जिम कॉर्बेट के लेखन में महिलायें

शीला रजवार

अमेरिकन साइंटिस्ट बेंजामिन फ्रेंकलिन ने कहा है कि अपना वजूद साबित करने के लिये इंसान को ऐसा जरूर लिखना चाहिये जो दूसरा पढ़ना चाहे और यदि कोई लिख नहीं पाये तो उसे ऐसे काम जरूर करने चाहिये कि लोग उन कामों के बारे में ऐसा कुछ लिखें जो पढ़ने लायक हो। जिम कॉर्बेट के बहुआयामी व्यक्तित्व के साथ इस कथन के दोनों पक्ष अक्षरक्ष: चरितार्थ होते हैं। 

जिम कॉर्बेट का जन्म 25 जुलाई 1875 में नैनीताल जिले के कालाढुंगी नामक स्थान में हुआ, इनके पिता वहाँ पोस्टमास्टर थे। अप्रैल 1956 में कीनिया में निधन हुआ। ये बारह भाई-बहन थे। जब जिम सिर्फ बारह वर्ष के थे तभी इनके पिता की मृत्यु हो गई थी। कालाढूंगी के खूबसूरत घने जंगलों में इनका बचपन बीता और इनका प्रकृति से अटूट और गहरा रिश्ता बना। उनका कालाढूंगी स्थित पुश्तैनी घर वर्तमान में संग्रहालय का स्थान ले चुका है और कुमाऊँ-गढ़वाल की सीमा पर स्थित भारत का पहला टाइगर रिजर्व फोरेस्ट उन्हीं के नाम पर जिम कॉर्बेट नेशनल पार्क के नाम से जाना जाता है। उन्होंने बाघों के संरक्षण की मुहिम भी चलाई इसीलिए यह टाइगर रिजर्व फोरेस्ट बना।

जिम कॉर्बेट की पहचान एक शिकारी, लेखक, प्रकृतिज्ञ और आम आदमी के मसीहा के रूप में की जाती है। शिकारी, लेखक और दार्शनिक होने के साथ-साथ आपका दृष्टिकोण मानव, प्रकृति और जीव-जंतुओं के प्रति आत्मीय, संवेदनशील और दोस्ताना था। वह एक अच्छे फोटोग्राफर भी थे।

जिम कॉर्बेट के समय जब उत्तराखण्ड वनाच्छादित था और आम आदमी के रहने-खाने की न्यूनतम सुविधायें थीं, भोजन के लिये वह जंगल-जंगली जानवरों के शिकार और कठिन कृषि पर निर्भर था और रहने के लिये कच्चे झोंपड़ों और मकानों में आश्रय लेता था। तब उसके लिये जंगली जानवरों का भय था विशेषकर शेर-चीतों का। जंगल और बस्ती की सीमायें इतनी पास-पास थीं कि जंगली जानवरों का आक्रमण उनके लिये बड़ी समस्या थी। शेर उनके पालतू पशुओं को तो अपना शिकार बनाते ही थे कई बार आदमखोर भी बन जाते थे। उस समय जिम कॉर्बेट ने कई आदमखोरों से जनता को छुटकारा दिलाया। यही नहीं उन्हें ढाढस दिया, इलाज और सेवा सुश्रूषा भी की। इस तरह वह स्थानीय जनता के जननायक भी बन गये। लोग उन्हें कारपेट साहब कहा करते थे। उत्तराखण्ड के कुमाऊँ और गढ़वाल क्षेत्र में जब भी कोई आदमखोर शेर आ जाता तब जिम कॉर्बेट को बुलाया जाता था। जिम वहाँ जाकर लोगों की रक्षा करते और आदमखोर को मारकर उसके आतंक से मुक्त करते।
Women in the writings of Jim Corbett

