उत्तराखंड में पंचायती चुनाव और महिलाएं: कुछ अनुभव-कुछ बातें

Women in Uttarakhand Panchayat Chunav
फोटो: सुधीर कुमार
-डा. पूरन जोशी

उत्तराखंड में हाल में हुए पंचायती चुनावों में  50 प्रतिशत आरक्षण ने महिलाओं को इन चुनाओं में बराबर भागीदारी का मौका दिया है या ऐसे कहना चाहिए यह मौका महिलाओं ने लम्बे संघर्ष के बाद अपने लिए हासिल किया है। राजनीति में महिलाओं की इस भूमिका के लिए काफी कुछ लिखा-बोला जाता है। बहुत कुछ नकारात्मक और कम सकारात्मक। हमारे जैसे विकासशील समाजों में ये बात बहुत आम है लेकिन इन सवालों पर सोचने की बहुत जरूरत महसूस होती है। अगर हम आंकड़ों को देखें तो संसद और राज्यों की विधानसभाओं में महिलाओं की भागीदारी सिर्फ 8-9 प्रतिशत है वहीं पंचायतों में यह 50 प्रतिशत  है। लोकतांत्रिक प्रक्रिया को समझने का यह प्रथम चरण है। इस लेख में उत्तराखण्ड के अल्मोड़ा जिले में हुए 2019 के पंचायती चुनावों के आधार पर कुछ कहने का प्रयास किया गया जो कि महिला प्रतिनिधियों से बातचीत और मेरे खुद के कुछ अनुभवों पर आधारित है।
(Women in Uttarakhand Panchayat Chunav)

अगर वर्तमान भारत में पंचायती राज की बात करे ंतो इस संदर्भ में 24 अप्रैल 1993 भारत में पंचायती राज के क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण मार्ग चिन्ह था क्योंकि इसी दिन संविधान (73वां संशोधन) अधिनियम, 1992 के माध्यम से पंचायती राज संस्थाओं को संवैधानिक दर्जा हासिल हुआ और इस तरह महात्मा गांधी के ग्रामस्वराज के स्वप्न को वास्तविकता में बदलने की दिशा में कदम बढ़ाया गया था।

73वें संशोधन अधिनियम, 1993में निम्नलिखित प्रावधान किये गये हैं।
एक त्रि-स्तरीय ढांचे की स्थापना (ग्राम पंचायत, पंचायत समिति या मध्यवर्ती पंचायत तथा जिला पंचायत)
ग्राम स्तर पर ग्रामसभा की स्थापना
हर पांच साल में पंचायतों के नियमित चुनाव
अनुसूचित जातियों ज़नजातियों के लिए उनकी जनसंख्या के अनुपात में सीटों का आरक्षण
महिलाओं के लिए एक तिहाई सीटों का आरक्षण
पंचायतों की निधियों में सुधार के लिए उपाय सुझाने हेतु राज्य वित्त आयोगों का गठन
राज्य चुनाव आयोग का गठन
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पंचायतों में महिलाओं के प्रतिनिधित्व के इतिहास पर नजर डालें तो इस सम्बन्ध में बिहार सरकार के पंचायती राज विभाग की वेबसाईट पर मिली एक जानकारी का यहाँ उल्लेख करना मुझे महत्वपूर्ण लगता है। पुणे जिले के कमलाबाई काकड़े नाम की एक महिला ने यह अपनी सहयोगी महिलाओं से एक सवाल पूछा था। यह महिला 1963 से 1968 तक की अवधि के लिए सरपंच चुनी गयी थी। पहली बार पुणे जिले के बारामती तालुका में निम्बुट नामक गाँव में सर्व-महिला पंचायत बनी थी। कई महिलाएं चुनाव लड़ने से डर रही थीं लेकिन कमलाबाई  ने उनकी हिम्मत दिलाई।  डरना क्यों? उन्होंने पूछा, अगर तुम घर चला सकती हो तो पंचायत क्यों नहीं चला सकती? यह प्रश्न आज हर स्त्री-पुरुष को कुछ सोचने पर मजबूर करता है।

