे में पता करने आये सरकारी अधिकारियों पर महिलाओं ने हंसिया से आक्रमण कर दिया था।

कुमाऊं में घटित स्त्री-शक्ति के दृष्टान्तों और गाथा को भारत में बस गई एक अंग्रेज महिला ने विशेष तौर पर दर्ज किया है। उनका मूल नाम कैथरीन मैरी हेलमॅन था और वह गांधी की शिष्या बन गई थीं। गांधी ने उनको सरला बहन नाम दिया था और वह अल्मोड़ा में गाँधी की प्रेरणा से शान्तिलाल त्रिवेदी द्वारा स्थापित चनौदा आश्रम की प्रबन्धक नियुक्त की गई थीं। उन्होंने लिखा है कि चाहे खेत हो, घर या जंगल हो, महिलाएं सब कुछ सम्हालती थीं। उनके अनुसार भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान आश्रम में कार्यरत सभी पुरुष या तो गिरफ्तार कर लिये गये थे या ‘फरार’ हो गये थे, जिसके उपरान्त, पुलिस ने उनकी सम्पत्ति की नीलामी कर दी और उनके परिवार की महिलाओं का उत्पीड़न शुरू कर दिया था। जो कोई भी इन महिलाओं की सहायता करने का प्रयत्न करता, उसे भी धमकाया जाता था। ऐसी परिस्थिति में जिन महिलाओं के पास जमीन थी, वे उसे स्वयं या बटाईदारी से जोतकर या पशु पालकर, दूध बेचकर, ऊनी धागा कातकर, स्वेटर बुनकर तथा उनको बेचकर गुजारा करती थीं। सन्ध्या के समय यही महिलाएं एक साथ इकट्ठा हो नृत्य और गायन करती थी क्योंकि राष्ट्रहित में जेल जाना उनके लिए गौरव की बात थी।
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सरला बहन स्मरण करती है कि आश्रम के फरार अंत:वासियों में से एक को फांसी की सजा सुनाई गई थी। उसको एक शिक्षक मित्र ने शरण दी, लेकिन शीघ्र ही शिक्षक का तबादला हो गया। व्याकुल हुए बिना शिक्षक की पत्नी ने महीनों तक फरार व्यक्ति को इतनी सफलतापूर्वक आश्रय दिया कि पुलिस पता नहीं लगा सकी। एक अन्य गांव में एक कार्यकर्ता की गिरफ्तारी तथा उसकी जमीन की नीलामी के बाद उसकी पत्नी और बच्चे भुखमरी के कगार पर पहुंच गये थे। 1942 में स्वयं जेल जाने से पूर्व सरला बहन ने उस परिवार के लिए कुछ खाद्य-अनाज का प्रबंध किया तथा उनकी कुछ गिरवी जमीन भी छुड़वा दी थी। कुछ समय के बाद जब सरला बहन आयीं तब उस परिवार को खुश और सकुशल देखकर हैरान हुईं। पूछने पर, उस मां ने जवाब दिया कि आप (सरला बहन) द्वारा छोड़े गए खाद्यान्न से उनका कुछ समय तक पालन हुआ। उसके बाद उसके बच्चे खेत में काम करते थे जबकि वह स्वयं जंगल से ईंधन की लकड़ियां इकट्ठा करके बेचती थी एवं अन्य शारीरिक श्रम करती थी। परिणामस्वरूप, पर्याप्त भोजन एवं वस्त्र हो जाता था और उसका एक पुत्र स्कूल भी जाने लगा था। सरला बहन लिखती हैं कि कुमाऊं की महिलाओं के इसी अदम्य साहस का परिणाम था कि बाद में उन्होंने शराबबन्दी आन्दोलन भी चलाया।

बिश्नी देवी साह

बिश्नी देवी साह सम्भवत: अल्मोड़ा में राष्ट्रीय आंदोलन की नायिका रहीं एवं इस आलेख को उनके विषय में कुछ शब्दों के साथ समाप्त करना उपयुक्त होगा। 1934 वह जिला कांग्रेस की कार्यकारिणी के लिये चुनी गईं। बागेश्वर में 10 से 15 जनवरी 1935 तक आयोजित उनकी स्वदेशी प्रदर्शनी के लिए उन्हें उत्कृष्टता के प्रमाण-पत्र से भी सम्मानित किया गया था।  23 जुलाई 1935 को विजयलक्ष्मी पण्डित के साथ मिलकर उन्होंने नन्दा देवी मैदान में तथा मोतियाधारा में नवीन कांग्रेस भवन पर राष्ट्रीय ध्वज फहराया। 26 जनवरी 1940 को उन्हें पुन: यह गौरव प्रदान किया गया। 17 अप्रैल 1940 को नन्दा देवी के निकट स्थापित नवीन कताई केंद्र का प्रबंधक भी उनको ही नियुक्त किया गया। 15 अगस्त 1947, को पहले स्वतन्त्रता उत्सव में उन्होंने राष्ट्रीय ध्वज के साथ अल्मोड़ा में मीलों लम्बी शोभायात्रा का नेतृत्व किया था।

अमृत बाजार पत्रिका ने 30 अक्टूबर 1930 को लिखा था कि अल्मोड़ा और नैनीताल ने संयुक्त प्रान्त में सविनय अवज्ञा आंदोलन का नेतृत्व किया और विशेषकर अल्मोड़ा, जहां बिश्नी देवी की भूमिका सर्वोपरि एवं उत्कृष्ट थी। उनके विषय में निम्नलिखित पंक्तियां लोकप्रिय हुई थी –

खद्दर की ही धोती पहने और खद्दर का ही कुर्ता
एक हाथ में खद्दर का झोला और दूजे हाथ में शूरजयी तिरंगा।

दुर्भाग्य से स्वतंत्रता के बाद विश्नी देवी को न कोई पहचान प्राप्त हुई और न ही उनकी प्रतिभा का लाभ लिया गया। वह अभाव में जीती रहीं और 1974 में 73 वर्ष की वय में उन्होंने अन्तिम सांसें लीं।  
(Women of Almora in Freedom Struggle)

प्रो. मालविका पाण्डे, इतिहास विभाग, बी.एच.यू., वाराणसी

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