शिकार कथाओं के लेखन में जिम का विश्व में अग्रणी स्थान है। उनकी भाषा में जो चित्रात्मकता है वह सहज ही सम्पूर्ण परिदृश्य को बिल्कुल जीवंत रूप में पाठकों तक पहुँचाने में सक्षम हैं। उनकी उपमायें और बिम्ब अद्भुत हैं, जो उनकी संवेदनशीलता और तादात्म्यीकरण की देन हैं। उनकी शिकार कथाओं में उनका जंगल से रिश्ता और उसकी सूक्ष्म व गहन पहचान के साथ-साथ आसपास के लोगों और अपने साथियों के साथ के घनिष्ठ सम्बंध भी उजागर होते हैं। उनकी किताबें हैं- मैनईटर्स ऑफ कुमाऊँ, माई इंडिया, मैनईटिंग लैपर्ड ऑव रुद्रप्रयाग, टेंपल टाइगर, ट्री टॉप्स और जंगल लोर। उनके व्यक्तित्व और कारनामों पर लिखा भी बहुत गया है और फिल्म भी बनी है।

 उनकी कथाओं में बहुत से चरित्र आयें हैं जिनमें बहुत से स्त्री चरित्र भी हैं। माई इंडिया पुस्तक को उन्होंने हिन्दुस्तान के गरीबों के नाम करते हुए उनके प्रति अपनी भावनायें इन शब्दों में व्यक्त की हैं- जिस हिन्दुस्तान को मैं जानता हूँ, उसमें चालीस करोड़ लोग रहते हैं जिनमें से नब्बे फीसदी लोग सीधे-साधे, ईमानदार, बहादुर, वफादार और मेहनती हैं जिनकी रोजाना की इबादत- ऊपरवाले से यही रहती है कि उनकी जान-माल की सलामती बनी रहे और वह अपनी मेहनत का फल अच्छे से खा सकें।

गाँव की मलिका में स्त्री का एक जिक्र इस रूप में है कि नैनीताल की तलहटी में बसे एक गांव में सहेलियों के साथ घास काटती महिला को शेर ने उनके बीच से खींचकर अपना शिकार बना लिया। महिलायें इस हादसे की रपट लिखाने नैनीताल गईं और जिम की बहन मेरी को इसकी सूचना दी।  दूसरा जिक्र प्रधान की पत्नी का है, जिसे वह प्रधान के रहते और प्रधान की मृत्यु के बाद भी मिलता है। उसके चरित्र के माध्यम से जिम के वर्णन से स्पष्ट होता है कि वहाँ पर्दा प्रथा नहीं है, न ही सीधी नजरों से देखे जाने में कोई असहजता महसूस की जाती है। जिन्दगी में आई खुशहाली सोने की चेन, नथनी और कान की बालियों और ऊँची जाति की महिलाओं के जैसे पहनावे से प्रकट होती है। अब वह गाँव की प्रधान है। गाँव में सभी जातियों के लोग रहते हैं, पर सभी उसकी बात मानते हैं। जो वह कहती है वही कानून  होता है। वह इसलिये क्योंकि वह ब्राह्मण है।