पांच साल के अंदर निम्बुट की सर्व-महिला पंचायत ने ग्राम पंचायत के कार्यालय भवन का निर्माण किया, स्कूल की मरम्मत की और गाँव के लिए विद्युत आपूर्ति स्कीम मंजूर की। उन्हें जीप में बैठकर तालुका मुख्यालय में बैठक में भाग लेने का अनुभव भी प्राप्त हुआ और आमसभा में कुर्सी पर बैठकर अपनी राय व्यक्त करने का भी अनुभव मिला। कुछ महिलाओं को औपचारिक शिक्षा प्राप्त नहीं थी लेकिन घर के बाहर कदम रखने के फलस्वरूप उनको जो आत्मविश्वास प्राप्त हुआ उससे दूसरी महिलाओं का मार्गदर्शन हुआ, जो दूसरे इलाकों में ग्रामपंचायत के चुनावों में भाग लेना चाहती थीं।
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प्रस्तुत लेख को लिखने के लिए अल्मोड़ा जिले के द्वाराहाट ब्लॉक में 20 महिला ग्रामप्रधानों का साक्षात्कार किया़ जिनमें दलित और सामान्य  दोनों वर्गों की महिलाओं को शमिल किया गया। कुछ महिलाओं से अल्मोड़ा में नामांकन के दिन बात हुई। इनमें कुछ पहले चुनी हुई महिलाएं थीं जो दुबारा चुनाव लड़ रही थीं और कुछ पहली बार चुनाव मैदान में थीं। एक मुख्य बात जो देखने में आई वह ये कि जो औरतें दुबारा चुनाव लड़ रही थीं उनमें उनकी तुलना में जो पहली बार अपनी दावेदारी कर रही थीं आत्मविश्वास काफी ज्यादा था,  यह बात काफी महत्वपूर्ण लगती है। लोकतंत्र का एक उजला पक्ष यह भी है कि व्यक्ति को उसके व्यक्तित्व के विकास के समुचित अवसर मिलें जिससे वह खुद को ठीक से अभिव्यक्त कर  पाये।

इसके साथ ही इस कुछ स्थानीय पढ़े-लिखे युवाओं से भी बात की कि महिलाओं को जो पंचायतों में आरक्षण मिला है उसको वे कैसे देखते हैं? इसके जवाब में उन्होंने कहा कि महिलाओं को चुनकर आना चाहिए। संविधान से  जो समानता के अधिकार मिले हैं उनका क्या होगा? महिलाएं कैसे आएँगी? पुरुष प्रधान समाज उनको आने कहाँ देगा आगे? इस तरह की बात युवा लोगों से सुनकर अच्छालगा। कुछ बीएड. के बच्चों से बात की, उनका कहना था महिलायें भ्रष्टाचार भी कम करती हैं। यह उनकी अपनी सोच हो सकती है़, शायद कुछ हद तक सभी की। कुछ युवाओं का कहना था कि महिला अगर पढ़ी-लिखी हो तो ज्यादा अच्छा काम करती है। अगर वह स्वतंत्र रूप से सोच पाये तो और अच्छा है क्योंकि अक्सर औरतों के निर्णय भी पुरुषों द्वारा ही लिए जाते हैं जिससे सिस्टम को और ज्यादा नुकसान होने का खतरा रहता है। ऐसा हम अक्सर  देखते भी हैं।

महिला प्रधानों के साथ हुए साक्षात्कार में दैरी गाँव की पुष्पाजी से हुई बात में उन्होंने साझा किया कि प्रधान बनने के बाद उनमें कई बदलाव आये़ इससे पहले वे मंगल दल की अध्यक्ष भी थीं। उनका कहना है वे गलत को सहन नहीं करती हैं कई कार्यक्रमों में वे बाहर गईं राज्य और जिले से भी बाहर जाने का मौका मिला़ स्वच्छ भारत अभियान के तहत हरियाणा जाने के लिए जिले से कुछ ग्राम प्रधानों का चयन हुआ उनमें वे भी थीं उनका कहना था कि वहां कई लोग आये थे़ बहुत कुछ सीखने को मिला. ग्राम प्रधान के रूप में गाँव में उन्होंने कई काम करवाए, जिनमें शौचालय निर्माण, पोल्ट्री उद्योग आदि प्रमुख हैं प्रधान बनने के बाद उनके आत्मविश्वास में बहुत वृद्धि हुई़। कुंस्यारी की रेनूजी का कहना था प्रधान बनकर काफी अच्छा लगा. इससे उनको समाज से जुड़ने का मौका मिला़ प्रधान बनने के बाद उन्होंने सही तरीके से बात रखना सीखा. गाँव के लिए काम करना अच्छा लगता है़ आप जब बाहर निकलते हो तो बहुत चीजें सीखते हो़ सारे गाँव के लिए आपको अच्छे काम करना चाहिए।

मजेठी गाँव की हंसी देवी ने सीधे कहा आप क्या पूछना चाहते हो? मेरा काम देखो। हमारे गाँव आओ़ सुनकर अच्छा लगा़ उन्होंने सीधे कहा कि मैंने हमेशा अपने दस्तखत खुद किये़ पंचायत घर काफी समय से नहीं बना था, वह मेरे ही कार्यकाल में बना़ इस सवाल पर कि महिलाओं को चुनाव में उतरना चाहिए कि नहीं तो उनका जवाब था बिलकुल उतरना चाहिए़ अगर औरत दौड़-भाग करने वाली हो तो काफी अच्छा काम कर सकती है़ हमारे ब्लॉक में भी लोग मुझसे खुश हैं मैं आगे अपनी बहु को चुनाव लड़ने को कहूँगी अगर उसकी इच्छा हुई तो। पहाड़ों में गांवों की हालत खराब है़ नशे की समस्या है़  इसे दूर करने की जरूरत है़।