मोती में लेखक बताते हैं- हिन्दुस्तान के हमारे हिस्से में कोई स्त्री अपने पति के नाम का जिक्र्र न नाम से करती है और न ही उसे नाम से बुलाती है। खुद उसकी पहचान बच्चों की माँ के नाम से होती है। मोती की पत्नी पूरे गांव के लिये पुनवा की मां थी। पुनवा की मां गाँव की सबसे मेहनती और जुबान की तेज महिला थी। उसके आलू सूअर खा गये इस बात से वह बेहद क्रोधित थी। वह अपने पति की लापरवाही के साथ-साथ जिम पर भी आगबबूला थी कि अगर वह सूअर का शिकार नहीं कर सकता तो उसे इतनी ऊंची दीवार तो बनवानी चाहिये कि उसे सूअर फांद न सके। मोती की मौत के बाद आगे वे लिखते हैं, हमारे तराई के इलाके की औरतें सबसे ज्यादा मेहनती होती हैं मोती की बेवा, पुनवा की मां तो इसमें भी सबसे ज्यादा कमरतोड़ मेहनत करने वालों में से थी। उसकी उम्र दूसरा विवाह करने लायक थी लेकिन उसने अकेले ही दोहरी जिम्मेदारी निभाई। घरेलू कार्यों के साथ-साथ, खेती, बाजार के सारे कार्यों को मुस्तैदी से करना लेखक को कायल कर देता है। पुनवा की माँ के लिए लेखक के मन में सम्मान की भावना है। वह पुरुषों के समान कठोर श्रम वाले कार्य भी करती हैं। लेखक उसके कर्मठ और जुझारू व्यक्तित्व की सराहना करते हैं।
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लालफीताशाही के जमाने से पहले में स्थानीय स्तर पर गाँव की व्यवस्था के अंदर फैसलों के संदर्भ में भीं वह न्याय की सहजता और औचित्य के बारे में लिखते हैं। वहीं एक घटना के माध्यम से सीधी-साधी ग्रामीण महिलाओं के चरित्र के औदात्य को प्रकट करते हैं। इस सामाजिक व्यवस्था में स्त्री-पुरुष सम्बंधों को लेकर एक खुलापन है। छेदी की बीबी कालू के साथ आ गई है, वह अपनी मर्जी से आई है इसलिये जोर-जबरदस्ती का कोई सवाल नही है, लेकिन छेदी मुआवजे का अधिकारी है। कालू छेदी को निर्धारित मुआवजा दे भी देता है, लेकिन कालू की पहले ही एक पत्नी है जो बीमार भी है। उसकी समस्या यह है कि कालू ने दूसरी बीवी रख ली है, वह अब बेघर और बेसहारा हो जायेगी। उसका करुण रुदन सुन पूरी भीड़ जहाँ स्तब्ध खड़ी थी वहीं तभी कालू की दूसरी पत्नी तिलनी ने उसे अपनी बाहों में भरकर साथ रहने और साथ खाने का ढाढस बँधाया, और अपना घर साझा कर लिया।

जंगल का कानून यूँ तो इस तथ्य को उजागर करता है कि जंगली जानवर अकारण किसी को हानि नहीं पहुँचाते हैं। कुंती और हरक्वार के बच्चे 72 घण्टे जंगल में भटकने के बाद सुरक्षित रहते हैं। लेकिन साथ ही उस समय प्रचलित बाल-विवाह की परम्परा का ज्ञान भी कराता है। जिम लिखते हैं हरक्वार और कुंती दोनों की उम्र जोड़कर भी जब दस बरस नहीं थी तब उनकी शादी हो चुकी थी। कुंती और हरक्वार ने उस दिन तक एक दूसरे को देखा भी नहीं था। उस समय विवाह की उनके लिये बस इतनी ही अहमियत थी कि उस दिन उन दोनों ने नए रंगीन कपड़े पहने थे और बहुत थोड़े से वक्त के लिए घरवालों और पहचान वालों को लुभा रहे थे। उस दिन उन दोनों ने अपने नन्हें -नन्हें पेट भरने की हद तक हलवा पूरी खाया था। कुंती को शादी होने पर सिर्फ यही फर्क पड़ा था कि वह फ्राक के बदले लहंगा-चोली पहनने लगी थी। जब गौने के बाद पति के घर गई तब भी पति भी खुद बच्चा था। एक घर से दूसरे घर जाने का मतलब कुंती के लिये सिर्फ इतना ही था कि पहले वह अपनी माँ के लिए काम करती थी और अब उसे सास के लिए वही सब काम करने पड़ते थे। घर के काम करने के बाद सास-ननदों के साथ मुखिया के खेत में काम करती थी। कुंती और दूसरी औरतों को मजदूरी आदमियों से आधी मिलती थी जबकि लेखक के अनुसार कुंती पुरुषों के बराबर ही काम करती थी।