दड़माड़ गाँव की पूर्व प्रधान गीता देवी ने बताया कि वे स्वयं सहायता समूह कि सदस्य थीं। लोगों ने कहा कि चुनाव लड़ो हम साथ देंगे और वे जीत के आईं उनका कहना था सरकार ने महिलाओं और दलितों के लिए जो सीटें पंचायती चुनाव में आरक्षित की हैं, वह एक काफी अच्छा कदम है़ इससे गरीब वर्ग के लोग भी आगे आ रहे हैं। उनका कहना था गाँव में उनको पुरुषों का कम सहयोग मिला़ उन्होंने अपने प्रधानी के ज्यादातर काम अकेले किये-बेटे आदि से भी बहुत सहयोग नहीं लिया़ अगर मुझे आगे और मौका मिला तो जरूर चुनाव लडूंगी़ प्रधान बनने के बाद सोचआगे बढ़ी़ बहुत सारी नईं बातें मालूम हुईं। पहले औरतें कहाँ बाहर ऐसे निकलती थीं मुझे जिला, ब्लॉक आदि जाने का अवसर मिला जो कि अच्छी बात है।
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साथ ही साथ कुछ ऐसे पक्ष भी इन चुनावों में दिखाई दिये जो कहीं न कहीं समाज में गैरबराबरी को पोषित करते हैं ज़ैसे प्रचार के लिए तैयार किये गये अधिकांश पोस्टरों में ये पता ही नहीं चल पा रहा था कि प्रत्याशी पति/ससुर है या कोई महिला। दोनों के नाम बड़े अक्षरों में लिखा हुआ था और तस्वीर भी काफी बड़ी थी। असमंजस बना ही था कि निवेदक कौन है और प्रत्याशी कौन? पितृ सत्ता कि गहरी जड़ें हैं इतनी जल्दी जाएँगी नहीं। कई जगह उठी तो पत्नी थी लेकिन लोगों को यह कहते सुना कि फलां सिंह या ये चन्द्र चुनाव लड़ रहा है। एक बार हम एक स्कूल में गये थे़ यह स्वतन्त्रता दिवस का पहला दिनथा, तो शिक्षिका कह रही थीं सिंग राम जी को बुलाना है कल।बाद में पता लगा कि वे प्रधानपति हैं।

एक और बात ज्यादातर जगहों में महिला या दलित आरक्षित सीटों पर ही चुनाव लड़ रहे थे़ मेरे द्वारा कहीं भी यह देखने में नहीं आया कि सामान्य सीट पर कोई महिला या दलित व्यक्ति ने चुनाव में अपनी उम्मीदवारी रखी हो। यह भी लोकतंत्र में एक घातक प्रवृत्ति है। 

पंचायतों में महिलाएं ठीक से काम नहीं कर पाती। इसके पीछे का प्रमुख कारण है पुरुषों के द्वारा उनकी सर्वस्वीकार्यता का न होना़ बेटा या पति या पिता का उनको मदद देना सहयोग के लिए नहीं होता बल्कि अपनी सत्ता स्थापित करने के लिए होता है़ इसके पीछे भी हमारी युगों-युगों की पितृसत्ता ही जिम्मेदार है़ औरतों को दोयम समझने की प्रवृत्ति उनको सहयोगात्मक रवैया रखने से रोकती है़  पंचायतों में महिला उमीदवार सम्मानजनकढंग से काम कर सकें इसके लिए विद्यालयीस्तर पर लोकतान्त्रिक प्रक्रिया की समुचित जानकारी बच्चों को देना काफी जरूरी लगता है़ स्कूल ही वह जगह है जो हमको लोकतान्त्रिक मूल्य सिखा सकता है़ स्कूलस्तर पर बाल सरकार बनाना, चुनाव करवाना, बच्चों को अपनी बात निष्पक्ष तरीके से रखना सीखाना आदि चीजें विद्यालय में भली-भांति सिखाई जा सकती हैं और बचपन में विद्यालय में सीखी गई चीजें व्यक्ति भूलता नहीं है। अगर ये सब बातें उनको जीना सिखा दिया जाये़ खासकर को-एड वाले स्कूलों में ये होना चाहिए़ लड़कियों और लड़कों को बराबर अवसर देकर समता-समानता के मूल्य स्थापित किये जायें ताकि भविष्य में लड़कों को लड़कियों-महिलाओं के साथ सौहार्दपूर्वक कंधे से कंधा मिलाकर काम करने की आदत बचपन से ही हो जाये। इसे अलग से सिखाना न पड़े।

लेकिन कितनी भी कमियां हों, कैसे भी उदास मौसम हों पर इन महिलाओं को अब कोई इनकी सफलता की इबारत लिखने से नहीं रोक सकता है़ युगों-युगों से सार्वजनिक जीवन से कटी रहने वाली ये महिलाएं अब बाहर निकली हैं। फिजाओं में गहमा-गहमी होना तो तय है। कइयों को बुरा भी लगेगा़ वे ये तर्क भी देंगे कि ऐसे थोड़े देश चलते हैं या सत्ता चलती है पर इन औरतों को रुकना नहीं है़ आगे बढ़ते ही रहना है बढ़ते जमाने का यही इशारा है।
(Women in Uttarakhand Panchayat Chunav)

संदर्भ: विकीपीडिया, बिहार पंचायती राज विभाग

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