आपकी अगली पुस्तक का रुद्रप्रयाग का आदमखोर शेर उस क्षेत्र में 1918 से 1926 के आठ वर्ष के लम्बे समय तक वहाँ के लोगों के लिए आतंक का पर्याय बना रहा। एक महिला जब खाने के बाद जूठे बर्तन धोने बाहर निकली तो घर की दहलीज से ही आदमखोर ने उसे झपट लिया। पति वहीं मौजूद था, जब उसे यह अहसास हुआ तो उसने दरवाजा बंद कर दिया। उसका तर्क था ‘मैं क्या मरी देह खोजने के लिए अपनी जान जोखिम में डालता’उसका तर्क सही था लेकिन हृदयहीन था। उसे पत्नी की मृत्यु का उतना दु:ख नहीं था जितना अपनी होने वाली -अजन्मी संतान के खोने का दर्द था।
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इसी पुस्तक में एक और घटना का जिक्र्र करते हुए बाघ से महिला की मुठभेड़ का विवरण है। उन्होंने लिखा है कि जिन पुरुषों ने युद्ध क्षेत्र में अपनी बहादुरी का परिचय दिया है, वीरता के पुरस्कार पाये हैं उन्होंने अपने मकानों के दरवाजे बाघ को तोड़ने दिए जबकि उनके पास कुल्हाड़ा, खुखरी और कई बार बंदूक भी थी। उन आठ वर्षों में मेरी नजर में केवल एक मामला आया जब बाघ को प्रतिरोध का सामना करना पड़ा, यह प्रतिरोध एक महिला ने किया था। घर में सोई महिला ने हाथ चिथड़े हो जाने के बावजूद अपने को बचा लिया था। कमरे में घुसकर बाघ ने महिला का बांया पांव पकड़ा और जैसे ही वह महिला को कमरे में घसीट रहा था महिला ने थमाले (गडासे की तरह चारा काटने वाला हथियार) से बाघ पर वार किया। बाघ ने टांग नहीं छोड़ी और दरवाजे से बाहर आ गया। दरवाजा खुद बंद हुआ या महिला ने धकेला पर दरवाजा बंद हो गया। बाघ ने पूरी ताकत लगाई ,महिला की टांग शरीर से अलग हो गई। लेकिन महिला का जीवट गजब का था।

आदमखोर बाघ का शिकार भी महिलायें ही अधिक बनीं कभी वह घास-लकड़ी लाने के लिये जंगल में, जंगल के नजदीक के खेतों में या घर के जूठे बर्तन धोने, पानी लेने के कामों के लिएं जब घर से बाहर निकलीं तब बाघ का शिकार बनीं। यह उनकी कठिन दिनचर्या और असुरक्षित सामाजिक माहौल को दर्शाता है।

जंगल लोर में जिम के बचपन से लेकर बाद तक जंगल से उनके रिश्ते को जोड़ने वाली घटनाओं का विवरण है। इसमें उनकी बचपन की अंग्रेज किशोरियाँ हैं जिनके लिए जंगल एक रोमानी थ्रिल वाली जगह है जिनका जीवन आमोद-प्रमोद से भरपूर है। जिसमें चुड़ैल की कहानियाँ भी हैं और साथी लड़कों को डराने की शरारत भी है। जींद स्टेट के महाराजा के शेर के शिकार के बीच उनके साथ आई महारानी, दो राजकुमारियों और उनकी एक सहेली का जिक्र भी इस पुस्तक में आया है, जो शेर के शिकार का नजारा देखने के लिये महाराजा के साथ आई नजर आती हैं। ये चित्र आम महिलाओं के संघर्षों से अलग अभिजात वर्ग की महिलाओं के हैं जो सम्भवत: उन आम महिलओं के दरअक्श परीकथाओं जैसे लगते हैं।

जिम ने उत्तराखण्ड की  जिन आम महिलाओं का जिक्र और चि़त्रण अपनी किताबों में किया है उनके प्रति उनकी सहानुभूति और उससे भी अधिक प्रशंसा और सम्मान का भाव मौजूद रहा है। ये महिलायें कर्मठ, मेहनती, सामाजिक परम्पराओं की वाहक, संवेदनशील, निर्भय और जुझारू हैं, जो एकदम गरीब और दैनन्दिन जीवन के संघर्षों से जूझती हुई अपना विशिष्ट चरित्र गढ़ती हैं। यूँ तो वह आज भी कमोबेश ऐसी ही है, लेकिन जिम की पैनी और पारखी नजर ही उन्हें पाठकों तक इस रूप में पहुँचाती है।
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